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बुर्के पर पाबंदी

जर्मनी में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर लगी आंशिक रोक का फैसला भले ही बहुत बड़ा न हो, लेकिन इसके नतीजे काफी दूर तक असर करने वाले हो सकते हैं। एक तो जर्मनी में मुस्लिमों की संख्या महज 15 लाख है,...

बुर्के पर पाबंदी
हिन्दुस्तानFri, 05 May 2017 11:24 AM
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जर्मनी में मुस्लिम महिलाओं के बुर्का पहनने पर लगी आंशिक रोक का फैसला भले ही बहुत बड़ा न हो, लेकिन इसके नतीजे काफी दूर तक असर करने वाले हो सकते हैं। एक तो जर्मनी में मुस्लिमों की संख्या महज 15 लाख है, जो कि वहां की आबादी का बस 1.3 फीसदी है। दूसरे सिर्फ उन्हीं महिलाओं के बुर्का पहनने की रोक लगी है, जो नागरिक सेवा में हैं, सेना में हैं या फिर जज हैं। इस श्रेणी में बुर्का पहनने वाली कुल कितनी महिलाएं होंगी, इसका कोई आंकड़ा नहीं दिया गया है, लेकिन अनुमान यही है कि यह संख्या काफी कम होगी और मुमकिन है कि उंगलियों पर गिनी जा सकने वाली हो। लेकिन यहां मुद्दा सिर्फ संख्या का नहीं है, मुद्दा उस रुझान का है, जो यूरोप के देशों को एक के बाद एक अपनी गिरफ्त में लेता जा रहा है। फ्रांस ने 2010 में ही सार्वजनिक स्थानों पर मुंह ढकने पर रोक लगाकर बहुत पहले इसकी शुरुआत कर दी थी। इस एक कानून ने वहां बुर्के को लगभग पूरी तरह ही बाहर कर दिया था। लगता है, जर्मनी भी अब उसी ओर बढ़ रहा है, हालांकि अभी जिस कानून को बनाए जाने की कोशिश हो रही है, वह फ्रांस जितना व्यापक नहीं है। लेकिन बड़ी बात यह है कि जर्मनी में भी वह राजनीति जोर पकड़ने लगी है, जो फ्रांस में पहले ही अपनी पैठ बना चुकी है। इस राजनीति का अंदाज इस बात से लग सकता है कि इसका कोई प्रशासनिक आदेश नहीं जारी हुआ, बल्कि संसद में बाकायदा विधेयक पास हुआ है। इन दोनों के अलावा यूरोप के नीदरलैंड, बेल्जियम, बुल्गारिया व स्विट्जरलैंड जैसे देशों में बुर्का पहनने पर पाबंदी लग चुकी है। 

हर जगह ऐसी पाबंदी के पीछे धारणा यही रहती है कि बुर्के और हिजाब जैसी चीजें मजहबी कट्टरता की प्रतीक हैं, जो इन दिनों बढ़ती जा रही है, और इसे रोकने के लिए इन पर पाबंदी लगनी चाहिए। कुछ लोग इनको बढ़ते आतंकवाद से भी जोड़कर देखते हैं। कुछ अतिवादी यह भी तर्क देते हैं कि बुर्का और आतंकवाद, दोनों एक ही प्रवृत्ति का नतीजा हैं। यह बात अलग है कि इस तरह की पाबंदी से कट्टरता में कमी आएगी, इसका कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है, बल्कि एक सोच यह भी है कि इससे कट्टरता या अलगाव बढ़ भी सकते हैं। हालांकि पाबंदी लगाने को लेकर जो तर्क दिया जाता है, वह कुछ दूसरा होता है। कहा जाता है कि ऐसे परिधान से लोग अपनी पहचान छिपा लेते हैं, जो सुरक्षा के लिए खतरा हो सकता है। साथ ही समाज में ्त्रिरयों और पुरुषों के खुलेपन की संस्कृति को बनाए रखने का हवाला भी दिया जाता है। लेकिन एक दूसरी सोच यह भी है कि दुनिया भर में इस्लाम के खिलाफ जो माहौल बन रहा है, यह उसी का एक हिस्सा है।

बुर्के, हिजाब और परदे के खिलाफ महिलाओं के अधिकारों को लेकर जो सवाल उठाए जाते रहे हैं, वे भी इस चर्चा में हैं और शायद वे सबसे वाजिब सवाल हैं। कुछ भी हो, ये सारे परिधान उस सामाजिक सोच के प्रतीक तो हैं ही, जो महिलाओं को सदियों से पीछे धकेलती रही है। यह बात अलग है कि सदियों से इस सोच को जी रहे समाजों ने इसे एक परंपरा और संस्कृति का रूप दे दिया है। परिधान तो समय के साथ अक्सर बदल जाते हैं, लेकिन जड़ परंपराओं व संस्कृति को बदलना इतना आसान नहीं होता। यह एक जटिल काम है, जो समाज और सोच के स्तर पर बदलाव की मांग करता है। जबकि हम कानून और पाबंदी के जरिये बदलाव की आसान राह को चुनते हैं, जो हमें एक हद से आगे नहीं ले जाती। बिना टकराव बढ़ाए बदलाव लाने का रास्ता कठिन भी है और जटिल भी, लेकिन दुनिया भर की बहुत सी सरकारें फिलहाल आसान रास्ते पर बढ़ रही हैं। 

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