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अलविदा विनोद खन्ना

किसी बड़े कलाकार की तरह ही विनोद खन्ना के साथ भी यह सच जुड़ा है कि वह पैदाइशी अभिनेता नहीं थे। स्कूल के मंच पर एक नाटक में जबरन क्या उतारे गए, उनके अंदर पड़े अभिनय के बीज ने एक नायक ही पैदा कर दिया। एक...

अलविदा विनोद खन्ना
हिन्दुस्तानFri, 05 May 2017 11:23 AM
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किसी बड़े कलाकार की तरह ही विनोद खन्ना के साथ भी यह सच जुड़ा है कि वह पैदाइशी अभिनेता नहीं थे। स्कूल के मंच पर एक नाटक में जबरन क्या उतारे गए, उनके अंदर पड़े अभिनय के बीज ने एक नायक ही पैदा कर दिया। एक ऐसा कलाकार, जो अभिनय के कई शेड्स साथ लेकर चलता था। एक ऐसा विरल अभिनेता, जो महानायक बनने की राह बीच में अचानक छोड़ महज इसलिए किसी दूसरी गली में चला जाए कि किसी प्रिय के जाने के कारण टूटा हुआ महसूस कर रहा हो। ऐसा अभिनेता, जो अभिनय के इंटरवल के बाद उसी धार के साथ लौटे। ऐसा अभिनेता, जो विलेन बनकर आए, लेकिन खुरदुरे खलनायकत्व की परिभाषा बदल दे। 

विनोद खन्ना की फिल्मी एंट्री भी कम फिल्मी नहीं है। स्कूली जबरिया नाटक के बाद बोर्डिंग के दिनों में मुगल-ए-आजम  क्या देखी, फिल्मों में काम करने का भूत सवार हो गया। टेक्सटाइल, डाई और केमिकल का बिजनेस करने वाले पिता से आखिर दो साल की समय-सीमा में कुछ कर दिखाने की शर्त पर इजाजत मिली, और विनोद ही थे कि शर्त तय समय में पूरी कर डाली। पहली ही मुलाकात में सुनील दत्त से मन का मीत (1968) में विलेन का रोल हथिया लिया और एक अनाड़ी जंगली जानवर बदतमीज दीवाना  जैसे सदाबहार गाने के साथ हर दिल पर छा गए। फिर आन मिलो सजना, पूरब और पश्चिम, सच्चा-झूठा  से होते हुए गुलजार निर्देशित मेरे अपने  में नायक के रूप में दिखाई दिए। यह विनोद ही थे, जो बाद में  एंट्री लेकर भी मल्टीस्टारर फिल्मों में अमिताभ बच्चन, राजेश खन्ना, सुनील दत्त के साथ खड़े होने के बावजूद अलग दिखाई देते रहे। हेराफेरी, खून पसीना, अमर अकबर एंथोनी, मुकद्दर का सिकंदर  ऐसी ही ब्लॉक बस्टर फिल्में हैं। सफलता के इसी शिखर पर विनोद ने 1982 में एक ऐसा फैसला लिया, जो पूरी इंडस्ट्री में हड़कंप मचा गया। मां की मौत से टूट गए और करियर के पीक पर होने के बावजूद शांति की तलाश में ओशो की शरण पहुंच स्वामी विनोद भारती बन गए। विनोद वहां से लौटे, पर पुराना स्टारडम फिर न पा सके। 1987 में इंसाफ  के साथ हुई यह वापसी कुर्बानी  व दयावान  जैसी सफल फिल्मों के बावजूद बहुत आगे न जा सकी।

विनोद खन्ना उस वक्त आए, जब मदन पुरी, अनवर हुसैन जैसे खुरदुरे चेहरे वाली खलनायकी का दौर था। इन खुरदुरे खलनायकों के बीच ‘सुपरस्टार खलनायक’ बन चुके इस अभिनेता में नायक बनने की बेचैनी के बीच गुलजार की मेरे अपने  निर्णायक साबित हुई। बाद में पूरब और पश्चिम, अचानक, मेरा गांव मेरा देश  और हाथ की सफाई  के रास्ते वह कब चुपके से अमिताभ बच्चन, धर्मेंद्र, सुनील दत्त, शत्रुघ्न सिन्हा के बगल में आकर खड़े हो गए, पता ही नहीं चला। गुलजार, मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा की पसंद बनना भी आसान नहीं था, लेकिन विनोद सबकी पसंद बने। हिंदी फिल्मों के कम ही अभिनेता हैं, जो राजनीति में भी सफल रहे। सुनील दत्त के बाद विनोद खन्ना भी अवपाद हैं। वह भाजपा में रहते हुए गुरदासपुर से कई बार सांसद चुने गए और केंद्र में मंत्री भी बने। विनोद खन्ना अपनी संवेदनशीलता के कारण जनता में अपनी पैठ के लिए भी जाने गए। यह शायद विनोद खन्ना का खुशमिजाज किरदार ही था कि उनकी बीमारी भी जल्दी खबर न बन पाई और पिछले दिनों जब उनकी कृशकाया के साथ एक तस्वीर वायरल हुई, तो कोई उसे सच मानने को तैयार नहीं था। हालांकि सिनेमाई अंत में जीत की परिपाटी वाली स्क्रिप्ट इस बार नहीं चली। 140 फिल्में करने वाले विनोद खन्ना ने गुरुवार को आखिरी शॉट दिया। अपनी स्टाइल से।
 

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