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राजनीति तोड़ती है सेना का मनोबल

जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना को निशाना बनाए जाने की कई घटनाएं पिछले एक-डेढ़ साल में हुईर्ं। नगरोटा, उरी, पंपोर जैसी जगहें तो इसके लिए कुख्यात-सी हो चुकी हैं। घाटी के बिगड़े हालात की एक बड़ी वजह हमारे...

राजनीति तोड़ती है सेना का मनोबल
मारूफ रजा, रक्षा विशेषज्ञSat, 29 Apr 2017 12:19 AM
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जम्मू-कश्मीर में भारतीय सेना को निशाना बनाए जाने की कई घटनाएं पिछले एक-डेढ़ साल में हुईर्ं। नगरोटा, उरी, पंपोर जैसी जगहें तो इसके लिए कुख्यात-सी हो चुकी हैं। घाटी के बिगड़े हालात की एक बड़ी वजह हमारे राजनेता हैं। अपने सियासी हित साधने के लिए वे स्पष्ट रुख नहीं अख्तियार कर रहे। मसलन, केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने यह प्रभाव जमाने के लिए कि देश के ज्यादातर राज्यों में उसकी सरकार है, उसने जम्मू-कश्मीर में पीडीपी के साथ गठबंधन जारी रखा है। मानो, उसे इससे कोई मतलब नहीं कि अलगाववादियों के साथ पीडीपी के रिश्ते कैसे हैं और जगजाहिर हैं। क्या यह न्यायोचित है कि जिन आतंकियों से हमारी सेना मोर्चा ले रही हो, हमारे सियासी आका उन्हीं के साथ गलबहियां करते दिखाई दें?

खुफिया एजेंसियों की नाकामी भी एक महत्वपूर्ण वजह है। बुरहान वानी की मौत के बाद से घाटी में बात बिगड़नी शुरू हुई थी। क्या हमारी एजेंसियों को यह पता नहीं था कि वानी इस कदर लोगों के दिलों में जगह बना चुका है? और अगर यह जानकारी उन्हें थी, तो समय रहते उसके पंख काटने के क्या उपाय किए गए? हमारे सुरक्षा बलों ने वानी को तो मौत के घाट उतार दिया, लेकिन इस कार्रवाई का एलान एक बड़ी चूक ही थी। अगर वानी को चुपचाप दफना दिया गया होता, तो घाटी में हालात इतने न बिगड़ते। दिक्कत यह भी है कि हमारी सरकारों को वहां सोशल मीडिया को प्रतिबंधित करने में ही महीनों लग गए, जबकि वहां के पुलिस अफसर पिछले छह महीने से कह रहे थे कि सोशल मीडिया की सहायता से पाकिस्तान विद्रोह की आग भड़का रहा है। 

असल में, कश्मीर मसले को हर बार पहले बिगड़ने दिया जाता है, और फिर उसे ठीक करने की जिम्मेदारी सुरक्षा बलों पर डाल दी जाती है। पिछले 25-26 वर्षों में कम से कम तीन-चार बार ऐसे मौके जरूर आए हैं, जब कश्मीर के हालात लगभग सामान्य हो गए थे। मगर हमारे राजनेता उसका फायदा नहीं उठा सके। कई बार तो ऐसा लगता है, जैसे गृह मंत्रालय और कश्मीर के नेतागण ही घाटी को शांत नहीं देखना चाहते। शायद घाटी में बंदूकें शांत हो गईं, तो फिर उनकी तमाम शान-ओ-शौकत खत्म हो जाएगी। जम्मू-कश्मीर दूसरे भारतीय राज्यों की तरह हो जाएगा। और नेताओं व नौकरशाहों का वीवीआईपी रुतबा छिन जाएगा। शायद इसीलिए कश्मीर को बार-बार लपटों के हवाले कर दिया जाता है।

सवाल यह है कि सेना को इन हमलों से बचाया कैसे जाए? मेरा मानना है कि जब शरीर गंदा रहेगा, तो हमारा बीमार पड़ना स्वाभाविक है। इसके लिए हम दोष रोग पर नहीं डाल सकते। इसलिए हमें अपने तईं प्रयास करने ही होंगे। यह समझना चाहिए कि चाहे जितनी फेंसिंग (घेराबंदी या बाड़ लगाना) लगा ली जाए, सीमा पार आतंकियों का आना हम पूरी तरह से नहीं रोक सकते। वजह स्पष्ट है कि नियंत्रण रेखा पर कई ऐसी जगहें हैं, जहां नक्शे पर खींची गई रेखा से तीन-चार किलोमीटर दूर फेंसिंग लगी है, क्योंकि फेंसिंग खींचते वक्त पाकिस्तान की तरफ से तेज गोलाबारी हो रही थी। इसीलिए एलओसी और फेंसिंग के बीच की खाली जगहें आतंकियों का ठिकाना बन जाती हैं और फिर मौका मिलते ही वे हमले कर देते हैं। 

हालांकि फेंसिंग को दुरुस्त करने के प्रति सरकार का उदासीन रवैया भी मुश्किलें पैदा करता है। एलओसी पर जैसे ही 10-15 फीट ऊंचाई तक बर्फ पड़ती है, फेंसिंग उसमें दब जाती है और बर्बाद हो जाती है। बर्फ की वजह से उसकी दशा ऐसी हो जाती है, जैसे कोई कागज मोड़कर फेंक दिया गया हो। मगर सरकार फेंसिंग को ठीक करने के नाम पर आसानी से बजट नहीं देना चाहती। 

बहरहाल, गुरुवार तड़के आतंकियों ने एडमिन बेस पर हमला बोला था। वह कोई फ्रंट लाइन मोर्चा नहीं है। फ्रंट लाइन मोर्चा उसे कहते हैं, जो एलओसी के बिल्कुल पास होता है, पाकिस्तानी मोर्चे के बमुश्किल 100-200 गज की दूरी पर। हाल के महीनों में सेना के जिन-जिन ठिकानों को आतंकियों ने निशाना बनाया, उनमें से शायद ही कोई फ्रंट लाइन मोर्चा था। इसका संकेत साफ है कि पाकिस्तान आतंकियों के माध्यम से उन मोर्चों को निशाना बना रहा है, जहां सैनिकों के परिजन आते-जाते हैं। वे हमारे सैनिकों के परिजनों को निशाना बनाकर जवानों के मन में खौफ पैदा करना चाहते हैं। इसीलिए हमें इसका मुंहतोड़ जवाब देना ही चाहिए।

हमें फिर से सर्जिकल स्ट्राइक जैसी ही कोई कार्रवाई करनी चाहिए, जिसके बाद पाकिस्तान कुछ दिनों तक सकते में आ गया था। मगर उस वक्त भी हमारी फौज ने एक गलती कर दी थी, जिसका फायदा पाकिस्तान उठा बैठा। हमने सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत सार्वजनिक नहीं किए। इससे पड़ोसी देश को अपनी नाक बचाने का मौका मिल गया। हमारा विदेश मंत्रालय भले इस सपने में मगन है कि एक दिन पाकिस्तान और भारत एक साथ एक टेबल पर बैठेंगे, लेकिन हकीकत के चश्मे से देखने पर यह दिवास्वप्न ही लगता है।

कूटनीति के अतिरिक्त हम सेना के स्तर पर कुछ दूसरे उपाय भी कर सकते हैं। पहला तो यही कि हम उन पर जोरदार जवाबी हमला करें। वे हमारे सैनिकों को आतंकियों के माध्यम से निशाना बना रहे हैं, हम इसका जवाब फौजी कार्रवाई से दें। दूसरा तरीका यह है कि 740 किलोमीटर की एलओसी में उन जगहों पर पाकिस्तानी सैनिकों को निशाना बनाएं, जहां वे कमजोर हैं। अगर हम इससे भी बचना चाहते हैं, तो हमें आर्बट्ररी फायरिंग (स्वेच्छाचारी होकर लगातार गोली चलाना) खोल देनी चाहिए। ऐसा पहले भी किया गया है, जिसके नतीजे अच्छे निकले थे। एक अन्य तरीका सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत को सार्वजनिक करना भी हो सकता है। कुल मिलाकर देखें, तो पाकिस्तान पर दबाव बनाने की कई रणनीति हमारे पास है। मगर मुश्किल यह है कि हमारे पास फिलहाल कोई स्थायी रक्षा मंत्री भी नहीं है। हमारे नीति-नियंताओं को समझना होगा कि चुनावी भाषणों में राष्ट्रीय सुरक्षा की बातें कहने भर से हालात अपने हक में नहीं हो जाते, इसके लिए जमीन पर ठोस कार्रवाई करनी होती है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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