फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियन ताजा ओपिनियनफिर पढ़ें हाशिमपुरा के पन्ने

फिर पढ़ें हाशिमपुरा के पन्ने

कुछ तारीखें इतिहास में दर्ज हो जाती हैं और उनके गुजरने के बाद समय और समाज वही नहीं रह जाता जैसा पहले था। आज से 30 साल पहले 22 मई 1987 को मेरठ में ऐसा ही कुछ घटा था जिसने भारतीय गणराज्य के...

फिर पढ़ें हाशिमपुरा के पन्ने
विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी Mon, 22 May 2017 07:21 PM
ऐप पर पढ़ें

कुछ तारीखें इतिहास में दर्ज हो जाती हैं और उनके गुजरने के बाद समय और समाज वही नहीं रह जाता जैसा पहले था। आज से 30 साल पहले 22 मई 1987 को मेरठ में ऐसा ही कुछ घटा था जिसने भारतीय गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष चेहरे को कई अर्थों में धुंधला कर दिया था और आज भी कानूनी दांव पेचों मे उलझे पीडि़त परिवारों के लिए न्याय मृग मरीचिका सा ही है। संक्षेप में हाशिमपुरा की गाथा किसी अंतहीन दुखांतिका सी लगती है जो तीन दशकों से घिसट-घिसट कर चल रही है और जिसका कोई अंत नजर नहीं आता।

22/23 मई सन 1987 की आधी रात दिल्ली-गाजियाबाद सीमा पर मकनपुर गांव से गुजरने वाली नहर की पटरी और किनारे उगे सरकण्डों के बीच टार्च की कमजोर रोशनी में खून से लथपथ धरती पर मृतकों के बीच किसी जीवित को तलाशना और हर अगला कदम उठाने के पहले यह सुनिश्चित करना कि वह किसी जीवित या मृत शरीर पर न पड़े-सब कुछ मेरे स्मृति पटल पर आज भी किसी हॉरर फिल्म की तरह अंकित है।

उस खौफनाक रात जब गाजियाबाद के तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के रूप में मैंने पहली बार इस हत्याकांड के बारे में सुना, मुझे तब तक इस खबर की विश्वसनीयता पर यकीन नहीं हुआ जब तक जब तक मैं जिला मजिस्ट्रेट और दूसरे अधिकारियों के साथ हिंडन नहर पर पहुंच नहीं गया। मुझे जल्द ही यह अहसास हो गया कि मैं धर्मनिरपेक्ष भारत की सबसे शर्मनाक और हृदय विदारक हिरासती हत्या का चश्मदीद गवाह बनने जा रहा हूं। कुछ ही घंटों में यह स्पष्ट हो गया कि उत्तर प्रदेश के सशत्र पुलिस बल पीएसी ने दंगा ग्रस्त मेरठ से दर्जनों मुसलमानों को उठाया और मेरे क्षेत्राधिकार में लाकर उन्हें नृशंसतम तरीके से मार दिया था।

दिल्ली के सेशंस जज ने घटना के 27 साल बाद अपना फैसला सुनाते हुये कहा कि उनके मन में कोई शक नहीं है कि 22 मई 1987 को दंगा ग्रस्त मेरठ के हाशिमपुरा मोहल्ले से 42 मुसलमानों को पीएसी ने उठाया और यह भी साबित हो गया है कि उन्हें दो नहरों के किनारे उतार कर पीएसी कर्मियों द्वारा ही मार डाला गया पर वे अभियुक्त की हैसियत से खड़े पीएसी कर्मियों में से किसी को सजा नहीं दे सकते क्योंकि उनमें से किसी के विरुद्ध आरोप सिद्ध नहीं हो सका।

हत्याकांड में से बच निकल जाने वाले जुल्फिकार नासिर ने जब मुझसे पूछा कि अगर पीएसी वालों ने उन्हें नही मारा तो क्या मरने वालों ने आत्म हत्या की थी, मैं कुछ नहीं बोल सका। नासिर के सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है पर इसे ढूढ़ना बहुत जरूरी है। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हूं तो मुझे लगता है कि भारतीय राज्य के सारे स्टेक होल्डर - राजनैतिक नेतृत्व, प्रशासन और पुलिस, मीडिया या न्यायपालिका सभी इस मामले में बुरी तरह से असफल सिद्ध हुए। किसी सभ्य समाज में ऐसा नहीं हो सकता कि 42 निदार्ेष नागरिकों को पुलिस उठाकर ले जाए और उन्हें नृशंसतम तरीके से मार डाले। मरने वालों ने अपने हत्यारों को इसके पहले कभी नहीं देखा था, उनकी उनसे कोई दुश्मनी भी नहीं थी। उनका अपराध सिर्फ इतना था कि वे स्वस्थ और जवान थे। उन्हें मार कर पूरे समुदाय को न भुला सकने वाला दंड दिया जा सकता था। पर क्या एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक समाज में ऐसा किया जाना क्षम्य है?

अदालत के फैसले से मुझे कोई आश्चर्य नहीं हुआ था क्योंकि मैं जानता था कि जिस तरह की तफतीश सीआईडी ने की है और जैसे साक्ष्य अदालत के सामने रखे गए हैं उनसे अभियुक्तों को सजा दिलवा पाना लगभग असंभव था। हाशिमपुरा पर किताब लिखते समय जब मैं सीआईडी के दस्तावेज पढ़ रहा था तब मुझे हमेशा लगा कि मैं अभियोजन के नहीं बचाव पक्ष के तर्क पढ़ रहा हूं। क्या आप यह विश्वास कर सकतें हैं कि इतना बड़ा और संगठित नरसंहार एक सब इंस्पेक्टर स्तर के अधिकारी द्वारा अंजाम में लाया जा सकता है? जिस टुकड़ी को अभियुक्त के रूप मे खड़ा किया गया उसका नेतृत्व सब इंस्पेक्टर सुरेंद्र पाल सिंह कर रहा था। निश्चित रूप से इसमें पुलिस और प्रशासन के वरिष्ठ अधिकारियों की शह रही होगी। यदि आप सीआईडी की चार्ज शीट पर यकीन करें तो इस हत्याकांड के लिए सिर्फ 19 पीएसी कर्मियों की ‘दूषित मानसिकता’ ही जिम्मेदार थी। सीआईडी ने इस घटना के पीछे सेना की भूमिका की गंभीरता से पड़ताल करने की जरूरत महसूस नहीं की और प्रारंभिक विवेचना में सैनिक अधिकारियों के बारे में प्रतिकूल टिप्पणियां करने के बावजूद बाद में उनकी भूमिका के बारे में पूरी तरह खामोशी अख्तियार कर ली गयी। इतने बड़े हत्याकांड में परदे के पीछे कोई न कोई प्रभावशाली राजनैतिक व्यक्तित्व जरूर रहा होगा। तफ्तीश इस सन्दर्भ में हमारी कोई मदद नहीं करती।

निचली अदालत से छूट जाने के बाद उत्तर प्रदेश सरकार ने हाईकोर्ट में अपील जरूर की है पर मुझे नहीं लगता कि जिस तरह के साक्ष्य विवेचना के दौरान जुटाये गए थे उनके आधार पर दुनिया की कोई भी अदालत अभियुक्तों को सजा दे सकती है। मेरा मानना है कि पूरे प्रकरण में नए सिरे से तफतीश होनी चाहिए। जब मैं यह बात कहता हूं तो लोग निराशा से सर हिलाते हैं। अदालत का पहला फैसला आने में सत्ताईस साल लग गए और इस बीच बहुत से अभियुक्त और गवाह मर चुके हैं। इतने समय बाद दस्तावेजी और फारेंसिक सबूतों को भी फिर से जुटा पाना लगभग असंभव सा लगता है। इसके बाद भी मेरा मानना है कि यदि कुशल विवेचकों की टीम द्वारा समयबद्ध और उच्च न्यायालय के निकट पर्यवेक्षण में फिर से तफतीश की जाय तो अभियुक्तों को दण्डित करने का कोई न कोई रास्ता अवश्य निकला आयेगा।

हाशिमपुरा पर किताब लिखने के दौरान मुझे अकसर यह सलाह दी गई कि अब हमें गड़े मुर्दे नहीं उखाड़ने चाहिए। बार-बार याद दिलाने से पुराने जख्म भरेंगे नहीं ताजा बने रहेंगे - मैं चाहता भी नहीं कि जख्म भरें। भारतीय राज्य की आंखों मे उंगलियां डाल-डाल कर याद दिलाने की जरूरत है कि उसने वह सब नहीं किया जो उसे करना चाहिए था या वह सब किया जिसे करने से भारतीय संविधान रोकता है। यह याद रखने की जरूरत है कि हाशिमपुरा हमारे लोकतंत्र के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के लिए एक बड़ा खतरा है। अगर हम हाशिमपुरा भूल गये तो भविष्य में और भी हाशिमपुरा होंगे।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें