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चीन की सड़क और भारत के रास्ते

इस हफ्ते का एक घटनाक्रम दूरगामी नतीजों वाला हो सकता है। भारत ने चीन की उस महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव’ में शामिल न होने का फैसला लिया, जो यूरेशियाई (यूरोप और एशिया की...

चीन की सड़क और भारत के रास्ते
जोरावर दौलत सिंह, फेलो, सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, दिल्लीThu, 18 May 2017 10:22 PM
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इस हफ्ते का एक घटनाक्रम दूरगामी नतीजों वाला हो सकता है। भारत ने चीन की उस महत्वाकांक्षी परियोजना ‘बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव’ में शामिल न होने का फैसला लिया, जो यूरेशियाई (यूरोप और एशिया की संयुक्त भूमि) अर्थव्यवस्था को नया आकार देने की मंशा के साथ शुरू की गई है। बीजिंग में हुई इस हाई प्रोफाइल बैठक में भारत का शामिल न होना सभी के लिए आश्चर्य और बहस का मुद्दा बन गया, हालांकि उस बैठक में 30 देशों के राष्ट्र-प्रमुखों सहित करीब 100 देशों के प्रतिनिधियों ने शिरकत की। अब सवाल ये उठ रहे हैं कि चीन के मामले में मोदी सरकार की नीति आखिर क्या है? जब यूरेशिया कनेक्टिविटी और एक-दूसरे पर निर्भरता के नए अध्याय की तरफ आगे बढ़ रहा है, तो भारत उससे दूर रहकर क्या अलग-थलग होने का जोखिम नहीं मोल ले रहा?

भारत का रुख समझने के लिए इसके विदेश मंत्रालय का 13 मई का बयान पढ़ा जाना चाहिए। इसमें बेल्ट ऐंड रोड से जुड़ी एक महत्वपूर्ण योजना चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे को कश्मीर में भारत के दावे की उपेक्षा के रूप में बताया गया है, क्योंकि यह गलियारा पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर से होकर गुजरता है। मगर भारत का विरोध महज संप्रभुता की ‘चिंता’ नहीं है। बेल्ट ऐंड रोड का विरोध इससे कहीं ज्यादा व्यापक और गहरा है। असल में, पूरे एशिया में चीन के आर्थिक प्रभाव में होने वाली वृद्धि को दक्षिण एशिया में एक बड़ी ताकत बनने की भारत की आकांक्षा और उसके पारंपरिक रुतबे के लिए सीधी व बड़ी चुनौती माना गया है। 

बेल्ट ऐंड रोड से पीछे हटने की एक सोच यह भी है कि जब तक भारत अपनी कोई कनेक्टिविटी और आर्थिक क्षमता विकसित नहीं कर लेता, तब तक उसे चीन-प्रयोजित किसी भी परियोजना में संजीदगी नहीं दिखानी चाहिए। हालांकि एक दूसरी राय यह भी है कि अपनी आर्थिक उन्नति के लिए भारत को खुद भी एशियाई और यूरेशियाई अर्थव्यवस्थाओं से जुड़ना होगा। खासतौर से तब, जब 2008 की मंदी के बाद की दुनिया में वे तमाम विकल्प सिमटते जा रहे हैं, जो पश्चिमी पूंजी पर निर्भरता की पुरानी उदारीकरण की नीति के वाहक रहे हैं। लिहाजा बेल्ट ऐंड रोड को वित्तीय संसाधन का एक नया स्रोत व भारत के दीर्घकालिक विकास को मजबूत बनाने के लिए जरूरी एक अवसर (मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े) माना जाना चाहिए। पहली सोच में तेज प्रतिस्पद्र्धा की बात है, जिसमें पारस्परिक या सशर्त जुड़ाव के बहुत कम मौके मिलते दिखते हैं। जबकि दूसरा नजरिया एक-दूसरे पर निर्भरता की वकालत करता है, जिसमें विकास और आधुनिकीकरण की कोई भी पहल दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था चीन को अलग करके आगे नहीं बढ़ाई जा सकती। लेकिन एक बात तो यह कि भारत संभवत: सुरक्षा की अवधारणा की समग्रता में कल्पना नहीं कर पा रहा है। या दूसरे शब्दों में कहें, तो हम व्यापक आर्थिक विकास और भू-राजनीतिक हितों के बीच तालमेल बिठाने में ही लगे हुए हैं।

दुनिया की बड़ी ताकतों, यहां तक कि भारत के पड़ोसियों का रुख देखें, तो हम चीन-नीति की जटिलताओं को बखूबी समझ सकेंगे। अमेरिका और रूस, दोनों चीन के साथ अपने द्विपक्षीय रिश्तों को आगे बढ़ा रहे हैं। यह तय है कि भौगोलिक कारणों से चीन की किसी भी ट्रांस-यूरेशियाई नीति के केंद्र में रूस का होना लाजिमी है। नक्शे पर एक सरसरी निगाह दौड़ाकर भी समझा जा सकता है कि लंबी दूरी की कनेक्टिविटी वाली कोई भी परियोजना रूस और उसके मध्य एशियाई मित्र देशों की सीधी या परोक्ष रूप से सहभागिता के बिना आखिर क्यों संभव नहीं है? यही कारण है कि बेल्ट एंड रोड के तहत उल्लिखित छह में से तीन कॉरिडोर- चीन-मंगोलिया-रूस कॉरिडोर, यूरेशियन लैंड ब्रीज और चीन-मध्य एशिया-पश्चिम एशिया आर्थिक कॉरिडोर, में चीन को रूस के सहयोग की दरकार है। मगर अमेरिकी कंपनियां भी इस मौके का लाभ उठाने से चूकना नहीं चाहतीं। शायद यही कारण था कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी ह्वाइट हाउस के एक वरिष्ठ अधिकारी को बेल्ड ऐंड रोड समिट में शामिल होने के लिए भेजा।

साफ है कि इन दोनों में से कोई भी सुपर पावर नहीं चाहता कि वह बेल्ट ऐंड रोड की मुखालफत करता हुआ दिखे या इसके खिलाफ भारतीय दलील के साथ खड़ा नजर आए। यह सही है कि चीन के विस्तारवादी रवैये के प्रति अमेरिका और रूस, दोनों चिंतित हैं। मगर तब भी उन्होंने राजनीतिक-सैन्य गठबंधन को बनाए रखने की क्षेत्रीय नीतियों और पारस्परिक निर्भरता बरकरार रखने वाली एक जटिल रणनीति को आगे बढ़ाया है। यह जटिल सोच हमें अपने उप-महाद्वीप में भी देखने को मिलती है। नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और म्यांमार जैसे भारत के पड़ोसी एक तरफ चीन के साथ आर्थिक संबंध मजबूत कर रहे हैं, तो दूसरी तरफ भारत के साथ भी करीबी रिश्ता बनाने में जुटे हुए हैं। भूटान को छोड़कर हमारे तमाम करीबी पड़ोसियों का बीजिंग बैठक में शिरकत करना इसी की एक कड़ी है, जिससे हमें सबक लेना चाहिए। नई दिल्ली के लिए ऐसे किसी त्रिकोणीय रिश्ते के बीच यह काफी मुश्किल या असंभव काम होगा कि वह चीन को नजरअंदाज करने के लिए दक्षिण एशियाई देशों को मनाए। लिहाजा भारत के लिए मुफीद यही होगा कि वह एक ऐसा माहौल बनाए, जिसमें उसके पड़ोसी चीन के साथ अपने संबंधों को मजबूत करते हुए भी उस सीमा-रेखा को पार न करें, जिससे इस उपमहाद्वीप में चीन की सेना को किसी भी तरह से पांव फैलाने का मौका मिले।

अगर चीन के बेल्ट ऐंड रोड जैसी पहल पर भारत सीधे-सीधे प्रतिद्वंद्विता में उतरता है, तो संभव है कि गिने-चुने देश ही उसके साथ आते दिखें, क्योंकि बाकी तमाम देशों का चीन के प्रति रुख बिल्कुल अलग रहा है। इसमें एशियाई देश भी शामिल हैं। इसलिए हमें भी एक ऐसी चीन-नीति अपनाने की जरूरत है, जो न सिर्फ यर्थाथपरक हो, बल्कि मौजूदा सत्ता संतुलन के भी अनुकूल हो। ऐसी नीति न सिर्फ हमारे महत्वपूर्ण भू-राजनीतिक हितों की रक्षा करेगी, बल्कि भारतीयों के विकास संबंधी उद्देश्यों को भी पूरा कर सकेगी। स्मार्ट और बेहतर शासन-कला का विकल्प उन्माद नहीं हो सकता। चीन के मामले में हमें यही दृष्टिकोण अपनाना होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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