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अपनी समझ के विकास से रिश्ता तोड़ने की भाषा

न जाने क्यों बहुतेरी झूठी-सच्ची बातों पर गर्व करते रहने वाला हमारा देश अपनी भाषिक संपदा पर गर्व नहीं करता। उल्टे भाषिक बहुलता को कुछ लोग समस्या की तरह ही देखते हैं। नतीजा यह है कि बड़ी तेजी से हमारी...

अपनी समझ के विकास से रिश्ता तोड़ने की भाषा
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 21 Feb 2017 12:01 AM
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न जाने क्यों बहुतेरी झूठी-सच्ची बातों पर गर्व करते रहने वाला हमारा देश अपनी भाषिक संपदा पर गर्व नहीं करता। उल्टे भाषिक बहुलता को कुछ लोग समस्या की तरह ही देखते हैं। नतीजा यह है कि बड़ी तेजी से हमारी भाषिक संपदा का लुप्त हो रही है। भाषाविद गणेश देवी ने ग्रियर्सन के लगभग 80 साल बाद भारतीय भाषाओं का सर्वेक्षण कराया है, जिसके नतीजे बेहद दिलचस्प और आंख खोलने वाले हैं।

सर्वे के मुताबिक, भारत में तकरीबन 900 भाषाएं बोली जाती हैं। इनमें वे भाषाएं भी शामिल हैं, जिन्हें बोलने वालों की संख्या दस हजार से कम है। करीब 780 भाषाओं के प्रमाण सर्वे में मिले हैं। उनका अनुमान है कि इसके बाद भी सौ से ज्यादा भाषाएं हैं। वर्ष 1961 की जनगणना के अनुसार, भारत में 16-17 सौ भाषाएं थीं, पिछले 50-60 वर्षों में यह संख्या आधी रह गई है। सर्वे में आशंका जताई गई है कि आने वाले 50 वर्षों में इनमें से लगभग एक तिहाई भाषाएं खत्म हो जाएंगी। 

कहने और सुनने में यह बात कुछ अजीब लग सकती है, लेकिन भाषाओं के अस्तित्व पर खतरा इसलिए है कि भाषा के सवाल को भी सामाजिक व राजनीतिक वर्चस्व से जोड़कर देखा जाता है। औपनिवेशिक गुलामी के दौर में कुछ सामाजिक समूहों को उनकी भाषा-बोली के आधार पर पिछड़ा व गंवार कहने के प्रयत्न हुए। वर्ण-व्यवस्था के अभ्यस्त समाज में इस भाषायी श्रेष्ठता क्रम के लिए सहज स्वीकार्यता बन गई।

इस श्रेष्ठता क्रम को हिंदी फिल्मों के हवाले से समझा जा सकता है। फिल्मों में नायक या नायिका होने के लिए अंग्रेजी बोलना एक जरूरी रूढ़ि है। आमतौर पर हिंदी बोलने वाला पात्र जैसे ही अंग्रेजी बोलता है, उसका नायकत्व स्थापित हो जाता है। औसत पात्र हिंदी बोलते हैं। माली या चौकीदार की भूमिका निभा रहे पात्र भोजपुरी बोलते मिल जाते हैं। 

अंग्रेजी की हनक अनेक सामाजिक-राजनीतिक कारकों के नाते अब भी हमारे समाज में देखी और महसूस की जाती है। उसके बरक्स हिंदी और अन्य भाषाओं का स्थान श्रेष्ठता क्रम में निचले पायदान पर है। भाषाओं के इस स्तरीकरण का खामियाजा सबसे ज्यादा मातृभाषाओं को भुगतना पड़ता है।

सामाजिक श्रेष्ठता और वर्चस्व की दौड़ में लोग अपनी मातृभाषाओं से अपने आप को अलग करने की कोशिश में लग जाते हैं। जिन भाषाओं के साथ हीन, पिछड़ा और गंवार होने का तमगा लगा है, उनके साथ यह प्रक्रिया और सचेत होकर अपनाई जाती है। कई बार पढ़-लिखकर लोग भाषायी पहचान छिपाने लगते हैं और अपनी संतानों को मातृभाषा से दूर कर देते हैं।

यह मान लिया गया है कि कुछ खास भाषाओं में दक्ष होकर ही आधुनिक ज्ञान-विज्ञान में महारत हासिल की जा सकती है और सामाजिक जीवन में सफलता मिल सकती है। फिर मातृभाषा के नाम पर अपना और अपने बच्चों का जीवन क्यों अंधकार में डाला जाए? यह बात सिरे से भुला दी जाती है कि भाषा का गहरा संबंध हमारी समझ के विकास से है।

शिक्षाविदों की राय में बच्चे की समझ का जैसा स्वाभाविक विकास मातृभाषा के माध्यम से होता है, वैसा किसी दूसरी भाषा में नहीं। जिस भूगोल में हम जन्म लेते हैं, उसी में विकसित भाषा हमारे मन-संवेदन के लिए अनुकूल होती है। हम जीवन की बेहतरी के लिए ज्ञान-विज्ञान की जिस भी शाखा का अध्ययन करना चाहें, उसके लिए बुनियादी समझदारी का विकसित होना जरूरी है, जिसका रास्ता मातृभाषा से होकर निकलता है। 

पिछले दिनों अखबारों में यह खबर देखकर खुशी हुई कि मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने शिक्षण संस्थाओं को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस को जोर-शोर से मनाने का निर्देश जारी किया है। यह खुशी इस उम्मीद को भी           जन्म दे रही है कि मातृभाषाओं के लिए गंभीर विचार-विमर्श ही नहीं, उनके उत्थान के ठोस उपाय भी किए जाएंगे।

लेकिन मंत्रालय अगर सचमुच मातृभाषाओं को लेकर गंभीर है, तो उसे चाहिए कि देश में बोली जाने वाली सभी भाषाओं को प्राथमिक शिक्षा का माध्यम बनाने की दिशा में ठोस कदम उठाए। कम से कम कुछ मॉडल स्कूल तो तुरंत ही शुरू किए जा सकते हैं। ऐसा करने से मातृभाषाओं और देश, दोनों का ही भला होगा, साथ ही इस प्रसंग में मानव संसाधन विकास मंत्रालय की संजीदगी का एहसास भी होगा। - 

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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