फोटो गैलरी

Hindi News ओपिनियनचुनावी मुद्दों में नहीं दिखा किसानी का सरोकार

चुनावी मुद्दों में नहीं दिखा किसानी का सरोकार

यूपी का चुनाव अपने अंतिम पड़ाव पर है। इसके भौगोलिक व राजनीतिक महत्व के कारण अन्य चार राज्यों के चुनाव गौण हो गए। आशा थी कि यहां राज्य के किसानों, गरीबों के साथ अन्य क्षेत्रीय समस्याएं मुख्य मुद्दा बन...

चुनावी मुद्दों में नहीं दिखा किसानी का सरोकार
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 06 Mar 2017 12:41 AM
ऐप पर पढ़ें

यूपी का चुनाव अपने अंतिम पड़ाव पर है। इसके भौगोलिक व राजनीतिक महत्व के कारण अन्य चार राज्यों के चुनाव गौण हो गए। आशा थी कि यहां राज्य के किसानों, गरीबों के साथ अन्य क्षेत्रीय समस्याएं मुख्य मुद्दा बन समाधान की राह सुनिश्चित करेंगी, परंतु निराशा ही हाथ लगी। घोषणापत्रों में जैसे भी वादे किए गए हों, लेकिन चुनाव का आखिरी पड़ाव आते-आते अपील के तरीके व विषय-वस्तु, सब बदले दिखाई दिए। 403 विधानसभा सीटों के राजनीतिक महत्व को समझते हुए छोटे-बड़े सभी दल ‘मत चूको चौहान’ की नीति पर काम कर रहे हैं। केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा ने विकास रथ के साथ जिस यूपी यात्रा की शुरुआत की थी, वह विभाजनकारी राजनीति के दलदल में फंसी दिखी। 

पार्टी ने घोषणापत्र में राम मंदिर से लेकर फ्री लैपटॉप व इंटरनेट, महिला सुरक्षा तथा किसानों को ब्याज रहित लोन देने की बात कही है। राज्य की सत्ताधारी समाजवादी पार्टी ने जहां किसान कोष की स्थापना, प्राइमरी स्कूल के बच्चों को प्रतिमाह एक लीटर घी, मासिक पेंशन, मुफ्त शिक्षा आदि वादों से जनता को लुभाने का प्रयास किया, तो बसपा ने गरीब-वंचितों का एक लाख तक की कर्ज माफी, प्राथमिक विद्यालयों में अंडा-दूध, किसानों को फसल का उचित भुगतान आदि घोषणाओं का एलान किया है। इन घोषणाओं का जिक्र प्रचार में तो जोर-शोर से दिखा, लेकिन वादों की लंबी फेहरिस्त के बावजूद राज्य और समाज हित के बड़े मुद्दे चुनाव मंचों से नदारद रहे।

किसानों के मुद्दे राजनीतिक दलों के चुनाव पूर्व घोषणापत्र में भले ही दिखाई दिए हों, पर किसी दल के मंच पर इनकी चिंता नहीं दिखाई दी। प्रदेश की सबसे बड़ी नकदी फसल गन्ना है। सूबे में 40 जिलों के लगभग 55 लाख किसान गन्ना उपजाते हैं। गन्ना कटाई का मौसम किसानों के लिए एक गंभीर संकट पैदा कर देता है। चालू वर्ष का समर्थन मूल्य घोषित न होना, मिलों द्वारा पेराई के लिए खेतों को चिह्नित न करना, औने-पौने दाम लगाना जैसी समस्याओं को कोई संबोधित नहीं कर रहा।

कृषि प्रधान उत्तर प्रदेश में किसानों के सवाल मुख्यधारा में होने चाहिए थे। देश का बड़ा राज्य होने के नाते सांसदों का सबसे बड़ा समूह यहीं से आता है, जो दिल्ली फतह में निर्णायक होता है। यहां औद्योगीकरण की बयार सिर्फ नोएडा तक सीमित है। बेरोजगारी बढ़ रही है। ऐसे में, लाभकारी मूल्य, उच्च शिक्षा के सीमित साधन, सार्वजनिक स्वास्थ्य, बुंदेलखंड का सूखा, गोरखपुर संभाग का जानलेवा बुखार, पूर्वांचल से पलायन आदि समस्याएं मुद्दा बननी चाहिए थीं। पूर्वांचल के बुनकरों की बदहाली, हैंडलूम उद्योग,पर्यटन विस्तार व विकास, बाढ़ और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में हाईकोर्ट बेंच का मुद्दा भी किसी दल के एजेंडे में नहीं दिखा। आंशिक शराबबंदी तक का कहीं जिक्र नहीं आया। 

यह वही रणक्षेत्र है, जिसने भारत को कई प्रधानमंत्री दिए। दोनों प्रमुख दलों के शीर्ष नेता यहीं से आते रहे हैं। पूर्वांचल 11 मुख्यमंत्री और चार प्रधानमंत्री दे चुका है। सभी का चुनाव अभियान यहीं से शुरू होता है, फिर भी यहां के 14 जिले सबसे पिछड़ी श्रेणी में हैं। दो बार मुख्यमंत्री और बाद में देश के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह ने अपने मुख्यमंत्रित्व काल में ‘भूमि सुधार कानून’ लागू कर प्रदेश की कृषि प्रधानता को प्राथमिकता दी थी। वर्तमान प्रधानमंत्री भी यहीं से हैं, ऐसे में जनता की अपेक्षा स्वाभाविक है। भदोही के कारपेट उद्योग को भी नई दिशा मिलने की उम्मीद थी, लेकिन कुछ नहीं हुआ। लोकसभा चुनावों के दौरान ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ में 50 फीसदी का लाभकारी मूल्य देने का वादा भी पूरा नहीं हुआ। 

जीडीपी में कृषि की गिरती भागीदारी, लाखों आत्महत्याएं सरकारों को प्रभावित नहीं करतीं। विकास के नाम पर चंद उद्योग व निर्माण के कार्य जरूर हुए हैं, लेकिन जनसंख्या के अनुपात में वे भी नाकाफी हैं। विज्ञान व तकनीकी के युग में भी सार्वजनिक चिकित्सा का खस्ता हाल है। फ्री लैपटॉप, वाई-फाई व स्कूटर देने की घोषणा आदि कॉस्मेटिक विकास है। यह सब ठीक होता, अगर इनके साथ-साथ उन स्थायी समस्याओं के समाधान की घोषणा भी होती, जिन पर सरकारों की अदला-बदली का अब तक कोई असर नहीं पड़ा है। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें
अगला लेख पढ़ें