भय के आगे
उन्हें कोई भी नया काम भयभीत कर देता है। अज्ञात हमेशा उनके ज्ञात पर भारी पड़ता है। उनके लिए हंसने-रोने, दौड़ने-गाने जैसी ही सामान्य बात हो गई है- भयभीत होना। वैसे तो कोई भी भय से परे नहीं है। ओशो कहते...
उन्हें कोई भी नया काम भयभीत कर देता है। अज्ञात हमेशा उनके ज्ञात पर भारी पड़ता है। उनके लिए हंसने-रोने, दौड़ने-गाने जैसी ही सामान्य बात हो गई है- भयभीत होना। वैसे तो कोई भी भय से परे नहीं है। ओशो कहते हैं कि शुरू में साहसी और डरपोक में फर्क नहीं होता। फर्क यह है कि डरपोक अपने भय को सुनता है, उनका अनुसरण करता है, जबकि साहसी भय को एक तरफ रख देता है और आगे बढ़ता है। वह आगे कहते हैं कि साहसी का मतलब यह नहीं होता कि वह भयमुक्त है, बल्कि यह है कि वह भय के बावजूद अज्ञात की ओर बढ़ता है।
हम कोई भी नया काम शुरू करने से भयभीत होते हैं। भय असफलता और लोगों से मिलने वाली प्रतिक्रिया का होता है। इस बात का होता है कि आगे क्या होगा? भय में कोई समस्या नहीं है। समस्या है साहस के न होने में। अज्ञेय ने अपनी रचना- शेखर एक जीवनी में लिखा है- ‘डर डरने से होता है।’ इस पर जीत हासिल करनी है, तो साहस चाहिए। बुराई अक्सर तभी जड़ें जमा पाती हैं, जब हम साहसहीन होते हैं। पर साहसी की पहचान क्या है?
साहस सबसे पहले यथार्थ की समझ की मांग करता है, उसके बाद सोच-विचार करके कदम उठाने और अपने उद्देश्य पर जमे रहने की। उद्देश्य को लेकर जमना महत्वपूर्ण है, क्योंकि अक्सर हम साहस को चंद मिनटों-घंटों की भावना से जोड़कर देखते हैं। याद रखें, साहसपूर्ण जीवन जीना एक सीढ़ी भर नहीं, बल्कि एक अंतहीन सिलसिला है। साहसी होना और सकारात्मक होना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुनिया में जितने भी बड़े बदलाव हुए साहसी लोगों ने ही किए, और ये बदलाव भय को एक तरफ रखकर ही हुए।