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खोया गौरव वापस पाने की चुनौती

24 अक्तूबर को हुई शुरुआत खासी धमाकेदार थी।  इसके पहले पड़ाव का पटाक्षेप 6 फरवरी को हुआ। यह दर्द से कराहती आवाज जैसा था।  टाटा संस के चेयरमैन पद से साइरस मिस्त्री को बेदखल करने की...

खोया गौरव वापस पाने की चुनौती
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 12 Feb 2017 09:37 PM
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24 अक्तूबर को हुई शुरुआत खासी धमाकेदार थी। 

इसके पहले पड़ाव का पटाक्षेप 6 फरवरी को हुआ। यह दर्द से कराहती आवाज जैसा था। 

टाटा संस के चेयरमैन पद से साइरस मिस्त्री को बेदखल करने की अप्रत्याशित व आश्चर्यजनक खबर आने (24 अक्तूबर, 2016) और फिर बोर्ड यानी निदेशक मंडल से बाकायदा उनकी विदाई (बीती छह फरवरी) के दरम्यान मिस्त्री द्वारा टाटा समूह पर उठाए गए तमाम सवाल किसी जमाने में भारत के सबसे प्रतिष्ठित कारोबारी घराने के बारे में लोगों की धारण बदलने के लिए पर्याप्त थे। यह अलग बात है कि मिस्त्री 2006 से ही इस कंपनी का अभिन्न हिस्सा थे और उन्होंने अपनी जुबान तब खोली, जब हालात उनके अनुकूल नहीं रह गए। 
हालांकि अर्जित प्रतिष्ठा और प्रभामंडल ने कंपनी को बखूबी संभाल लिया। 

कुछ लोग मानते हैं कि मीडिया में इस समूह की अच्छी छवि मददगार बनी, लेकिन एक राय यह भी है कि घोटालों से बचे रहना कंपनी के पक्ष में गया। मसलन, जब सरकारी ऑडिटर टू-जी स्पेक्ट्रम घोटाले से लाभ कमाने व विदेशी कंपनियों के साथ साझेदारी करने वाली कंपनियों की जांच कर रहे थे, तो उन्होंने सिर्फ एक मामले को नजरअंदाज किया था। वह था, टाटा टेलीसर्विसेज लिमिटेड का अपनी हिस्सेदारी एनटीटी डोकोमो को  बेचना। ऑडिटर की नजर में इस खरीद-फरोख्त पर ध्यान देना इसलिए जरूरी नहीं था, क्योंकि रतन टाटा एक सम्मानित हस्ती हैं।

लेकिन लगता है कि कंपनी की वह चमक अब कम हो गई है। कुछ लोगों का मानना है कि वहां इस तरह का विवाद होना ही नहीं चाहिए था। मगर इसके पीछे अपने-अपने तर्क दिए जा सकते हैं। निश्चित तौर पर टाटा समूह के, जिसमें टाटा ट्रस्ट भी शामिल है और जो समूह के कुल मुनाफे में हिस्सेदारी रखता है, काम की तारीफ करने की पर्याप्त वजहें हैं। फिर चाहे बात टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल स्टडीज जैसी महत्वपूर्ण शैक्षणिक व वैज्ञानिक संस्थाओं को बनाने की हो, या फिर टेटली, कोरस ग्रुप पीएलसी, नेशनल स्टील, टाइको ग्लोबल नेटवर्क और जगुआर लैंड रोवर जैसी कंपनियों का अधिग्रहण करके भारतीय कारोबार को वैश्विक बनाने में मदद करने की- इस पूरी यात्रा में उपलब्धियों के कई ऐसे पड़ाव हैं, जिन पर गर्व किया जाना चाहिए।

लेकिन आरोपों से घिरे साइरस मिस्त्री के मामले में ऐसा नहीं है। 

पिछले तीन महीने के घटनाक्रम ने न सिर्फ उन पर की गई कार्रवाई पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि उनकी नियुक्ति को भी कठघरे में खड़ा किया है। मिस्त्री की योग्यता पर बेशक सवाल नहीं उठाया जा सकता, मगर यह भी समझ से परे है कि टाटा संस की चयन समिति को आखिर यह कैसे लगा कि मिस्त्री एक उम्दा चेयरमैन साबित होंगे। संभव है कि समिति कंपनी में मिस्त्री परिवार की 18.4 फीसदी हिस्सेदारी से प्रभावित हो गई हो, या फिर मृदुभाषी होने के कारण उसने इस नौजवान में (जब मिस्त्री का नाम इस पद के लिए आया था, तो वह 45 वर्ष के थे) तत्कालीन चेयरमैन रतन टाटा के नक्शेकदम पर चलने की काबिलियत देख ली हो। वहीं इसके ठीक उलट, अब तक यह भी स्पष्ट नहीं हो सका है कि टाटा संस के निदेशक मंडल ने आखिर मिस्त्री के खिलाफ कार्रवाई की क्यों? या उन्हें सम्मानजनक तरीके से पद छोड़ने का मौका क्यों नहीं दिया?

बहरहाल, इन तीन महीनों में टाटा संस ने मिस्त्री को जिस तरह जमीन हड़पने वाला और खराब प्रबंधक बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वह टाटा समूह की संस्कृति से मेल नहीं खाता। मिस्त्री भी इस दरम्यान टाटा समूह की जड़ें खोदते हुए लगातार उसके कुप्रबंधन को उजागर करते रहे। साथ ही यह भी बताने में पीछे नहीं रहे कि उन्हें इसलिए बलि का बकरा बनाया गया, क्योंकि वह कंपनी में मौजूद गड़बड़ियों को दुरुस्त करने की कोशिश कर रहे थे। आरोप-प्रत्यारोप के ये तीर परोक्ष रूप से भी चले और दोनों पक्षों ने अपने-अपने तरीके से मीडिया को खबरें जारी कीं। टाटा समूह चाहता था कि पूरी दुनिया मिस्त्री की अनुभवहीनता देखे और जाने कि वह किस कदर टाटा समूह को मिस्त्री समूह बनाने पर आमादा थे। वहीं, मिस्त्री गुट इस कोशिश में लगा रहा कि वह रतन टाटा को दूसरों के कामकाज में हस्तक्षेप करने वाले एक ऐसे शख्स के रूप में पेश करे, जो घोषणा करने के बाद भी कंपनी की जिम्मेदारियां नहीं छोड़ना चाहता। जाहिर है, दोनों तरफ से उकेरी गई ये तस्वीरें सच नहीं हैं, मगर इसका जो नुकसान होना था, वह तो हो चुका है।

छह फरवरी को हुई टाटा संस के शेयरघारकों की असाधारण आम बैठक में साइरस मिस्त्री को बाहर का रास्ता दिखा दिया गया। मिंट  ने यह खबर पहले ही प्रकाशित की थी कि मिस्त्री भले ही टाटा संस में अपनी जंग हारते दिख रहे हैं, मगर दोनों पक्षों की कानूनी लड़ाई काफी लंबी चलने वाली है। अभी राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (एनसीएलटी) दोनों पक्षों की दलीलों का अध्ययन कर रहा है। जाहिर है, इसमें लंबा वक्त लगेगा।

जंग भले ही कितनी लंबी चले, टाटा संस के सामने अपनी प्रतिष्ठा पर लगे दाग को साफ करना बड़ी चुनौती है। निश्चय ही यह जिम्मेदारी अब नए चेयरमैन एन चंद्रशेखरन के कंधों पर है, मगर मेरा मानना है कि उनसे भी ज्यादा यह अब रतन टाटा को सोचना होगा। वह चाहें, तो कंपनी के शासकीय ढांचे में रद्दोबदल करके ऐसा कर सकते हैं। इसमें टाटा ट्रस्ट (टाटा संस में इसकी हिस्सेदारी 66.67 फीसदी है), मालिकान कंपनी और दूसरी तमाम ऑपरेटिंग कंपनियां की स्पष्ट भूमिका हो सकती है। यह पिछले कुछ महीनों में बनी टाटा ट्रस्ट की नकारात्मक छवि को बदलने में भी मददगार साबित होगा। हालांकि इन सबसे भी ज्यादा जरूरी यह है कि रतन टाटा पूरी दुनिया को यह दिखा पाएं कि वह कंपनी की जिम्मेदारियां छोड़ने को उत्सुक हैं और चंद्रशेखरन बिना उनके प्रभाव में आए निष्पक्ष होकर काम करेंगे। इससे कंपनी अपना पुराना गौरव भले न हासिल कर पाए, लेकिन थोड़ी-बहुत चमक तो जरूर हासिल कर सकती है।

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