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कवि और कंडक्टर की कथा

एक था कवि और एक था कंडक्टर। कवि अकेला था, कंडक्टर दुकेला था। जिस तरह, फिल्म दीवार  में शशि कपूर के पास एक ‘मां’ थी, वैसे ही कंडक्टर के पास डीटीसी की ‘बस’ थी। कवि सड़क के...

कवि और कंडक्टर की कथा
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 05 Mar 2017 12:12 AM
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एक था कवि और एक था कंडक्टर। कवि अकेला था, कंडक्टर दुकेला था। जिस तरह, फिल्म दीवार  में शशि कपूर के पास एक ‘मां’ थी, वैसे ही कंडक्टर के पास डीटीसी की ‘बस’ थी। कवि सड़क के किनारे-किनारे चला जा रहा था। मुख्यधारा यानी सड़क पर गाड़ियां भाग रही थीं। कवि ने देखा कि एक बस रुकी। कंडक्टर उतरा और उसने अपनी ‘परम अभिव्यक्ति’ की तरह ऐन सड़क पर ‘लघुशंका’ संपन्न की। 

इसे देख कवि हृदय मर्माहत हुआ। उसने कंडक्टर को शाप दे डाला, हे ‘परम अभिव्यक्ति’ को इस तरह निर्लज्जता से सार्वजनिक करने वाले, मैं शाप देता हूं कि तुझे स्वच्छता अभियान का खलनायक माना जाए। जा तुझे कभी शांति न मिले। स्वच्छता वाले तुझ पर केस करें और तुझे सजा मिले। इसे सुनते ही कंडक्टर में सात्विक क्रोध का संचार हुआ। उसने कवि से कहा, तुझे मेरी परम अभिव्यक्ति पर बक-बक करने का क्या हक? तू कवि है, तो मैं भी कंडक्टर हूं। तेरी अभिव्यक्ति नकली है, मेरी असली।

यह वो समय था, जब ‘दिवस का अवसान’ हो चुका था। दिल्ली-गाजियाबाद बॉर्डर के विशाल गगन में कालिमा गाढ़ी हो चुकी थी। भागती कारें पूंजीवादी-साम्राज्यवादी तेल का धुआं पिला-पिलाकर लोगों का ‘ब्लड प्रेशर’ बढ़ाए जा रही थीं। इस कुबेला में कंडक्टर अपने ड्राइवर के साथ किसी सर्वहारा की तरह 12 घंटे की ड्यूटी बजाकर डिपो की ओर जा रहा था। उधर कवि भी अपनी कविताओं से बोर होकर अपने गृह की ओर जा रहा था। बीच में कंडक्टर को ‘परम अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे’ वाली मुद्रा में देख कवि को क्रोध आया। उधर कंडक्टर को अपनी परम अभिव्यक्ति पर अंकुश लगता देख मुक्तिबोध की कविता अंधेरे में  की वे लाइनें याद आने लगीं ...तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब...। कंडक्टर एक्शन में आ गया और कवि के ‘मठ और गढ़’ तोड़ने लग गया। ड्राइवर भी अपनी सीट से उछला और वह भी कवि के बचे-खुचे मठ व गढ़ तोड़ने में लग गया। 

कवि क्रांतिकारी था। जितनी लाइनें जीवन में लिखी थीं, उनसे हजार गुना नाम कमाया था। कवि ने भी ‘परम अभिव्यक्ति की खोज’ वाली ‘थीसिस’ पढ़ी थी और वह समझता था कि परम अभिव्यक्ति के लिए खतरे तो उठाने ही होते हैं। पर उसे क्या मालूम था कि कंडक्टर भी अपनी ‘परम अभिव्यक्ति’ के ऐसे ‘खतरे’ उठा रहा है।


एक ही समय में एक ही बिंदु पर दो तरह की अभिव्यक्तियां एक-दूजे से टकराईं। इस चक्कर में कवि के कई मठ-गढ़ टूटे और हाल वही हुआ, जो उस गाने में हुआ था कि इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा।
गिरे हुए कवि ने रघुवीर सहाय की कविता के ‘रामदास’ की तरह इधर-उधर देखा, तो पाया कि उसके मठ व गढ़ों के टूटने की किसी को परवाह नहीं। कवि के दो-चार मठ और गढ़ तोड़कर कंडक्टर बस में चढ़ चुका था और जोर से धमका रहा था कि अच्छा है, जो तू पटरी-पटरी चल रहा है, अगर मुख्यधारा यानी सड़क पर आया, तो फिर मेरी बस से तो बचकर ही रहना।

आगे क्या हुआ? कवि उठ पाया कि नहीं? कंडक्टर को परम अभिव्यक्ति मिली कि न मिली? कवि को परम अभिव्यक्ति मिली कि न मिली? इस रहस्य पर या तो कंडक्टर प्रकाश डाल सकता है या वह कवि, जिसके मठ-गढ़ टूटे।
एक कंडक्टर और एक कवि की परम अभिव्यक्ति के टक्कर की यह मार्मिक कथा बताती है कि परम अभिव्यक्ति को रोकने-टोकने की जुर्रत नहीं की जानी चाहिए। अन्यथा अभिव्यक्तियों का एक्सीडेंट हो जाता है और अंतत: कमजोर पार्टी के मठ व गढ़ ही टूटते हैं।

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