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लला फिर आइयो खेलन होरी

आप सोचते होंगे कि मैं कवियों के पीछे क्यों पड़ा रहता हूं और उनको क्यों खींचता हूं? लेकिन क्यों न पड़ूं पीछे? क्यों न करूं खिंचाई? अपनी साहित्यिक बिरादरी के हैं। मैं न तंग करूंगा, तो कौन करेगा? यह कॉलम...

लला फिर आइयो खेलन होरी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 12 Mar 2017 12:02 AM
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आप सोचते होंगे कि मैं कवियों के पीछे क्यों पड़ा रहता हूं और उनको क्यों खींचता हूं? लेकिन क्यों न पड़ूं पीछे? क्यों न करूं खिंचाई? अपनी साहित्यिक बिरादरी के हैं। मैं न तंग करूंगा, तो कौन करेगा? यह कॉलम है ही ऐसी जगह कि औरों पर नहीं, तो अपने, अपनी बिरादरी पर भी हंसा जा सकता है। अपने पर हंसना कोई ‘ब्लास्फेमी’ तो नहीं। यही तो अपना डेमोक्रेटिक राइट है। यही तो बचा है।

दिल्ली की एक गोष्ठी में मेरे पास एक इनामी कवि बैठा था। मैंने कहा कि यार कविता सुनाना, तो होली की सुनाना, अपनी दर्द भरी दास्तान लेकर न बैठ जाना। तेरा दर्द तेरी तोंद से मेल नहीं खाता। उस कवि-पुंगव ने मुझे जहर भरी नजरों से देखा, मानो मैंने उसके हजूर में कोई ‘ब्लास्फेमी’ कर दी हो। फिर कुछ संभलकर बोला: ‘यार कभी तो सीरियस हुआ करो’। मैंने कहा कि सीरियस होकर आपने ही क्या उखाड़ लिया? होली का त्योहार है। अच्छा कवि अवसर के अनुसार कविता कहता है। आप तो जातीय परंपरा के ‘वाहन’ हो। होली भी जातीय उत्सव है। कवि बोला- मैं कोई मंचीय भांड़ नहीं हूं। डिमांड पर नहीं लिखता।

मैंने कहा- जिस तिस से इनाम की डिमांड करते हो और कहते हो कि डिमांड पर नहीं सुनाता। हिंदी कवि बिना डिमांड के सप्लायर हैं, इसीलिए न कविता छपती है, न बिकती है। वह सिर्फ इनाम झटकती रहती है। कवि बोला- मैं ‘संकट’ के बारे में लिखता हूं। मैं बोला- तू तो खुद कविता का संकट है। वसंती हवा है। होली है। शहरी बच्चे हाथ में प्लास्टिक की पिचकारियां लिए एक-दूसरे पर रंग फेंक रहे हैं और तू कहता है कि संकट का कवि है। ऐसे बोल रहा है, जैसे तू वाशिंगटन डीसी में है। 


हिंदी कवि को जातीय परंपरा की याद दिलाओ, तो वे सीधे ‘जाति’ टटोलने लगते हैं,  फिर भी खुद को डेमोक्रेटिक कहते रहते हैं। न हुए आज आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी। होते, तो अपनी पत्रिका में छापने से पहले कवियों को लिखते कि कविता का होली विशेषांक निकाल रहे हैं। सभी कवि पहले एक होली गीत या कविता भेजें। उसके बाद दूसरी कविताओं का नंबर आएगा- जो न भेजेंगे, उनकी कोई कविता न छपेगी और ऐसे कवियों को इनामों से वंचित कर दिया जाएगा।

गारंटी ले लीजिए, सारे कवि झक मारकर जातीय परंपरा का भोंपू बजाते होली पर कविता लिखकर लाते और आज की शुष्क और नीरस कविता से भी कुछ रस बरसने लगता। दुर्भाग्य कि हिंदी कविता के गेट पर न जाने किसने लिख दिया कि होली न लिखना, नहीं तो गब्बर आ जाएगा। हिंदी वाला हिंदी के गब्बरों से डरा ही रहता है। एक वक्त रहा, जब हिंदी में होली जमकर लिखी जाती थीं और ऐसी लिखी जाती थीं कि याद रह जाती थीं। नजीर अकबराबादी ने तो एक दर्जन से ज्यादा होलियां खड़ी बोली में लिखीं। यह है अपनी परंपरा।

अगर आपको महाकवि पद्माकर का यह होली छंद याद नहीं है, तो कुछ याद नहीं- फाग की भीर अभीरन में गहि, गोविंद लै गई भीतर गोरी।/ भाई करी मन की पदमाकर ऊपर नाई अबीर की झोरी।/ छीन पितंबर कम्मर तें सु विदा दई मींड़ कपोलन रोरी। / नैन नचाय कहि मुसकाय लला फिर आइयो खेलन होरी। होली खेलने आए छैला को नंगा करके विदा करने वाली इस गोरी की ‘सेक्सुअलिटी’ की इस जबर्दस्त अभिव्यक्ति के क्या कहने? है इस टक्कर की कोई कविता अंग्रेजी में?
इसीलिए विनती करता हूं कि होली को गोली न मारो, एक ठो होली लिख मारो।

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