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इन्फोसिस विवाद के अनसुलझे सवाल

‘उन्होंने स्वामित्व को लोकतांत्रिक बनाया है, जबकि हमने प्रबंधन को’। अजीम प्रेमजी ने अपनी कंपनी विप्रो और प्रतिद्वंद्वी कंपनी इन्फोसिस के संदर्भ में कभी यह बात कही थी। वह सन 2000 के दशक की...


इन्फोसिस विवाद के अनसुलझे सवाल
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 19 Feb 2017 11:19 PM
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‘उन्होंने स्वामित्व को लोकतांत्रिक बनाया है, जबकि हमने प्रबंधन को’। अजीम प्रेमजी ने अपनी कंपनी विप्रो और प्रतिद्वंद्वी कंपनी इन्फोसिस के संदर्भ में कभी यह बात कही थी। वह सन 2000 के दशक की शुरुआत थी। तब प्रेमजी और उनके परिवार की विप्रो में बड़ी हिस्सेदारी थी। हालांकि उस वक्त कंपनी की कमान एक प्रोफेशनल सीईओ के हाथों में ही थी। दूसरी तरफ, इन्फोसिस के संस्थापक तब तक कंपनी में अपनी हिस्सेदारी कम करने लगे थे, मगर उनमें पहले ही इस बात पर रजामंदी हो चुकी थी कि वे बारी-बारी से कंपनी के सीईओ बनेंगे।

विप्रो में रिशाद प्रेमजी की पारी शुरू होने पर लगा था कि कंपनी में चीजें बदल रही हैं, मगर कुछ वर्ष बीतते-बीतते साफ हो गया कि ‘प्रेमजी जूनियर’ विप्रो में बड़ा ओहदा रखने की ख्वाहिश भले रखते हों, मगर वह सीईओ कतई नहीं बनना चाहते। इन वर्षों में इन्फोसिस में भी काफी कुछ हुआ, जिनसे संकेत मिला कि चीजें वहां भी बदल रही हैं। कंपनी के पहले गैर-संस्थापक सीईओ के रूप में विशाल सिक्का की नियुक्ति इस बात का साफ संकेत थी कि अब इन्फोसिस में उस ईश्वरीय-अधिकार के सिद्धांत की विदाई हो चुकी है, जिसके तहत कॉरपोरेट समता (सभी सह-संस्थापकों को सीईओ बनने का बराबर का ईश्वरीय अधिकार) की बात कही जाती थी।

हालांकि पिछले कुछ दिनों का घटनाक्रम बता रहा है कि इन्फोसिस के लिए समय की सुई फिर से उसी पिछले दौर में लौट गई है, जिसे भारतीय कंपनियों के लिए अच्छा और बेहतरीन माना जाता है। पिछले अप्रैल से ही दिखने लगा था कि इन्फोसिस के कुछ सह-संस्थापकों और मौजूदा मैनेजमेंट व बोर्ड के बीच कहीं-कुछ गड़बड़ है। मिंट  ने इस पर एक लंबी सीरीज भी चलाई थी। हालांकि कैमरे के सामने दोनों पक्ष सब कुछ दुरुस्त होने के दावे करते रहे। जाहिर है, इसमें एक धड़ा विशाल सिक्का और चेयरमैन आर शेषसायी का था, तो दूसरा धड़ा पूर्व चेयरमैन और सह-संस्थापक एन आर नारायणमूर्ति का।

बहरहाल, चिनगारी अभी शांत नहीं हुई थी। फरवरी के मध्य में धुआं फिर उठता दिखाई दिया, जब नारायणमूर्ति ने अपनी नाराजगी खुलेआम जाहिर कर दी। मूर्ति की यह नाराजगी इन्फोसिस के ही पुराने कर्मचारी और उनके संबंधी डीएन प्रह्लाद की बोर्ड में नियुक्ति के कुछ महीनों बाद सामने आई। प्रह्लाद की नियुक्ति दरअसल बोर्ड द्वारा संस्थापकों से शांति-सुलह की एक कोशिश थी। जाहिर है, इतना ही पर्याप्त नहीं था। हालांकि बाद में प्रह्लाद को नामांकन और पारिश्रमिक समिति के लिए भी नामांकित कर दिया गया।

मेरा मानना है कि दोनों पक्षों के बीच विवाद के मुख्यत: छह मसले थे। पहला मसला सिक्का द्वारा इन्फोसिस के विभिन्न दफ्तरों की मीटिंग के लिए चार्टर्ड विमानों के इस्तेमाल का था। अमेरिका में रहने वाले सिक्का जब भी भारत आते हैं, बैठकों में उनके आने-जाने का साधन चार्टर्र्ड विमान ही रहा है। यह कंपनी के उसूलों के खिलाफ था, जो देश के अंदर यात्रा के लिए कंपनी के संस्थापकों को भी सिर्फ इकोनॉमी क्लास में यात्रा की अनुमति देता है। लंबी अंतरराष्ट्रीय उड़ानों के लिए बिजनेस क्लास की व्यवस्था जरूर है, मगर वह भी सेहत की जरूरतों को देखते हुए। नारायण मूर्ति ने भी चार्टर्ड विमान का इस्तेमाल शायद ही कभी किया होगा। क्योंकि 1990 के दशक के अंत में एक पत्रिका से बात करते हुए मूर्ति ने कहा था कि वह महज 7,000 रुपये महीने में अपना पूरा घर चलाते हैं। सच तो यह है कि 2000 के दशक में कुछ समय के लिए लगने भी लगा था कि मूर्ति और प्रेमजी के बीच मानो कम खर्चीला दिखने की प्रतियोगिता-सी चल रही है। 

दूसरा मसला वही था, जो नए सीईओ के आने के बाद हर कंपनी में आमतौर पर होता है। मूर्ति के वफादार सिक्का के कामकाज की शैली से जुड़ी कहानियां उन तक पहुंचाते रहते थे। बेशक दोनों में कोई भी मायने नहीं रखता है, मगर इसमें पद छोड़कर जाने वाले संस्थापकों और सीईओ के लिए एक सबक तो है ही।

तीसरा मसला बतौर निदेशक पुनीता कुमार सिन्हा की नियुक्ति थी, जो मंत्री जयंत सिन्हा की पत्नी हैं। मूर्ति और कुछ दूसरे संस्थापकों की नजर में यह नियुक्ति इन्फोसिस के राजनीति से पूरी तरह दूर रहने के सिद्धांत के बिल्कुल खिलाफ थी। इस तर्क में दम हो सकता है, लेकिन यह भी सच है कि पुनीता सिन्हा, पति की तरह ही अपने कामकाज के बूते यहां तक पहुंची हैं।

चौथे, पांचवें और छठे मसले भी महत्वपूर्ण थे, मगर मेरा मानना है कि वे अब भी बने हुए हैं। दरअसल, चौथा मसला सीईओ की क्षतिपूर्ति से जुड़ा है। फरवरी, 2016 में इन्फोसिस बोर्ड ने सिक्का के वेतन में 55 फीसदी की वृद्धि करके 1.1 करोड़ डॉलर करने का फैसला किया। यह वेतन संस्थापकों की नजर में स्वाभाविक तौर पर काफी ज्यादा है। पांचवां, इन्फोसिस द्वारा 20 करोड़ डॉलर में पनाया लिमिटेड के अधिग्रहण का है, जिसमें बोर्ड को सर्वोपरि न माने जाने के आरोप हैं। और छठा, सीएफओ राजीव बंसल के भारी-भरकम सेवरेंस पैकेज से जुड़ा है।
पिछले हफ्ते, जब यह मामला शांत हो चुका था, तो सिक्का का कहना था कि पनाया अधिग्रहण में कुछ भी गलत नहीं हुआ है, वहीं शेषसायी ने कहा कि सीईओ की क्षतिपूर्ति कंपनी की नामांकन और पारिश्रमिक समिति ने तय की थी, जिस पर शेयरधारकों की भी सहमति थी। बंसल के सेवरेंस-पे का मसला भी शेषसायी ने बेहतर तरीके से सुलझाने की बात कही। हालांकि मेरी नजर में ये तमाम स्पष्टीकरण संतुष्ट करने वाले नहीं हैं। 
मसले के प्रभावी समाधान के लिए जरूरी होगा कि सिक्का के वैरीएबल-पे में अधिक से अधिक पारदर्शिता रखी जाए। वैरीएबल-पे वेतन का वह हिस्सा होता है, जो कंपनी के प्रदर्शन से जुड़ा होता है। जरूरत बंसल के सेवरेंस पैकेज को बोर्ड की मंजूरी मिलने की प्रक्रिया सार्वजनिक करने की भी है, जिससे बहुत सी बातें साफ होंगी। पनाया अधिग्रहण मामले में भी किसी ऑडिट कंपनी से जांच की जरूरत होगी। 

इस सबके अलावा पिछले कुछ हफ्तों में एक धारणा तेजी से फैली है कि नारायणमूर्ति कंपनी के मामलों में हस्तक्षेप करने वाले व्यक्ति हैं और किसी भी मामले को यूं ही नहीं छोड़ते, न ही यह स्वीकारने को तैयार हैं कि इन्फोसिस अब उनकी कंपनी नहीं रही। यह शायद पूरी तरह से गलत न भी हो और यह आसान लगे कि सिक्का और शेषसायी के स्पष्टीकरण को ही सही मानकर आगे बढ़ा जाए। लेकिन शायद यह एक गलती होगी।

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