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मणिपुर को संघर्ष का नहीं शांति का अर्थशास्त्र चाहिए

केंद्र की मौजूदा सरकार पूर्वोत्तर भारत में, खासकर मणिपुर में शांति और भाईचारे की स्थापना पर ध्यान देने की बजाय शायद मई 2014 की चुनावी जीत के जश्न में ही मशगूल रही। मगर यह मसला आज भी मणिपुर के लोगों...

मणिपुर को संघर्ष का नहीं शांति का अर्थशास्त्र चाहिए
लाइव हिन्दुस्तान टीमFri, 17 Feb 2017 10:41 PM
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केंद्र की मौजूदा सरकार पूर्वोत्तर भारत में, खासकर मणिपुर में शांति और भाईचारे की स्थापना पर ध्यान देने की बजाय शायद मई 2014 की चुनावी जीत के जश्न में ही मशगूल रही। मगर यह मसला आज भी मणिपुर के लोगों और सूबे की नई सरकार चुनने जा रहे मतदाताओं के लिए महत्वपूर्ण बना हुआ है। 

हमें यह समझना होगा कि पूर्वोत्तर भारतीय राज्यों, खासतौर से मणिपुर में किसी सार्थक, संवेदनशील व ठोस फैसले के बिना दक्षिण-पूर्व एशिया से या दक्षिण-पश्चिम चीन से लगे क्षेत्रों में किसी बड़े भू-राजनीतिक व भू-आर्थिक फायदे का ख्याल भी निरर्थक है। यहां जिन मसलों पर बड़े फैसले की जरूरत है, उनमें सबसे ऊपर है अफ्स्पा यानी सशस्त्र बल (विशेषाधिकार) कानून। यह कानून सुरक्षा बलों को असीमित अधिकार देता है और विद्रोह को थामने के नाम पर वहां के बाशिंदों के ऊपर कई तरह के प्रतिबंध लगाता है। इसलिए इस कानून को खत्म कर देना चाहिए।

संयुक्त खुफिया समिति के अध्यक्ष आर एन रवि जैसे लोग भी, जो एनएससीएन (आई-एम) के साथ शांति-वार्ता के लिए सरकार की तरफ से नियुक्त वार्ताकार हैं, अफ्स्पा पर लंबे समय से सवाल उठाते रहे हैं। रवि ने लिखा भी है कि उन इलाकों में, जहां बगावती संघर्ष कम हो रहे हों, सेना का लंबे समय तक विद्रोह-विरोधी अभियानों में इस्तेमाल और अफ्स्पा का बने रहना ‘टिकाऊ शांति-बहाली में बाधा का काम करता है।’

फिलहाल राजधानी इंफाल के नगर निगम की सीमा को छोड़कर पूरे मणिपुर में तकनीकी रूप से अफ्स्पा लगा है। यानी ये सभी ‘अशांत क्षेत्र’ हैं। दिलचस्प बात यह है कि अफ्स्पा हटाने का विरोध सेना के शीर्ष अधिकारियों के साथ-साथ राज्य-स्तर के नेता लगातार करते रहे हैं। इसकी वजह स्वाभाविक तौर पर विद्रोह-विरोधी अभियानों के लिए आवंटित होने वाला भारी बजट है, जो अफ्स्पा को दुधारू गाय बना देता है। इन तमाम लोगों के लिए शांति के अर्थशास्त्र की तुलना में संघर्ष का यह अर्थशास्त्र कहीं ज्यादा लुभावना है। यहां हमें त्रिपुरा से सीख लेनी चाहिए, जिसने दिखाया है कि विद्रोही गुटों से सकारात्मक बातचीत करके और पुलिस-व्यवस्था को मजबूत बनाते हुए सुशासन व विकास के बूते किस तरह से तस्वीर बदली जा सकती है। 

त्रिपुरा से अब अफ्स्पा हटा लिया गया है और इससे राज्य में सुरक्षा का माहौल भी खराब नहीं हुआ। मणिपुर से अफ्स्पा हटाना सरकार का एक मानवीय कदम होगा। म्यांमार से लगे सीमाई क्षेत्रों से भी यदि इस कानून को वापस लिया जाता है, तो वहां के लोगों के जख्मों को भरने, उनका विश्वास जीतने में काफी मदद मिलेगी। मणिपुर में भाजपा चाहे चुनाव जीते या नहीं, मगर मोदी सरकार को अफ्स्पा हटाने की दिशा में जरूर आगे बढ़ना चाहिए। मणिपुर का शांत व विकसित होना इस सूबे के लिए ही नहीं, पूरे भारत के हित में है।

जरूरी यह भी है कि शांति प्रक्रिया में सभी नगा-विद्रोही गुटों को शामिल किया जाए, जिनमें एनएससीएन का खपलांग गुट भी है। आज के एनएससीएन (आई-एम) गुट की तरह यह समूह कभी भारत सरकार का पसंदीदा हुआ करता था, मगर साल 2015 की शुरुआत में इसने संघर्ष-विराम को तोड़ दिया। अगर इन तमाम गुटों को वार्ता की मेज पर न बिठाया गया, तो व्यापक नगा शांति समझौता संभव न हो सकेगा। हालांकि, इस बीच एनएससीएन (आई-एम) गुट को एक हद में समेटकर मणिपुर में चुनावी जीत का फॉर्मूला ढूंढ़ने की कोशिश कर रही भाजपा का गणित बिगड़ गया है, क्योंकि पिछले कुछ महीनों में यह विद्रोही गुट अपने ही रास्ते पर चल पड़ा है। इसका कथित छद्म चेहरा यूनाइटेड नगा कौंसिल ने पिछले नवंबर से यहां की जीवन-रेखा हाई-वे को बंद कर रखा है, जिससे मणिपुर की अर्थव्यवस्था और लोगों की आवाजाही पूरी तरह बाधित हो गई है।

रवि जैसे लोगों की नाराजगी एनएससीएन (आई-एम) की इसी आक्रामकता ने बढ़ाई है। वैसे देखा जाए, तो देश के इन हिस्सों के लिए नाराजगी कोई नई बात नहीं है। साल 1949 से ही मणिपुर नाराज चल रहा है, जब से यह भारत का हिस्सा बना और इसे पता चला कि आपसी सम्मान, शांति और सौहार्द की भारत की कही गई बातें  सिर्फ बातें हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) 

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