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मार्केटिंग नुस्खों के आसरे है चुनाव

इस समय पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा, सपा, कांग्रेस व बसपा जैसे तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल मार्केटिंग व ब्रांडिंग के नुस्खों का अपनी चुनावी रणनीति में खुलकर इस्तेमाल कर रहे...

मार्केटिंग नुस्खों के आसरे है चुनाव
लाइव हिन्दुस्तान टीमThu, 23 Feb 2017 08:26 AM
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इस समय पांच राज्यों में चल रहे विधानसभा चुनावों में भाजपा, सपा, कांग्रेस व बसपा जैसे तमाम राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दल मार्केटिंग व ब्रांडिंग के नुस्खों का अपनी चुनावी रणनीति में खुलकर इस्तेमाल कर रहे हैं। 2015 में हुए बिहार विधानसभा चुनाव के अप्रत्याशित परिणामों ने प्रशांत किशोर को, जो वर्ष 2014 में भाजपा के चुनाव अभियान में मार्केटिंग के फंडे आजमा चुके थे, एक शीर्ष चुनाव मार्केटिंग विशेषज्ञ के रूप में स्थापित किया। अब कांग्रेस भी उत्तर प्रदेश व पंजाब के विधानसभा चुनावों  में उन्हें आजमा रही  है। साल 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा के लिए ‘चाय पर चर्चा’ के बाद  वर्ष 2016 में उनका राहुल गांधी की रैलियों के लिए ‘खाट पर चर्चा’ का आइडिया भी  अखबारी सुर्खियों का विषय बना।

अब यह सवाल उठने लगा है कि क्या चुनावों में विचारधारा, पार्टी, नेताओं-कार्यकर्ताओं की महत्ता कम हो रही है, और कॉरपोरेट स्ट्रैटजी की तरह मार्केटिंग, ब्रांडिंग, पीआर, सोशल मीडिया जैसे इमेज बिल्डिंग के नुस्खे ज्यादा प्रभावी हो रहे हैं? क्या यह मान लिया जाए कि अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव की तरह भारत में लोकसभा व विधानसभा चुनावों में मार्केटिंग, ब्रांडिंग, बिग डाटा, माइक्रो टारगेटिंग, पीआर, कंज्यूमर बिहेवियर और न्यूरो मार्केटिंग जैसे विषयों के सलाहकार विशेषज्ञ यह तय करेंगे कि चुनाव कैसे लड़े जाएं? क्या यह मान लिया जाए कि भारत में भी साबुन, टूथपेस्ट, बिस्कुट, चॉकलेट, पिज्जा और बर्गर कारोबार की तरह राजनीति भी मार्केटिंग के फॉर्मूलों पर चलाई जाएगी? क्या राजनीतिक दलों को अपनी विचारधारा, प्रोग्राम और घोषणापत्र के आधार पर वोट पाना मुश्किल हो चला है? 

पिछले लोकसभा चुनावों से चुनाव संचालन और प्रबंधन में एक नया मोड़ आया है। भाजपा ने चुनाव को एक युद्ध की तरह लड़ा। पार्टी मुख्यालय में ‘वार-रूम’ जैसा माहौल पैदा किया गया और चुनाव की व्यूह रचना बनाने  में मार्केटिंग का भरपूर प्रयोग किया गया। पार्टी को जो भारी बहुमत मिला, उसका श्रेय बहुत कुछ नरेंद्र मोदी की आक्रामक प्रचार शैली को दिया गया। यूपीए-2 की विफलताओं और खासतौर पर 2-जी, कोलगेट व कॉमनवेल्थ जैसे घोटालों ने मोदी की आक्रामक प्रचार शैली को कामयाब बनाने में आग में घी की तरह काम किया। यूं तो भाजपा ने 1996, 2004 और 2009 के चुनावों में भी मार्केटिंग के नुस्खों का उपयोग किया था, पर 2014 के चुनाव में मार्केटिंग का इस्तेमाल व्यापक पैमाने पर किया गया। अब की बार, मोदी सरकार  का जो नारा हिट रहा, उसे बनाने व प्रचारित करने में विज्ञापन जगत के कुछ महारथियों का सहारा लिया गया, जैसे मैककैन वल्र्ड ग्रुप के प्रसून जोशी, ओगिल्वी ऐंड माथेर के पीयूष पांडे और मेडिसन वल्र्ड के सैम बलसारा।

आम चुनाव से महीनों पहले छह फरवरी, 2014 को नरेंद्र मोदी को भाजपा और एनडीए ने प्रधानमंत्री पद का अपना उम्मीदवार घोषित किया था। हालांकि तब तक उनकी राजनीतिक पहचान एक क्षेत्रीय नेता की थी। 63 वर्ष की आयु होने के कारण 15 करोड़ युवा मतदाताओं से तादात्म्य स्थापित करना उनके लिए कठिन था। फिर मार्केटिंग में भी यह माना जाता है कि किसी क्षेत्रीय ब्रांड का राष्ट्रीय ब्रांड बनना आसान नहीं होता। कभी-कभी यह आकस्मिक परिस्थितियों में हो जाता है। अगर कोई राष्ट्रीय ब्रांड किसी कारण कमजोर हो जाता है और उसी समय कोई क्षेत्रीय ब्रांड उस राष्ट्रीय ब्रांड के निष्ठावान ग्राहकों की जरूरतों से जुड़ जाता है, तो वह क्षेत्रीय ब्रांड भी राष्ट्रीय ब्रांड बन सकता है। ऐसे कई उदाहरण मौजूद हैं। 

पिछले 60 वर्षों में अमेरिका के राष्ट्रपति चुनावों में इन तरीकों का प्रयोग हर बार बढ़-चढ़कर किया गया। 1952 के राष्ट्रपति चुनाव में टीवी का प्रथम बार प्रयोग आइजनहावर ने किया था। 1960 के चुनावों में जॉन एफ केनेडी ने बड़ी-बड़ी कंपनियों की मार्केटिंग की तर्ज पर जनसंचार माध्यमों का व्यापक उपयोग किया था, तब वह रिचर्ड निक्सन के विरुद्ध खड़े थे। 1980 के चुनावों में रोनाल्ड रीगन ने ब्रांड पहचान और ‘देशभक्त’ की छवि का उपयोग किया। रीगन जब भी चुनावी भाषण देते, उनके पीछे अमेरिका का राष्ट्रीय ध्वज प्रदर्शित किया जाता था। बिल क्लिंटन ने 1992 और 1996 के राष्ट्रपति चुनावों में अपने प्रचार मुख्यालय को ‘वार-रूम’ की तरह सजाया। राष्ट्रपति बनने के बाद क्लिंटन ने ह्वाइट हाउस में टारगेट-मार्केटिंग का उपयोग किया, जिसमे संदेश को खास श्रोताओं की जरूरतों के अनुरूप बनाया जाता था। जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने 2000 व 2004 में टेलीविजन पर डेमोक्रेटिक उम्मीदवार जॉन केरी के खिलाफ नकारात्मक प्रचार की परंपरा शुरू की। 

2008 में राष्ट्रपति चुनाव लड़ते हुए बराक ओबामा ने यस,वी कैन  नारे के साथ जिस अति प्रभावशाली प्रचार अभियान को चलाया था, उसने पिछले 60 वर्षों के सभी चुनाव अभियानों को पीछे छोड़ दिया। उन्होंने तीन प्रचार तकनीक को एकीकृत करके चुनाव प्रचार का ‘ओबामा मॉडल’ गढ़ा, जो सोशल मीडिया, बिग डाटा और माइक्रो टारगेटिंग पर आधारित था। 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में ज्यादातर अमेरिकी मीडिया हिलेरी क्लिंटन के जीतने की भविष्यवाणियां कर रहा था, किंतु विजय हुई डोनाल्ड ट्रंप की। ट्रंप ने मेक अमेरिका ग्रेट अगेन  का नारा दिया, जो उन्होंने 2012 में ही ट्रेडमार्क के रूप में रजिस्टर्ड करा लिया था। तथ्य, आंकड़े और तार्किक आधार पर तो हिलेरी को जीतना चाहिए था, मगर जीते ट्रंप। उनकी जीत ने यह साबित किया है कि वोटरों का दिल तथ्यों और आंकड़ों के जरिये नहीं जीता जा सकता। ब्रिटेन में बे्रग्जिट रेफरेंडम में भी यही हुआ था। 

प्रसिद्ध ब्रांडिंग कन्सल्टिंग फर्म साची ऐंड साची के सीईओ रिचर्ड हटिंग्टन का कहना है कि राजनीतिक शस्त्र भंडारों में झूठ बोलना सबसे प्रभावी हथियार बन गया है। झूठ बोलने का मतलब लोगों को वही सुनाना है, जो कि वे सुनना चाहते हैं। अब आक्रामक होना और राजनीतिक रूप से गलत होना राजनीति में कोई रुकावट पैदा नहीं करते। 

मार्केटिंग, ब्रांडिंग, पीआर, बिग डाटा, न्यूरो मार्केटिंग, टारगेट मार्केटिंग आदि कॉरपोरेट जगत के बहुत कारगर तौर-तरीके हैं। संसदीय राजनीति और चुनावों में इनका इस्तेमाल करने पर किसी को ऐतराज नहीं होना चाहिए। पर ये सभी अगर राजनीतिक दलों की विचारधारा, प्रोग्राम, संगठन, कार्यकर्ताओं और घोषणापत्रों की जगह ले लेते हैं, तो यह भारतीय लोकतंत्र के लिए शुभ संकेत नहीं।  (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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