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रंगमंच का महोत्सव और आलोचनाओं के प्रहसन

नई दिल्ली में चल रहा भारत रंग महोत्सव, यानी भारंगम अब लगभग अपने अंतिम चरण की तरफ बढ़ चुका है। इस बार यह समारोह कई तरह की आलोचनाओं का शिकार है। यह देश में रंगमंच का सबसे बड़ा समारोह है। इसमें लगभग पूरे...

रंगमंच का महोत्सव और आलोचनाओं के प्रहसन
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 19 Feb 2017 11:13 PM
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नई दिल्ली में चल रहा भारत रंग महोत्सव, यानी भारंगम अब लगभग अपने अंतिम चरण की तरफ बढ़ चुका है। इस बार यह समारोह कई तरह की आलोचनाओं का शिकार है। यह देश में रंगमंच का सबसे बड़ा समारोह है। इसमें लगभग पूरे देश के प्रतिनिधि नाटक शामिल हैं, लेकिन मीडिया से उसकी दूरी बनी हुई है। पहले की तरह यह मीडिया में है ही नहीं। भारंगम को इस बार सबसे मुरझाया हुआ उत्सव बताया जा रहा है। जो लोग राजधानी में निवास करते हैं, ज्यादातर वे ही इस समारोह को देखते हैं। कुछ पास-पड़ोस के और दूर के भी आ जुटते हैं। वे भी, जिनके प्रदर्शन इस समारोह में शामिल होते हैं। वे भी, जो कहीं न कहीं रंग-जिज्ञासु हैं और रंगमंच के क्षेत्र में देश में क्या-कुछ हो रहा है, उसके प्रति अपना अनुराग रखते हैं। इस बार भी यह सब हो रहा है, पर संख्या घट गई है। चयन को लेकर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के अध्यक्ष, निदेशक व प्रोफेसरों के नाटकों की सहभागिता पर प्रश्न उठाए जा रहे हैं। फिर संस्थान के पढ़े या न पढ़े लोगों के नाटक क्यों शामिल हैं या क्यों नहीं हैं?
भारत रंग महोत्सव ने ऐसी ही निंदा और सराहना के बीच अपनी दो दशक की यात्रा कर ली है, आगे भी होता रहेगा। गुणी और ज्ञानियों, खासकर पूर्ववर्तियों की दृष्टि का आलोच्य हो जाना भी स्वाभाविक है, क्योंकि संस्थान से विदा हो गए लोगों को वर्तमान उपस्थितियां अपनी स्वत्रंतता में बाधा लगती हैं। उनके अर्थक-निरर्थक सुझाव सुनने का भी धीरज नहीं रहता, क्योंकि सभी निरीह, व्यवस्था में बंधे हाथ लिए हुए समय व्यतीत कर रहे होते हैं। इसीलिए सेवानिवृत्त को अपने कार्यकाल के स्वत: मुग्धकारी अनुभवों से बाहर आना चाहिए और वर्तमान की उपस्थिति में यथासंभव सकारात्मकता देखने की कोशिश करनी चाहिए। कई बार आलोचक और निंदक बेहतर के पक्ष में ऐसी दृष्टि और आकलन प्रस्तुत करते हैं, जो समझ और स्वीकार्यता के परे होता है, उसे ग्राह्य किया जा सकना तो और भी जटिल होता है। जैसे, यदि वे नियंता या प्रमुख पद धारित होते, तो यह जो स्वरूप है, सो एकदम से बदला हुआ होता। वे इस बात को तनिक धीरज के साथ सोच सकते हैं कि वे खुद यदि इन जगहों पर होते, तो उनको किसी भी रचनात्मक या सर्जनात्मक कार्य को इस स्वरूप में ले आने तक कितनी दुविधा, कितनी बाधा और कितने विरोधाभासों का सामना करना पड़ता। 

भारत रंग महोत्सव में एक सबसे बड़ी आपत्ति या विरोध इस बार इसी बात का हो रहा है कि यहां मंच से लेकर आंगन तक में फिल्मी सितारे क्यों दिखाई दे रहे हैं? क्यों नहीं दिखाई देने चाहिए? क्या उनको अपनी पहचान के साथ इस उत्सव का हिस्सा बनने में कोई बाधा है? यह केवल इसी बार क्यों? हर साल सितारे यहां होते हैं, बल्कि बीते वर्षों में नसीरुद्दीन शाह, पंकज कपूर, अनुपम खेर, परेश रावल सब यहां आए, उनके नाटक हुए। इस बार नवाजुद्दीन सिद्दीकी, मनोज वाजपेयी और गोविंद निहलानी आए। क्यों आप किसी का रास्ता रोक देना चाहते हैं? क्यों आप आलोचना के लिए आलोचना कर रहे हैं और साफ नजर आने वाली दीनता के साथ खड़े हैं? इससे हासिल कुछ नहीं होता। यदि आलोचना करने वालों को भारंगम एक ढर्रे का शिकार लग भी रहा है, तो वह उस तरह भी तो संपन्न हुआ जा रहा है। आलोचना की गति या स्थिति इतनी साधारण या दोयम हुई जा रही है कि आप प्रतिपक्ष भी बने हुए हैं और उसमें किसी न किसी बहाने बिंधे रहने के मोह से भी पार नहीं पा रहे। यदि वाकई निंदकों, असहमतों और आलोचकों को भारंगम इतना निराशाजनक लगता है, तो कंकड़ फेंककर छिप जाने और फिर धीरे से सिर उठाकर मजा लेने की प्रवृत्ति की बजाय सार्थक प्रतिवाद करें।

भारत रंग महोत्सव नाटकों का एक बड़ा उत्सव है, जिसकी परिधि विस्तारित होकर दूसरे देशों तक पहुंची है। दूसरे देशों की रंग-आमद हमारे लिए उत्साह भरी है। एक ओर रंगमंच की क्लासिकी का आकर्षण है, तो दूसरी ओर मिट्टी से जुड़ा रंगमंच और उसके साधक। हां, इस बार भारत रंग महोत्सव में दूसरी कला विधाओं के लिए कुछ जगह बनाई गई है, उसको भी एकदम से खारिज नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसके पीछे आयोजनों और परिकल्पकों का मंतव्य जान लेना चाहिए।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)
 

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