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राजनीति का शिकार बने विश्वविद्यालय

विश्वविद्यालय एक बार फिर गलत कारणों से खबरों में हैं। लगता है, फरवरी महीने में राजधानी के विश्वविद्यालयों के साथ कोई अपशकुन जुड़ गया है। इस साल दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में हिंसा हुई, पिछले...

राजनीति का शिकार बने विश्वविद्यालय
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 11 Mar 2017 01:11 AM
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विश्वविद्यालय एक बार फिर गलत कारणों से खबरों में हैं। लगता है, फरवरी महीने में राजधानी के विश्वविद्यालयों के साथ कोई अपशकुन जुड़ गया है। इस साल दिल्ली विश्वविद्यालय के रामजस कॉलेज में हिंसा हुई, पिछले साल जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू में हुई थी। पिछले 12 महीनों में देश के कई विश्वविद्यालयों में ऐसी बहुत सी घटनाए हुईं, जब स्वतंत्र आवाज को दबाने के लिए हिंसा हुई या फिर लोगों को परेशान किया गया। कई जगह निमंत्रण वापस लिए गए, कार्यक्रम रद्द हुए। सभाओं में हुड़दंग हुआ। कई बार विश्वविद्यालय प्रशासन ने आयोजकों के खिलाफ ही कार्रवाई की। पिछले महीने जोधपुर में ऐसा ही हुआ था।

इस तरह की घटनाएं उस अवधारणा के ही खिलाफ हैं, जिसमें विश्वविद्यालय को एक स्वायत्त स्थान माना जाता है। एक ऐसी जगह, जहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, विचारों के निर्माण व ज्ञान के खोजने-सीखने की प्रक्रिया का ही एक अंतर्निहित हिस्सा होती है। विचारों में भेद होना तय है, लेकिन इसे चर्चा और खुले दिमाग की एक जरूरत की तरह देखा जाना चाहिए। इसमें एक-दूसरे के प्रति सम्मान का भाव होना चाहिए, उसके अपमान का नहीं। लेकिन अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जैसे संगठनों का नजरिया इसके उलट है। वह मानता है कि जो उससे सहमत नहीं है, वह उसके खिलाफ है या वह राष्ट्र-विरोधी है। उसे असहमत होने का पूरा अधिकार है। इसके लिए उसे सवाल उठाने चाहिए, बहस करनी चाहिए, अपनी बात रखने के लिए कार्यक्रम करने चाहिए, लेकिन दूसरों को चुप कराने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। विश्वविद्यालय तर्क और सहिष्णुता के लिए हैं। 

विश्वविद्यालयों में इस तरह की दखलंदाजी कोई नई बात नहीं है। यह पिछले पांच दशक से चल रही है। बीते 25 साल में इसने काफी जोर पकड़ा है। 1960 के दशक के अंत में राज्य सरकारों ने विश्वविद्यालयों में दखल देनी शुरू की थी। एक तरफ यह काम कुलपति, शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों की उनमें भर्ती कराने के लिए हुआ, तो दूसरी ओर सत्ताधारी दल का असर बढ़ाने के लिए। छात्रों, शिक्षकों और कर्मचारियों के संघ को राजनीतिक लड़ाई का हथियार बनाया गया। उस प्रादेशिक राजनीति ने भी इसमें अपनी भूमिका निभाई, जो राष्ट्रीय स्तर की बौद्धिकता को नकारते हुए खुलेआम क्षेत्रीय पहचान पर ध्यान दे रही थी। अगर किसी विश्वविद्यालय से स्वतंत्र आवाज या महत्वपूर्ण आलोचना आती, तो राजनीतिक दलों के नेता परेशान हो जाते। इन्हीं कारणों से विश्वविद्यालयों के प्रति केंद्र सरकार का नजरिया भी बदलने लगा। बदलाव की शुरुआत 1977 में हुई, जब केंद्र में एक पार्टी के शासन का दौर खत्म हुआ। लेकिन इसने जोर 1989 के बाद ही पकड़ा, जब अल्पकालिक गठबंधन सरकारें आने लगीं और हर आम चुनाव के बाद सत्ता बदलने लगी। यह राजनीतिक स्पद्र्धा विश्वविद्यालयों में भी पहुंच गई और केंद्रीय विश्वविद्यालय भी इससे अछूते न रहे। 

लगता है कि हमारा राजनीतिक वर्ग और शासक वर्ग ठीक से यह समझता ही नहीं कि समाज और लोकतंत्र में विश्वविद्यालय कितनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। विश्वविद्यालयों को सिर्फ डिग्री देने वाले परिसर या पढ़ाने वाली कक्षाएं भर मान लेना भूल होगी। उनकी भूमिका कहीं बड़ी होती है। छात्र वहां अपनी कक्षाओं के बाहर ऐसा बहुत कुछ सीखते हैं, जो उन्हें समाज का बेहतर नागरिक बनाता है। अध्यापक वहां पढ़ाने और शोध के अलावा समाज के स्वतंत्र बुद्धिजीवी की भूमिका निभाते हैं। उनकी आवाज सरकार, संसद, विधायिका, और न्यायपालिका का आकलन करते हुए समाज को राह दिखाती है। लोकतंत्र में यह भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है।

अकादमिक स्वतंत्रता इसलिए बहुत जरूरी है कि विश्वविद्यालय वे स्थान हैं, जहां किसी भी चीज पर संदेह व्यक्त किया जा सके, किसी भी चीज पर सवाल उठाया जा सके। विचारों का विश्लेषण, मुद्दों पर बहस व स्वतंत्र ढंग से सोचना, यह सब बेहतरी को हासिल करने की सबसे जरूरी चीजें हैं। इसी से विश्वविद्यालय अर्थव्यवस्था, नीति और समाज की चेतना के रखवाले बनते हैं। इसलिए इनकी स्वायत्तता सबसे पवित्र चीज है। ये काम वहां नहीं हो सकते, जहां गुणवत्ता खराब हो और मानक गिरे हुए। इसके लिए विश्वविद्यालयों में बदलाव व सुधार की जरूरत है। 

दुर्भाग्य से राजनीतिक प्रक्रिया, राजनीतिक दलों और सरकारों ने, सभी ने विश्वविद्यालयों में खासी गड़बड़ की है। समय के साथ-साथ यह बढ़ती जा रही है। सरकारों के छोटे-छोटे मामलों में हस्तक्षेप बहुत ज्यादा हैं। यह प्रत्यक्ष रूप से भी होते हैं और अप्रत्यक्ष भी। कभी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के जरिये, तो कभी अपना कुलपति बिठाकर। सबके पीछे मकसद राजनीतिक होता है। इसका कोई अपवाद नहीं है। कार्यकर्ता आधारित पार्टियां इस मामले में सबसे ज्यादा गड़बड़ हैं। पहले जो काम माकपा करती थी, अब वही भाजपा करती है। कांग्रेस भी यही करती है। यह जरूर है कि लंबे समय तक सत्ता में रहने के कारण उसके पास अच्छा अनुभव है। 

किसी भी सरकार के लिए यह समझना जरूरी है कि विश्वविद्यालय के लिए संसाधन उपलब्ध कराने का अर्थ यह नहीं है कि उस पर नियंत्रण रखा जाए। ये संसाधन सार्वजनिक विश्वविद्यालयों को मिलने वाला सार्वजनिक धन है, और उनका संस्थागत स्वरूप ऐसा बनाया जाना चाहिए कि वे छात्रों व समाज के प्रति जवाबदेह हों। हर सरकार यही कहती है कि हमारे पास विश्व स्तर के विश्वविद्यालय नहीं हैं, लेकिन वह यह नहीं महसूस करती कि उनकी दखलंदाजी और राजनीतिक प्रक्रिया के हस्तक्षेप के बाद इससे ज्यादा कुछ हो नहीं सकता। इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट और इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस जैसी संस्थाओं में जहां राजनीति को दूर रखा गया, वहां ये संस्थाएं बहुत आगे बढ़ गईं।

लेकिन सारा आरोप सिर्फ राजनीति के मत्थे ही नहीं मढ़ा जा सकता। खुद विश्वविद्यालय भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। इनके नेतृत्व की गुणवत्ता काफी गिरी है। एक तो इसलिए कि राजनीतिक सोच के साथ इनके कुलपति बनाए जाते हैं, और दूसरा यह कि जो कुलपति हैं, उनमें         जरूरत पड़ने पर सरकार के खिलाफ खड़े होने का अब साहस नहीं है।
      (ये लेखक के अपने विचार हैं)

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