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सच्चाई पर कुर्बान होने का संदेश देता है ईद-उल-अजहा

ईद-उल-अजहा सच्चाई पर कुर्बान होने की नीयत करने और खुदा से मोहब्बत के इजहार का जरिया है। इस मौके पर लोग खुदा से अपने लगाव और सच्चाई की लगन का खुलकर ऐलान करते...

सच्चाई पर कुर्बान होने का संदेश देता है ईद-उल-अजहा
Sun, 06 Nov 2011 10:46 AM
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ईद-उल-अजहा सच्चाई पर कुर्बान होने की नीयत करने और खुदा से मोहब्बत के इजहार का जरिया है। इस मौके पर लोग खुदा से अपने लगाव और सच्चाई की लगन का खुलकर ऐलान करते हैं। यह त्यौहार बंदों को हर आजमाइश पर खरा उतरने की प्रेरणा देता है।

जामिया मिलिया इस्लामिया के इस्लामी अध्ययन विभाग के प्रोफेसर जुनैद हारिस कहते हैं, ईद उल-अजहा का असल संदेश यही है कि इंसान को सच्चाई पर कुर्बान होने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। कुरान भी कुर्बानी के हवाले से सच्चाई और इंसानियत का संदेश देता है।

इस त्यौहार को आमतौर पर बकरीद के नाम से जाना जाता है जिसकी तारीख हजरत इब्राहीम, उनकी बेगम हाजरा और प्यारे बेटे इस्माईल से जुड़ी है। इस तारीख की बुनियाद यही है कि एक बाप खुदा से अपनी मोहब्बत का इजहार करने के लिए अपने जिगर के टुकड़े (बेटे) को कुर्बान करने को तैयार हो गया था।

ईद उल-अजहा के मौके पर लोग नमाज अदा करने के बाद जानवरों की कुर्बानी देते हैं। इसके अलावा गरीबों को दान देते हैं और अपने दोस्तों-रिश्तेदारों से मिलते-जुलते हैं। प्रमुख इस्लामी शोध संस्थान दारूल मुसन्निफीन के उप प्रमुख मौलाना मोहम्मद उमेर अल सिद्दीक ने लखनऊ में हमारे संवाददाता को बकरीद की अहमियत के बारे में बताया कि यह त्यौहार हम सबको हजरत इब्राहीम की कुरबानी की भावना की याद दिलाता है।


बकरीद अथवा कुर्बानी की तारीख हजरत इब्राहीम से जुड़ी है। इस्लाम के मुताबिक करीब चार हजार साल पहले मक्का (अब सउदी अरब का शहर) में हजरत इब्राहीम का खुदा ने जिंदगी में कई बार इम्तहान लिया। पहला बड़ा इम्तहान उस वक्त लिया गया जब उनके बेटे इस्माईल मां की गोद में थे। उस वक्त इब्राहीम खुदा के हुक्म को मानते हुए रेगिस्तान में अपनी बीवी हाजरा और मासूम इस्माईल को छोड़कर चले गए।

उस वक्त हाजरा अपने बेटे की प्यास बुझाने के लिए आसपास के इलाकों खासकर दो पहाड़ियों अल-सफा और अल-मरवा पर भटकती रहीं, लेकिन कहीं पानी की एक बूंद नहीं मिली। कहा जाता है कि मां की तड़प और मासूम इस्माईल की प्यास को देखते हुए खुदा ने रेगिस्तान से जमजम को इजात कर दिया। आज दुनिया भर के मुसलमानों के लिए यह पानी सबसे पाक है। ये दोनों पहाड़ियां भी हज के सफर पर जाने वालों के लिए खासी अहम हैं।

इस्लामी तारीख के मुताबिक हजरत इब्राहीम का एक और इम्तहान खुदा ने उस वक्त लिया जब इस्माईल थोड़े बड़े हो गए थे। इस बार खुद का हुक्म था कि हजरत इब्राहीम दुनिया में अपनी सबसे प्यारी चीज को खुदा की राह में कुर्बान कर दें। हजरत इब्राहीम के लिए अपने बेटे इस्माईल से ज्यादा कोई प्यारा नहीं था और खुदा के हुक्म का एहतराम करते हुए वह अपने बेटे को कुर्बान करने के लिए तैयार हो गए।


प्रोफेसर हारिस कहते हैं कि कुरान के मुताबिक इब्राहीम ने इस्माइल से कहा कि अल्लाह का हुक्म हुआ है कि मैं तुम्हे कुर्बान कर दूं। इस्माईल ने जवाब दिया कि जब खुदा का हुक्म है तो मैं भी कुर्बान होने के लिए तैयार हूं। बाद में इस्माईल की जगह एक जानवर आ गया। खुदा तो सिर्फ हजरत इब्राहीम का इम्तहान ले रहा था।

मौलाना उमेर ने बताया कि उसके बाद से हजरत इब्राहीम के त्याग की याद को जिंदा रखने के लिये हर साल बकरीद का त्यौहार मनाया जाता है। उन्होंने बताया कि महज जानवर की कुर्बानी दे देना ही सब कुछ नहीं है बल्कि हमें हजरत इब्राहीम की तरह ही अपनी हरकतों और आमाल को भी दुरूस्त करने का इरादा भी करना होता है।

मौलाना उमेर ने बताया कि इस्लाम के वजूद से पहले भी दुनिया भर में सभी धर्मों में कुर्बानी या बलि का रिवाज रहा है लेकिन इस्लाम ने कुर्बानी को खास शक्ल दी है। दिल्ली की फतेहपुरी मस्जिद के शाही इमाम मुफ्ती मुकर्रम अहमद कहते हैं, उस वक्त हजरत इब्राहीम का खुदा सबसे बड़ा इम्तहान ले रहा था। किसी भी इंसान के लिए इससे बड़ा कोई इम्तहान नहीं हो सकता। इस इम्तहान में इब्राहीम अव्वल रहे। उन्होंने साबित किया कि हमारे लिए खुदा से ज्यादा कोई अजीज नहीं है।

मुफ्ती मुकर्रम ने बताया, उस इंसान पर कुर्बानी वाजिब है, जिसके पास 613 ग्राम चांदी या इसकी कीमत की कोई संपत्ति है। अगर किसी इंसान के पास इतनी कूवत नहीं है तो उस पर कुर्बानी वाजिब नहीं है।

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