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जानें इनके बारे में, IIM से की है पढ़ाई और अब चला रही हैं गुरुकुल

गरीबों के बच्चे पढ़ने-लिखने की उम्र में भी स्कूल न जाकर अपने माता-पिता के काम में सहयोग करते हैं या फिर बाल मजदूरी करने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे अभिभावकों में से यदि कोई बहुत जागरूक होता है तो वह...

जानें इनके बारे में, IIM से की  है पढ़ाई और अब चला रही हैं गुरुकुल
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 13 Dec 2016 04:33 PM
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गरीबों के बच्चे पढ़ने-लिखने की उम्र में भी स्कूल न जाकर अपने माता-पिता के काम में सहयोग करते हैं या फिर बाल मजदूरी करने को मजबूर हो जाते हैं। ऐसे अभिभावकों में से यदि कोई बहुत जागरूक होता है तो वह अपने बच्चे को किसी सरकारी स्कूल में कुछ घंटों के लिए भेजने के बारे में सोच भी लेता है, पर अमल नहीं करता। क्या ये बच्चे अच्छी शिक्षा पाने के हकदार नहीं हैं? क्या ये किसी पब्लिक स्कूल में अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा नहीं पा सकते? क्या इन्हें शिक्षित होकर अपना भविष्य संवारने और फिर देश के विकास में अपना योगदान देने का हक नहीं है? इन्हीं सवालों ने बेचैन किया लखनऊ की पूजा मिश्रा को। उन्होंने ऐसे बच्चों और खासकर ऐसी लड़कियों को बेहतर शिक्षा उपलब्ध कराने की ठान ली और शुरू कर दिया एक चैरिटेबल पब्लिक स्कूल, जिसका नाम है गुरुकुल पब्लिक स्कूल।

अच्छी शिक्षा देना उद्देश्य
अंग्रेजी माध्यम के किसी पब्लिक स्कूल की स्थापना के बारे में कोई सोचता है तो पूरा हिसाब पहले ही लगा लेता है कि इससे कितनी कमाई की जा सकती है, बच्चों के अभिभावकों की जेब से किस-किस तरह से पैसे निकाले जा सकते हैं। पूजा के सामने उद्देश्य सिर्फ एक था कि गरीबों के बच्चे मुफ्त में बढ़िया पढ़ाई कर पाएं। स्कूल बनाने में पैसे बहुत लगेंगे, ग्रामीण बच्चों को स्कूल तक लाना और कठिन होगा, फीस के रूप में इनके लिए 50 रुपए भी दे पाना मुश्किल होगा, इसका अंदाजा पूजा को था। लेकिन उन्होंने इस काम को दिल से करने की ठान ली थी। अमेरिका में कमाई अपनी जमा-पूंजी लगा दी और किसी एमएनसी (मल्टी नेशनल कंपनी) में काम करने के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट(कोलकाता) से हासिल की अपनी एमबीए की डिग्री को भी स्कूल की बेहतर व्यवस्था के लिए समर्पित कर दिया।

ऐसे हुई शुरुआत

आखिर पूजा के मन में गरीब बच्चों को बेहतर शिक्षा देने का खयाल कैसे आया? पूजा बताती हैं, ‘रायबरेली जिले का पुरासी मेरा पैतृक गांव है। पिताजी लखनऊ आ गए और मेरा जन्म भी लखनऊ में ही हुआ, लेकिन मेरे अनेक चचेरे भाई-बहन गांव में ही रह गए। वे बेहतर शिक्षा नहीं पा सके। खासकर ग्रामीण इलाकों में रह रहीं गरीब लड़कियों का हाल तो और बुरा था। अमेरिका में मैं चार साल रही और देखा कि शिक्षा हर किसी के लिए अनिवार्य तो थी ही, लड़के और लड़कियों की शिक्षा में कोई भेदभाव भी नहीं किया जाता था। अपने देश लौटकर मैं वैसे तो आईआईएम से एमबीए कर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में काम करना चाहती थी, लेकिन एमबीए करने के बाद गांव में शिक्षा की स्थिति और अमेरिका की बातें दिमाग में घूमने लगीं। अंतत: मैंने निर्णय लिया कि मुझे अपने गांव में एक बढ़िया पब्लिक स्कूल खोलकर उन बच्चों और बच्चियों के लिए अंग्रेजी माध्यम में बेहतर शिक्षा देने की व्यवस्था करनी है, जो आर्थिक अभाव और बेहतर शिक्षा व्यवस्था की कमी के कारण अच्छी शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। फिर मैंने अपने पति और पिताजी से विचार-विमर्श किया। उनकी ओर से भी मुझे प्रोत्साहन मिला और 2012 में पैतृक जमीन पर 23 बच्चों के साथ स्कूल शुरू कर दिया।’

दोस्तों से मिली मदद
जैसे ही स्कूल शुरू हुआ, स्कूल के सामने कई व्यावहारिक मुश्किलें आने लगीं। गरीबों के बच्चे और खासकर लड़कियों को स्कूल तक लाना बड़ी चुनौती हो गई थी। ऐसे लोगों के घर जाकर उन्हें समझाने और बच्चों की संख्या बढ़ाने की कोशिश शुरू हो गई। लेकिन क्या बच्चों की बढ़ी संख्या को संभालना और उनकी किताबों, यूनिफॉर्म का खर्चा उठाना आसान था? पूजी बताती हैं, ‘बड़ी मुश्किलें शुरू हो गईं। एक समय तो ऐसा आया कि मैं सोच में पड़ गई। स्कूल कैसे चलेगा और अगर नहीं चला पाई तो जो बच्चे स्कूल में पढ़ रहे हैं, उनका क्या होगा? फिर मुझे अपने आईआईएम के दोस्तों से सहयोग के बारे में सोचना पड़ा। उनसे संपर्क किया और अपने अभियान के बारे में बताया। उन लोगों को मेरी बात सुनकर बड़ी खुशी हुई और उन्होंने सहयोग करने का आश्वासन दिया। घर के प्रोत्साहन के साथ दोस्तों के सहयोग से मेरी हिम्मत बढ़ी और विश्वास हो गया कि अब यह अभियान सफल होकर रहेगा। ’

लक्ष्य है बड़ा
परिवार का प्रोत्साहन, दोस्तों का सहयोग, अपना विश्वास और परिश्रम क्या रंग लाता है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि तीन साल में ही गुरुकुल में छात्रों की संख्या 1000 हो गई। खुशी की बात यह भी है कि इनमें ज्यादातर लड़कियां हैं। कई एकड़ में स्थापित स्कूल में 10 हजार वर्गफीट में क्लास रूम व अन्य इमारतें बनी हुई हैं। स्कूल के कंप्यूटर लैब और साइंस लैब में आठ कंप्यूटर और 20 लैपटॉप भी हैं। शुरू में लखनऊ से रोज 80 किलोमीटर की दूरी तय कर पूजा स्कूल जाती थीं, लेकिन आज स्कूल में 23 शिक्षक हैं, जो बीएड हैं। अपने अभियान को इस तरह तेज रफ्तार से सफल होते देख अपने दोस्तों के सहयोग से पूजा ने अगला लक्ष्य तय करना शुरू कर दिया। उन्होंने पांच साल बाद ही यानी 2020 में बच्चों की संख्या 10 हजार और 2025 में एक लाख तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है, ताकि यह अभियान तेजी से आगे बढ़े और गरीब बच्चे भी एक अच्छे पब्लिक स्कूल में पढ़े।

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