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काश, मेले की हर शाम किसी राज्य के नाम होती

बेशक, इस बार का सरकारी प्रयास मेले को राष्ट्रीय स्वरूप देने की दिशा में बढ़ते हुए कदम की तरह है, पर वह सपना साकार होना अभी शेष है जो वर्ष 1997 और उसके बाद के कई मेलों में पाला गया था। सोच बनी थी कि...

काश, मेले की हर शाम किसी राज्य के नाम होती
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 23 Nov 2014 11:07 PM
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बेशक, इस बार का सरकारी प्रयास मेले को राष्ट्रीय स्वरूप देने की दिशा में बढ़ते हुए कदम की तरह है, पर वह सपना साकार होना अभी शेष है जो वर्ष 1997 और उसके बाद के कई मेलों में पाला गया था। सोच बनी थी कि मेले को राष्ट्रीय स्वरूप देने के लिए मेले की हर शाम किसी राज्य के नाम हो। ताकि विभिन्न राज्यों की लोक संस्कृतियों का संदेशमूलक आदान-प्रदान हो सके। अनेकता में एकता के दर्शन हो सके। मेले में राज्यों के नाम पर दिवस का आयोजन हो-मसलन पंजाब दिवस, दिल्ली दिवस, कर्नाटक दिवस, गुजरात दिवस आदि आदि।

मेले की कई कुरीतियों- अपसंस्कृतियों से निपटना तब प्रशासन के लिए चुनौती भरा कार्य था। वर्ष 1997 में सारण के तत्कालीन डीएम प्रत्यय अमृत ने तब कई नए इवेंट शुरू किए और ऐसी व्यवस्था की गयी कि मंच पर आने के पहले सांस्कृतिक टोलियां मेले की परिक्रमा करते हुए मंच पर आए। छोटानागपुर के छऊ नर्तकों, पंजाब के भांगड़ा, गुजरात के गरबा आदि के कलाकारों का मेले में जब नाचते-गाते जुलूस निकला तो पूरा मेला थियेटरों से बेरुख होकर मुड़ गया जनसंपर्क के पंडाल की ओर। उसी कड़ी में एक सोच यह भी बनी कि देश के विभिन्न राज्यों की लोक संस्कृतियों, जनजातीय नृत्यों, रहन-सहन, पहनावा, हस्तशिल्प और लजीज व्यंजनों को प्रदर्शित करने के लिए मेले में राज्यों के नाम पर दिवस का आयोजन हो। उनके स्टॉल लगे और वहां की सरकारों की भागीदारी हो।

मेले में उत्तर भारत के प्राय: सभी राज्यों के व्यापारी हैं। उनका कारोबार अच्छा चल रहा है। हर साल आते हैं। मेले से उनका कितना गहरा रिश्ता है कि जब जाते हैं तो अगले साल का किराया देकर ही । ताकि उनकी जगह सुरक्षित रहे। दिन भर के कारोबार से थक जाने के बाद मनोरंजन चाहते हैं। सभी को अपनी लोक संस्कृतियां पसंद हैं। उनके मन की भूख रही है कि काश, मेले में उनके राज्य के भी व्यंजन होते। उनके यहां के कलाकारों का विशेष कार्यक्रम होता। कश्मीर के दो दर्जन से अधिक दुकानों पर दो सौ से अधिक कश्मीरी हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश के सैकड़ों कारोबारी हैं। पंजाब व हरियाणा भी पीछे नहीं। पश्चिम बंगाल के शिल्पी हैं। मीना बाजारों में दिल्ली भी आई है। मेले में सब कुछ है, बस कमी है तो राज्यों के नाम पर दिवस के आयोजन की। कई व्यापारियों ने कई मेलों का उदाहरण देते हुए बताया कि किस तरह वहां विभिन्न राज्यों के कलाकार वहां की माटी-पानी से जुड़े कार्यक्रम प्रस्तुत कर दर्शकों को मोहते हैं। इस बार सांस्कृतिक कार्यक्रमों की गुणवत्ता काबिलेतारीफ जरूर रही पर राज्यवार प्रदर्शन की कमी खटकी।

पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए भी दिवस का आयोजन जरूरी
मेले में दिवसों के आयोजन की परंपरा अगर शुरू हो तो दूसरे राज्यों के शासन की भागीदारी बढ़ेगी और तब यह देश का अनोखा, अलबेला मेला साबित होता। खास बात यह कि मेले में जितने भी विदेशी सैलानी आते हैं और इस बार भी आए, उनकी पहली पसंद लोक जीवन से जुड़ी चीजें ही होती हैं। वे यह देखते हैं कि लगातार आधुनिक होते जा रहे मेले के इस बाजार में परंपरागत चीजें क्या -क्या हैं। उनके कैमरे की जद में जैसे ही वैसी कोई चीज आई कि कैद हो जाती है। गुड़ का गुलगुला अब आम दिनों में शायद ही कहीं मिले पर मेले में वह मिल जाता है। पर्यटक उसे खरीदना और खाना नहीं भूलते। साहित्यकार कपिलदेव सिंह कहते हैं, विभिन्न राज्यों के नाम पर दिवस का आयोजन होने से पर्यटन उद्योग को बढ़ावा मिलता और पर्यटन के राष्ट्रीय मानचित्र पर हरिहरक्षेत्र सोनपुर की विशेष पहचान कायम होती।

 

 

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