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बोलने-बांटने में काहे की कंजूसी

बिहार की चुनावी जंग में इन दिनों जिस प्रकार 'जुबाने-खंजर' चल रही है, जैसे भाषण हो रहे हैं, बरबस फिल्म उपकार  के मलंग बाबा की याद ताजा हो गई। उस चरित्र को निभाते हुए प्राण साहब का चर्चित संवाद...

बोलने-बांटने में काहे की कंजूसी
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 05 Oct 2015 09:36 PM
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बिहार की चुनावी जंग में इन दिनों जिस प्रकार 'जुबाने-खंजर' चल रही है, जैसे भाषण हो रहे हैं, बरबस फिल्म उपकार  के मलंग बाबा की याद ताजा हो गई। उस चरित्र को निभाते हुए प्राण साहब का चर्चित संवाद राशन पर भाषण है, भाषण पर राशन नहीं। भाषण देना भी एक कला है।

सच को झूठ और झूठ को सच कहने की कला। भाषण देने की क्षमता सभी में नहीं होती, लेकिन जो इसमें विशारद होता है, वह धारा-प्रवाह बोलता है और जिस प्रकार एक शिल्पी पत्थर पर हथौड़े से वार करता है, ठीक उसी शैली में वह श्रोताओं पर प्रहार करने लगता है। तालियां उसका हौसला बढ़ाती हैं। मुंह के आगे माइक हो और सामने श्रोता, तो मूक भी वाचाल हो जाता है। कुछ कमजोर वक्ता 'बकता' के चौखट से चाहते हुए भी नहीं निकल पाते।

जब-जब चुनाव का मौसम आता है, जिसका जो जी चाहे, भाषण के नाम पर ठेल देता है। बोलने की आजादी है। भाषण पर 'बैन' नहीं। खुलकर, खोलकर सभी कहते हैं अपने मन की बात। काहे की कंजूसी? घुमड़ रहे हैं आरोप-प्रत्यारोप के 'काले' बादल। चुनावी टकसाल में सांस ले रहे उम्मीदवारी सिक्के अपने खरेपन का वादा करेंगे। भाषण के टोकरे में वादों का सजा थाल। निरीह जनता की बेबसी को शब्द दे रहे हैं एहतराम भाई- उसका भाषण था कि मक्कारी का जादू एहतराम/ मैं कमीना था कि बुजदिल मुग्ध श्रोताओं में था।

लिखा भाषण पढ़ने वालों को भटकने की गुंजाइश नहीं होती। अंग्रेजी शब्द ठूंसने और अज्ञानता के चलते हम 'टॉलरेट' नहीं कर सकते की जगह हम टॉयलेट नहीं कर सकते की भूल से बचे रहते हैं ऐसे भाषणबाज।

अगले कुछ दिनों तक जुबानों के साथ-साथ निगाहें भी सक्रिय रहेंगी। आंखें जमी रहेंगी टीवी स्क्रीन की ललित प्रकार और दलित-प्रकार चर्चाओं में। महा-गठबंधन हिट होगा कि चित्त? कौन बनेगा मुख्यमंत्री? विकास की राह से सत्ता के गलियारे पहुंचेंगे रथी या गुजर जाएगा कारवां इस वेदना के साथ कि और हम खड़े-खड़े (बि)हार देखते रहे...।
अशोक संड

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