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आसान नहीं सीमा विवाद का सुलझना

भारत और चीन का सीमा विवाद एक बार फिर सुर्खियों में है। भारत जब चीन के साथ रिश्ते बढ़ाता दिख रहा है, तब सीमा को लेकर चीनी नेताओं के बयान व अखबारों के विश्लेषण हमें परेशान कर रहे हैं। दोनों देशों का यह...

आसान नहीं सीमा विवाद का सुलझना
लाइव हिन्दुस्तान टीमWed, 27 May 2015 09:51 PM
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भारत और चीन का सीमा विवाद एक बार फिर सुर्खियों में है। भारत जब चीन के साथ रिश्ते बढ़ाता दिख रहा है, तब सीमा को लेकर चीनी नेताओं के बयान व अखबारों के विश्लेषण हमें परेशान कर रहे हैं। दोनों देशों का यह सीमा विवाद बहुत पुराना है, लेकिन भारत के लोगों को आमतौर पर यह समझ नहीं आता कि इसका समाधान कैसे हो सकता है? इसकी ऐतिहासिक जड़ों की कई तरह से व्याख्या की जाती है, लेकिन इस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता कि चीन खुद कैसे इस विवाद को देखता है। दोनों देशों के दावे उस भू-राजनीति से जुड़े हैं, जो 1950 से लगातार बदलती रही है। कई बार भू-राजनीति के ऐसे दबाव ज्यादा हावी होते रहे, जिनका सीमा से कोई लेना-देना ही नहीं है।
झाऊ एन लाई अप्रैल 1960 में समाधान की एक महत्वाकांक्षी योजना लेकर भारत आए थे। लेकिन यहां इसका संदर्भ भी देखना होगा। इसकी एक बड़ी वजह यह थी कि चीन और सोवियत संघ के रिश्तों में खटास आ गई थी। सोवियत संघ ने चीन से अपने आर्थिक रिश्ते तोड़ लिए थे और अपने तमाम विशेषज्ञों को वहां से वापस बुला लिया था। साथ ही सोवियत संघ ने भारत-चीन सीमा विवाद पर उदासीन रवैया अपनाना शुरू कर दिया था। चीन ने तब अपनी सेना को निर्देश दिया था कि वह भारतीय सीमा पर नरमी बरते। बीजिंग उस समय अपने पड़ोसियों से तनाव खत्म करना चाहता था, इसीलिए झाऊ भारत आए थे। मगर बात बनी नहीं और दो साल के भीतर ही भारत और चीन के बीच बाकायदा युद्ध हो गया। दोनों के राजनयिक रिश्ते टूट गए, जिनके बहाल होने में 14 साल का समय लग गया। 1979 में जब विदेश मंत्री के तौर पर अटल बिहारी वाजपेयी चीन गए, तब डेंग जियाओपिंग ने पहले से दिए गए किसी संकेत के बिना उनके सामने समाधान का प्रस्ताव पेश किया। लेकिन समाधान को लेकर चीन और भारत की सोच में जो अंतर था, उससे बात आगे बढ़ी नहीं। ऐसा ही प्रस्ताव 1981 में तत्कालीन विदेशी मंत्री नरसिंह राव के सामने भी पेश किया गया था। जमीनों की अदला-बदली से मामले को एकमुश्त निपटाने का वह प्रस्ताव भारत को स्वीकार्य नहीं था। दिलचस्प बात यह है कि ये कोशिशें उस समय हो रही थीं, जब चीन अमेरिका से अपने रिश्ते सुधार रहा था और दूसरी तरफ, अमेरिका भारत से रिश्ते सुधारने की ओर बढ़ रहा था।

यह सिलसिला तब और आगे बढ़ा, जब 1981 में चीनी विदेश मंत्री हुआंग हुआ प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से मिले। इसके बाद अगले सात साल में दोनों देशों के बीच वार्ता के आठ चरण हुए। भारत चाहता था कि पहले पूर्वी क्षेत्र पर ध्यान दिया जाए, क्योंकि यहां पर समाधान की संभावना ज्यादा है और अगर यह हो जाता है, तो पश्चिमी क्षेत्र में समाधान के लिए सकारात्मक माहौल बनेगा। लेकिन चीन क्षेत्र दर क्षेत्र की बजाय विस्तृत समाधान चाहता था। यह उस समय की बात है, जब ताईवान के मसले पर चीन और अमेरिका के बीच मतभेद उभरने लगे थे और चीन अपनी विदेश नीति को गुट निपरेक्षता की ओर बढ़ाने में दिलचस्पी दिखाने लगा था। दूसरी तरफ, भारत-चीन विवाद में भारत के साथ खड़ा दिखाई देने वाला मास्को  गोर्बाच्येव के बाद उदासीन रवैया अपनाने लग गया। इसके साथ ही चीन ने अपना रवैया बदल दिया और पूर्वी क्षेत्र पर ज्यादा रियायतों की मांग करने लग गया। 1988 में जब राजीव गांधी और डेंग जियाओपिंग के बीच शिखर वार्ता हुई, तब तक भारत की भू-राजनीतिक स्थिति थोड़ी कमजोर हो गई थी, क्योंकि अब वह सोवियत संघ, चीन और भारत के त्रिकोण का हिस्सा नहीं था।

इसके बाद अगली बड़ी कोशिश साल 2005 में हुई, जब वेन जियाबाओ भारत आए। तब भारत और चीन ने 'राजनीतिक पैमाने और दिशा-निर्देश' के समझौते पर दस्तखत किए। इस समझौते में वे सिद्धांत थे, जिनसे दोनों देश समझौते की दिशा में आगे बढ़ सकते थे। यह माना जाता है कि चीन की इस पहल का कारण भी भू-राजीतिक ही ज्यादा था। दरअसल, उस समय तक अमेरिका और भारत के रिश्ते सामान्य हो चुके थे, और अमेरिका अपनी एशिया नीति में भारत को एक महत्वपूर्ण देश के रूप में देखने लगा था। लेकिन यह बात भी बहुत आगे नहीं बढ़ी, और चीन ने सीमा विवाद पर अपना रवैया कुछ कड़ा करना शुरू कर दिया।

दुनिया की राजनीति एक बार फिर बदल रही है और शी जिनपिंग का चीन इस समय पूरे एशिया में अमेरिका से स्पर्द्धा कर रहा है। रूस के साथ समीकरण बनाकर चीन अब एशिया में अपनी रणनीति को ज्यादा गहराई देना चाहता है। ऐसे में, यह भी सोचा जा सकता है कि चीन भारत से मित्रता बढ़ाकर सीमाओं पर स्थिरता लाना चाहेगा। लेकिन यह अभी साफ नहीं है कि सीमा विवाद के समाधान के लिए चीन किस हद तक जाना चाहेगा। चीन अब पहले की तरह कोई अलग-थलग देश नहीं है, और न तो वह आर्थिक रूप से खस्ताहाल है और न ही घरेलू मोर्चे पर वहां कोई बड़े मतभेद हैं।

ऐसे में, भारत के प्रभुवर्ग को भी इस पृष्ठभूमि का पूरा ख्याल रखना होगा। साथ ही दुनिया की लगातार बदल रही भू-राजनीति में भारत के दीर्घकालिक हितों को ध्यान में रखकर चलना होगा। यह सोचना खतरनाक हो सकता है कि दुनिया में अपनी स्थिति को सामने रखकर चीन से किसी त्रिकोणात्मक या चतुष्कोणात्मक समीकरण के आधार पर संबंध बनाए जाएं। किसी चीन विरोधी गठजोड़ की ओर झुककर कुछ पाने की उम्मीद पालने से नतीजा कुछ नहीं निकलने वाला। भारत पर दबाव बनाने की चीन की रणनीति, उसके पाकिस्तान से बढ़ते रिश्ते और हिमालयी क्षेत्र में उसके दबदबे का मुकाबला किसी बाहरी ताकत को बीच में लाकर नहीं किया जा सकता। अमेरिका को साझीदार बनाकर संतुलन साधने की सोच में दिक्कत यह है कि पाकिस्तान समेत कई ऐसे मामले हैं, जिनमें अमेरिका की सोच भारत के मुकाबले चीन के ज्यादा करीब है। यह सोच बहुत अतार्किक है कि भारत शीत युद्ध जैसी स्थिति बनाकर चीन से निपट सकता है।

ऐसे में, बुद्धिमानी यही है कि चीन से बहुस्तरीय संबंध बनाने की रणनीति पर चला जाए, इसके अलावा अपनी घरेलू के साथ-साथ क्षेत्रीय ताकत बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए। इससे क्षेत्रीय माहौल बदलेगा और चीन भारत से सामरिक रिश्ते बनाने की पहल करेगा। सीमा विवाद के निपटारे का अगला मौका भी तभी आएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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