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लोकतंत्र और भक्ति

नेता को भगवान या खुदा मानकर आजकल समर्थक बड़ी तादाद में वंदना करना शुरू कर देते हैं, जिनमें आलोचना के लिए किंचित मात्र जगह नहीं होती। ये राजनीतिक भक्ति के कट्टरवाद का दौर है। इन भक्तों को चार वर्गों...

लोकतंत्र और भक्ति
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 30 Mar 2015 08:57 PM
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नेता को भगवान या खुदा मानकर आजकल समर्थक बड़ी तादाद में वंदना करना शुरू कर देते हैं, जिनमें आलोचना के लिए किंचित मात्र जगह नहीं होती। ये राजनीतिक भक्ति के कट्टरवाद का दौर है। इन भक्तों को चार वर्गों में विभाजित करने की सोच रहा हूं। पहले नंबर पर वे राजनीतिक भक्त हैं,  जो पार्टी के सिद्धांतों के आधार उसके नेताओं की भक्ति करते हैं। वे राजनीतिक कार्यकर्ता कहलाते हैं।

कुछ ऐसे भक्त हैं, जो नेता को एक खास धार्मिक कट्टरता के समर्थन या विरोध करने के लिए पूजने लगते हैं। ये असुरक्षा बोध या खास पूर्वाग्रह से भक्त बन जाते हैं। तीसरी जमात में ऐसे कथित बुद्धिजीवी होते हैं,  जो तर्क की परिधि खींचकर नेता को जबरन उसके अंदर ले आते हैं और शुरू हो जाते हैं उसकी तारीफों के पुल बांधने में। इनके अंदर  राजनीतिक पहचान की आकांक्षा भी होती है। चौथी जमात उन मौसमी भक्तों की होती है,  जो तात्कालिक कारणों से किसी नेता के भक्त बनते हैं और नफे-नुकसान का आकलन कर उसे छोड़ भी देते हैं। ऐसे राजनीतिक होशियार वोटरों के चलते ही हमारा लोकतंत्र मजबूत बनता है। इसी चौथी जमात की वकालत करता हूं, जिनके लिए मुद्दे मायने रखते हैं, व्यक्ति नहीं। मैं हमेशा चर्चिल के उस वक्तव्य को याद रखता हूं, जिसमें उन्होंने कहा था कि लोकतंत्र में नेता का काम होता है लोगों को सपने दिखाना, पर कोई जरूरी नहीं है कि वे पूरे ही होंगे। आशावान बनिए, निराश नेता से हों, पर लोकतंत्र में आस्था रखिए। भक्त लोकतंत्र के बनिए, भला होगा।
एनडीटीवी इंडिया वेब पोर्टल में रवीश

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