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चुनाव बीत गए अब नेताओं के इम्तहान का वक्त

चुनाव विजेताओं के लिए खुमारी-भरा उल्लास लाते हैं। पराजितों के हिस्से में आते हैं- हताशा और आक्रोश, पर इस बार मामला महज हारे या जीते लोगों का नहीं है। रविवार की सुबह लालू-नीतीश का गठबंधन जीत की ओर बढ़ा...

चुनाव बीत गए अब नेताओं के इम्तहान का वक्त
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 09 Nov 2015 07:51 PM
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चुनाव विजेताओं के लिए खुमारी-भरा उल्लास लाते हैं। पराजितों के हिस्से में आते हैं- हताशा और आक्रोश, पर इस बार मामला महज हारे या जीते लोगों का नहीं है। रविवार की सुबह लालू-नीतीश का गठबंधन जीत की ओर बढ़ा ही था कि प्रश्नों के नागफनी सिर उठाने लगे। कब तक निभेगा यह भाईचारा? लालू अपने साथियों को कैसे संभालेंगे? क्या राबड़ी का एक बेटा उप-मुख्यमंत्री बनेगा? क्या नीतीश अब राष्ट्रीय राजनीति में भी दांव आजमाएंगे?

ज्यों-ज्यों नतीजे आते गए पराजितों के लिए भी कयासों के तंदूर गर्म होते गए। क्या यह नरेन्द्र मोदी के करिश्मे पर चोट है? अमित शाह की रणनीति दिल्ली के बाद बिहार में फेल हो गई तो क्या उनके पर कतरे जाएंगे? इस हार की गाज क्या बिहार के भाजपा नेताओें पर गिरेगी? क्या एनडीए में टूट होगी? वगैरह-वगैरह।

ध्यान दें। आशंकारथियों ने न जीते के उल्लास को बख्शा, न हारे को संभलने का मौका दिया। मेरी नजर में इन सवालों की कोई अहमियत नहीं। दरअसल, लोकसभा के बाद दिल्ली और अब बिहार के चुनावों में जनता-जनार्दन ने जिसको दिया, झोली भरकर दिया। मतदाता अपनी पसंद के दल को सम्पूर्ण बहुमत से नवाज रहे हैं ताकि वह काम कर सके। चिंता का सबब यह है कि कोई भी दल या नेता अपने दावों पर खरा नहीं उतर रहा।

एक उदाहरण। दिल्ली नगर राज्य है। लोकसभा की सारी सात सीटें भाजपा की झोली में डालने के बाद दिल्लीवासियों ने ‘आप’ को तब अभूतपूर्व बहुमत से इसलिए नवाजा, ताकि एनडीए और ‘आप’ की सरकारें मिलकर उनकी जरूरतों को पूरा कर सकें। इसके लिए जरूरी था कि एक-दूसरे से कुछ मील की दूरी पर बैठने वाली इन दो सरकारों के बीच बेहतर तालमेल बनता, ताकि यहां के एक करोड़, 30 लाख से ज्यादा वोटर अपनी चाहतों को आकार लेता देख सकते। हो इसका उलटा रहा है।

अब आते हैं बिहार विधानसभा-चुनावों पर। इस बार भी सभी ने विकास का नारा लगाया। सवाल कायम है। अगर सभी दल नेकनीयत हैं, तो सब मिलकर विकास की कोशिशें क्यों नहीं करते? क्यों हमारे विधानमंडल अनर्गल आरोपों का अखाड़ा बनकर रह गए हैं? आरोप-प्रत्यारोप की होली अब सिर्फ चुनावों में नहीं खेली जाती। नेताओं ने इसे हमारी जिंदगी का हिस्सा बना दिया है।

कहने की जरूरत नहीं कि लोकतंत्र के लिए यह प्रवृत्ति खतरनाक है। जब सब विकास के नाम पर जनादेश हासिल करते हैं, तो उन्हें आपस में उलझने का क्या हक? सवाल किसी खास प्रदेश या भूभाग की भावनाओं का नहीं बल्कि समूचे देश की लोकतांत्रिक आस्था का है। पता नहीं क्यों हमारे सत्तानायक चुनावी कटुता को कलेजे से लगाए रखते हैं? एक-दूसरे को नीचा दिखाने के फेर में वे जनहित के मुद्दे बिसरा बैठते हैं। क्या वे मिलकर काम नहीं कर सकते?
चुनावी जंग के बाद अब उनके असली इम्तहान का वक्त है।

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