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परखनली में प्रकाश करात

वह अक्तूबर, 1980 की एक रात थी। घड़ी की सुइयां दो बजा रही थीं और बनारस के घाटों पर भोर उतरने में बहुत देर नहीं थी। मैं आज अखबार से काम निपटाकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थित अपने पिता के आवास पर लौट...

परखनली में प्रकाश करात
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 18 Apr 2015 09:06 PM
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वह अक्तूबर, 1980 की एक रात थी। घड़ी की सुइयां दो बजा रही थीं और बनारस के घाटों पर भोर उतरने में बहुत देर नहीं थी। मैं आज अखबार से काम निपटाकर काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थित अपने पिता के आवास पर लौट रहा था कि अस्सी पर वे दोनों खड़े मिल गए। उन्होंने रुकने का इशारा किया और पेशकश के अंदाज में पूछा, ‘चाय लड़ जाए?’ अनमने मन से मैंने ‘हां’ कर दी। मैं उन दोनों नौजवानों को पसंद करता था,  क्योंकि वे अपने विचारों के प्रति बेहद समर्पित थे और अपने ‘कॉज’ के लिए कुछ करना चाहते थे। अनमनापन इसलिए था,  क्योंकि मेरी नजर में चाय पीने का वह मौजूं समय नहीं था। खैर, चाय पर चर्चा शुरू हुई। एक साथी ने जेब से मुड़ी-तुड़ी सिगरेट निकालकर सुलगाई और चाय सुड़कते हुए दूसरे से कहना शुरू किया कि यह अच्छा है कि अब साथी शशि शेखर भी बनारस आ गए हैं। इससे रचनात्मक गतिविधियों को बल मिलेगा। अगले एक घंटा मैं उन दोनों का वार्तालाप सुनता रहा। उनकी नजर में मैं बातचीत में सहभागी था। ‘साथी’ तो वे पहले ही मान चुके थे।

हालांकि, मैं न सहभागी था, न साथी। उनकी प्रतिबद्धता मोहती थी, पर वैचारिक कट्टरता, जड़ता की हद छू रही थी। इस बीच एक ने अपनी चाय में पानी मिला लिया। तब तक सुना भर था कि लोग शराब में पानी मिलाते हैं, पर चाय में जल! उधर, दूसरे की सिगरेट से अजीब गंध आ रही थी। क्या वह गांजा था?  यह वह दौर था, जब गौदोलिया के यूनिवर्सल बुक डिपो से रादुगा प्रकाशन और पीपुल्स पब्लिशिंग हाउस की किताबें हाथों-हाथ बिक जातीं। भारतीय लेखकों में भी ‘प्रगतिशील’ कथाकारों, कवियों का अव्वल नंबर था। उन दिनों वामपंथी या समाजवादी होना खुद को वैचारिक तौर पर बेहतर बताने-जताने का जरिया था। वह शीत युद्ध का दौर था और कोई नहीं जानता था कि वामपंथ के स्वर्ग सोवियत संघ में दरारें पड़ चुकी हैं।

बड़े किलों की दीवारें अपना खोखलापन नहीं दिखातीं, वे बस भरभराकर ढह जाती हैं। आप सोच रहे होंगे कि यह कहानी क्यों? बता दूं कि देश के सबसे बड़े वामपंथी दल माकपा में ‘करात-युग’ के खात्मे के बाद आज से नया दौर शुरू होने वाला है। इस दौर में पार्टी ने क्या खोया-क्या पाया, इसकी समीक्षा से पहले जरूरी है कि हम उस कालखंड को याद करें, जब प्रकाश करात पार्टी के अंत:पुर की सीढ़ियां तेजी से चढ़ रहे थे। हरकिशन सिंह सुरजीत उन दिनों माकपा के महासचिव बने थे। उनके पूर्ववर्ती ईएमएस नंबूदिरीपाद और पी सुंदरैया अपनी वैचारिक कठोरता को चेहरे पर चस्पां रखते थे। सुरजीत में पंजाब के किसानों की तरह खिलंदड़ापन था। वह बेहद खुशमिजाज और समकालीन नेताओं में हरदिल अजीज थे।

इसीलिए कॉमरेड सुरजीत अपने जीते जी ‘किंग मेकर’ बन गए। एक वक्त तो ऐसा आया, जब वह बंगाल के मुख्यमंत्री ज्योति बसु की दिल्ली के तख्त पर ताजपोशी करने वाले थे। कहते हैं, प्रकाश करात की अगुवाई में युवा कॉमरेडों का दल इसके खिलाफ था। इसी दबाव के चलते पार्टी ने देवेगौड़ा का समर्थन किया और वह सिंहासन पर जा विराजे। बाद में बसु महोदय ने इस फैसले को ‘ऐतिहासिक भूल’ बताया था। आज जब प्रकाश करात अपने तीन दौर का कार्यकाल पूरा कर विदा हो रहे हैं, तो इस मुद्दे के साथ उनके एक और निर्णय की समीक्षा जरूरी है। अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे पर उन्होंने आठ जुलाई, 2008 को मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापस ले लिया था। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री जब नई दिल्ली से जी-8 की बैठक में भाग लेने के लिए जापान को उड़े थे, तब वह बहुमत संपन्न सरकार के नेता थे। रास्ते में पत्रकार वार्ता के दौरान मैंने उनसे पूछा था कि आप अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज बुश से इस सिलसिले में बात करेंगे या नहीं?  सिंह का जवाब था कि हमने कदम बढ़ा दिए हैं और उम्मीद है कि हमारे साथी साथ रहेंगे। करात के लिए यह सीधी चुनौती थी।

हम लोग उस समय होटल में ‘सेटल’ ही हो रहे थे कि खबर आई कि मनमोहन सिंह अब अल्पमत सरकार के नेता हैं। वामपंथियों से कांग्रेस का पुराना नाता टूट गया था। हम सब जानते हैं कि कैसे अगले ही घंटे अमर सिंह ने समाजवादी पार्टी की ओर से सरकार के समर्थन की घोषणा की और मनमोहन सिंह के लिए अपना कार्यकाल पूरा करने का मार्ग प्रशस्त हो गया। प्रकाश करात के विरोधी मानते हैं कि अगर बसु प्रधानमंत्री बन गए होते,  तो देश में लाल झंडों का सैलाब उमड़ पड़ता। उनका यह भी कहना है कि मनमोहन सिंह सरकार से समर्थन वापसी उनकी दूसरी बड़ी भूल थी। अपने तर्क के समर्थन में वे आंकड़े पेश करते हैं। 2005 में जब प्रकाश महासचिव बने, तब लोकसभा में पार्टी के 43 सदस्य थे। कांग्रेस से अलगाव के अगले साल चुनाव हुए। 2009 में पार्टी को करारा झटका लगा और वह सिर्फ अपने 16 सदस्यों को निचले सदन में भेज सकी। 2014 में माकपा दहाई के नीचे आ गई।

अब उसके कुल जमा नौ सदस्य लोकसभा में हैं। यही नहीं, 2011 में पार्टी पश्चिम बंगाल में करीब 34 साल से चली आ रही हुकूमत गंवा बैठी और जो वामपंथी उस समय केरल में हुकूमत किया करते थे, विधानसभा चुनाव उनके लिए शिकस्त का सबब बनकर आया। इस समय माकपा सिर्फ त्रिपुरा जैसे छोटे प्रदेश की सत्ता में है। क्या सत्ता से इस महानिर्वासन के लिए सिर्फ करात जिम्मेदार हैं?  किसी व्यक्ति को दोष दे देना आसान होता है। प्रकाश करात ने सबसे कठिन दौर में पार्टी की बागडोर संभाली थी। उस समय तक सारे संसार में वामपंथ की चूलें हिल चुकी थीं। भारत के वामपंथी जानलेवा लू के इन थपेड़ों से खुद को कैसे बचा सकते थे? अगर कुछ बरस बाद करात के कार्यकाल का आकलन किया जाएगा, तो यकीनन विश्लेषकों को लगेगा कि ऐसे में सबसे जरूरी यह था कि सत्ता की बजाय विचारधारा की रक्षा की जाए। प्रकाश करात ने हर क्षण इसकी कोशिश की। बदलते वक्त से केवल विचार जूझ सकता है, सत्ताएं नहीं।

उन्होंने अल्पकालिक समझौते की बजाय दीर्घकालिक विकल्प को चुना। अब, जब दुनिया इंटरनेट के जरिये भौगोलिक दूरियों को तोड़ रही है, तब यह सवाल और बलवान हो गया है कि क्या एक विचार के तौर पर वामपंथ प्रासंगिक है? यूरोप के संकटग्रस्त देशों में वामपंथ की ओर फिर से रुझान बढ़ा है। ग्रीस का सत्ता परिवर्तन इसका उदाहरण है, पर अभी किसी निष्कर्ष पर पहुंचना जल्दबाजी होगी। हां, एक बार फिर अक्तूबर 1980 की रात की ओर लौटने की इजाजत चाहूंगा। मैंने उस रात उन दो नौजवानों से पूछा था कि आपका वामपंथ ‘विचार’ है या ‘सत्ता’ का जरिया? उन्होंने कहा था कि हम विचार के जरिये सत्ता का रास्ता तय करते हैं और सत्ता पाने के बाद भी अपने मत को पुख्ता बनाने का काम करते रहते हैं। माकपा के लिए सत्ता के धूल-धूसरित दुर्गों के बीच अपने विचार की प्रासंगिकता साबित करना कठिन है। करात इस संकट से जूझते रहे, अब नए नेतृत्व पर इससे पार पाने की जिम्मेदारी है। देश और दुनिया उन्हें उत्सुकता से देख रही है।
shashi.shekhar@livehindustan.com
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