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नवागत की कुंडली

जब नए में नया न मिला,  तो नवाचारी भैया जी निराश होकर कहने लगे कि इन कथित नयों के पास नए का टोटा है। हम भैया जी की इज्जत करते हैं। क्या कहें? कैसे समझाएं कि सर जी, नवाचार की दुंदुभी लाख बजाना,...

नवागत की कुंडली
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 18 Apr 2015 08:55 PM
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जब नए में नया न मिला,  तो नवाचारी भैया जी निराश होकर कहने लगे कि इन कथित नयों के पास नए का टोटा है। हम भैया जी की इज्जत करते हैं। क्या कहें? कैसे समझाएं कि सर जी, नवाचार की दुंदुभी लाख बजाना, लेकिन मूलत: आप सब नए के दुश्मन हैं और जब इतने दुश्मन हों, तब नया क्यों आए? हम तो अपने कॉलम में न जाने कब से हर सप्ताह समझाते रहते हैं कि नया सोचो- ‘आउट ऑफ बॉक्स।’ साहस करो। ऊल-जलूल ही करो, मगर कुछ करो कि सूनापन सिहरे। पुराना देखो, लेकिन नया लिखो। कुछ नहीं, तो कुछ देर नए ढंग से साहित्य के उपलब्ध शव-साधकों पर ही हंसो। लेकिन आपको तो जिस-तिस की शताब्दी एक्सप्रेस चलाने में मजा आता है। चलाते रहिए और तरसते रहिए नए को।

हमारा मानना है कि हंसी उड़ाकर ही नया शुरू होगा और आप हैं कि आपकी गोष्ठी में किसी के हंसने तक पर मुमानियत है। हंसी आपके लिए चीप है। हमारे लिए वह साहित्यिक साहस का नाम है। नए के लिए भी वही एक विकल्प है। कुछ नहीं, तो अपने इस नवाचार के चोले में छिपे पुजारीपन पर ही हंस लो। आपने नए का वध करने में कितनी मेहनत की? आप जैसों के जरिये साल दर साल युवा आलोचक खोजे जाते रहे। उनको एक गुजरे जमाने के आलोचक के नाम से सम्मानित भी किया जाता रहा। उन दिनों खबर दी जाती कि चयनकर्ताओं में ये, ये, ये थे और उन्होंने इस ‘नए निकोर समीक्षक’ को चुनकर साहित्य पर भारी एहसान किया है और खत्म होती आलोचना को बचा लिया है। चयन करते वक्त आप जैसे चीख-चीखकर कहते कि मिल गया, मिल गया, मिल गया।

ये देखो यह रहा एकदम नया आलोचक। इस बरस का नया इनामी युवा आलोचक। पिछले बरस की प्रशस्ति की नकल पर उसकी प्रशस्ति लिखी जाती। और जब किया-धरा पलटकर सामने आया, तो आप निराश हो रहे हैं। सरजी, आप जैसे ही तो इसे बनाने वाले रहे हैं। जब प्रशस्ति पढ़ रहे थे, तब क्या हुआ था? आपने ही बताया कि इन नए  समीक्षकों के पास नया कुछ भी नहीं है। बोले तो आपको पता चला कि इनकी ऊपर की मंजिल एकदम खाली है। न एक नया विचार, न कोई वैचारिक सख्ती, न पंगा लेने की प्रवृत्ति,और न रचनात्मक साहस। फिर भी हैं युवा आलोचक। आपने सबसे अलग बात यह बताई कि कहने को ये नए आलोचक हैं, लेकिन एकदम अपढ़ हैं, यानी कुपढ़ तक नहीं हैं।

आपको लगा कि उनमें से बहुत कम ने कृतियां पढ़ी हैं! और सब अपने समय की रचनाशीलता से असंतुष्ट हैं। आप जैसों ने ही उनको आलोचक बनाया। सम्मानित किया। अब आप ही उनमें कुछ नहीं देख पा रहे, तो इसमें उनका क्या कसूर? अगर बुरा न मानें, तो हम कुछ कहने की गुस्ताखी करें। इन इनामी आलोचकों में से एक-दो तो ऐसे भी हैं, जिनकी एमफिल का डिजर्टेशन इसीलिए छपवाया गया कि उसे इनाम दिया जा सके। उस कमबख्त बरस में कोई पक्का चेला मिला ही नहीं, जिसे यह इनाम देते, इसलिए जैसे-तैसे उसका डिजर्टेशन छपवाया गया, ताकि इनाम की इज्जत बची रहे। जो जिस-तिस से पूछकर जिस-तिस की पुस्तक समीक्षा करता आया है, उसे भी इनाम लायक समझा गया। काश! हिंदी में अंग्रेजी की तरह ‘नकल’ पकड़ने वाला कोई ‘सॉफ्टवेयर’ होता, तो बताता कि हमारे इन इनामी आलोचकों के लिखे में कितना-कितना कहां-कहां से मारा हुआ है। महाराज जी! जो चल रहा है चलने दो और हमें अपने हिस्से का मजा लेने दो।

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