पुरुषार्थी बनें
संसार में हर वस्तु का कोई न कोई उपयोग और अर्थ होता है, कोई भी चीज बेकार नहीं। मगर सार्थकता की खोज आसान नहीं होती। भारत में इस क्षेत्र में कई प्रयोग हुए हैं। यहां सूत्रों और इशारों में बातें समझाई गई...
संसार में हर वस्तु का कोई न कोई उपयोग और अर्थ होता है, कोई भी चीज बेकार नहीं। मगर सार्थकता की खोज आसान नहीं होती। भारत में इस क्षेत्र में कई प्रयोग हुए हैं। यहां सूत्रों और इशारों में बातें समझाई गई हैं। पाणिनि के व्याकरण के नियम सूत्रों में हैं, वेदों और उपनिषदों में संकेतों की भरमार है।
मनुष्य के लिए पुरुषार्थों की बात की गई है। चार पुरुषार्थ गिनाए गए हैं- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष। ये सभी पुरुषार्थ जब मिलकर काम करते हैं, तो मनुष्य जीवन सार्थक दिखता है। केवल धर्म, केवल अर्थ या धन, केवल काम और केवल मोक्ष एकांगी है। पहले हमें पाने का अभ्यास करना है, फिर उसे बचाना है, क्योंकि जीवन में योग और क्षेम, दोनों चाहिए। गीता में कहा गया है- योगक्षेमं वहाम्यहम्। जब बचेगा, तभी हम उसे संसार के लिए बांट पाएंगे। बांटेंगे, तभी मुक्त भी होंगे। यही सच्चा मोक्ष होगा। धर्म आंतरिक शुद्धि की प्रक्रिया है, धन हमारी बाहर की ओर खुलने वाली इंद्रियों को सुख देता है। काम है सृष्टि का संचालक। यह उस नदी की तरह है, जो बंधी है तो कल्याणकारी है, बांध तोड़ती है, तो विनाशक बन जाती है। मोक्ष है, छोड़ने की तैयारी। सिर्फ छोड़ना नहीं, सब कुछ पाकर छोड़ना। जीवन यूं भी छोड़ने का अभ्यास हैं। माता-पिता, संगी-साथी, मित्र-शत्रु सभी एक-एक करके विदा हो जाते हैं। इंद्रियां बेकाम और शिथिल। सब लुका-छिपी के खेल की तरह होता है।
रवींद्रनाथ टैगोर कहते हैं- आज धानेर खेते रौद्र छायाय/ लूको-चुरीर खैला रे। चलो प्रिय, आज हम धान के खेतों में लुका-छिपी का खेल खेलें। जीवन के इस खेल की हार-जीत में ही जीवन-रस छिपा हुआ है।