धरती की देन
कवि पंत के मुख से मैंने एक कविता सुनी थी- यह धरती हमें कितना देती है? इसमें कवि ने बालपन में एक सिक्का जमीन में रोपा, तो पैसों का वृक्ष नहीं निकला, मगर जब उसने सेम का एक बीज धरती में बो दिया,...
कवि पंत के मुख से मैंने एक कविता सुनी थी- यह धरती हमें कितना देती है? इसमें कवि ने बालपन में एक सिक्का जमीन में रोपा, तो पैसों का वृक्ष नहीं निकला, मगर जब उसने सेम का एक बीज धरती में बो दिया, तो सभी ओर सेम की फलियां झूम गईं। इतनी फली-फूलीं कि मुहल्ले भर में बटीं, पर खत्म नहीं हुईं।
धरती के कई नाम हैं। यह धरा है, धारण करती है। सर्वसहा है, सब सहती है। रसा यानी रसमयी है। पृथ्वी हमारे शरीर और ब्रह्मांड का एक प्रमुख तत्व है, जिसे पंच तत्वों में गिना गया है। कवि नेपाली के शब्द हैं- व्योम नीर धूल हूं, आग हूं बयार हूं। पांच तार का बना प्यार का सितार हूं। तुलसी ने इसे पंच तत्वों में ‘क्षिति’ कहकर पहला स्थान दिया है। ऋग्वेद में पृथ्वी भूमि और विस्तार के अर्थ में है। इसे देवी तथा गौ भी कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में पृथ्वी समुद्र की मेखला धारण करती है। शतपथ इसे ‘प्रथम सृष्टि’ कहता है, तो अथर्ववेद के ‘पृथ्वी सूक्त’ में पृथ्वी को माता और मनुष्यों को पुत्र कहा गया है।
पृथ्वी के दान की शक्ति मनुष्य का भी गुण है। चुनौतियों के बीच आदमी को जीना है, अपना धन और मन बांटते रहना है। गीता के अनुसार- मनुष्य का जब पुण्य समाप्त हो जाता है, तो उसे फिर पृथ्वी पर लौटना पड़ता है- क्षीणे पुण्ये मत्र्यलोकं विशन्ति। पृथ्वी हमें पुण्य का संचय करना सिखाती है। उसकी सीख है विस्तार। एक से अनेक होने की कला। ‘फर्टिलिटी मिथ’ में बीज मिट्टी में जाकर महावृक्ष का रूप ले लेता है। यह परिणति ही पृथ्वी का गुण है, जो हमें भी पूरी तरह से बदलकर नए सांचे में ढाल देती है।
महेंद्र मधुकर