जरा सुन तो लो
उसे बहुत देर से मंडराते हुए देख रहे थे। शायद कुछ कहना चाहता है। काम का बोझ कुछ कम हुआ, तो उसे इशारे से बुलाया। अभी एक-दो लाइन ही बोल पाया था कि उन्होंने टोक दिया और देर तक भाषण पिलाते...
उसे बहुत देर से मंडराते हुए देख रहे थे। शायद कुछ कहना चाहता है। काम का बोझ कुछ कम हुआ, तो उसे इशारे से बुलाया। अभी एक-दो लाइन ही बोल पाया था कि उन्होंने टोक दिया और देर तक भाषण पिलाते रहे।
‘अगर कोई हमें अपने दुख-सुख बता रहा हो, तो उसे ठीक से सुनना चाहिए। खट से सलाह देने पर नहीं उतर आना चाहिए।’ यह मानना है डॉ. एलिजाबेथ डॉरेंस हॉल का। वह कम्युनिकेशन एक्सपर्ट हैं। यूटा यूनिवर्सिटी में कम्युनिकेशन स्टडीज की प्रोफसर और फैमिली कम्युनिकेशन ऐंड रिलेशनशिप की डायरेक्टर हैं। उनकी बेहतरीन किताब है, कॉन्शस कम्युनिकेशन: मीनिंगफुल कम्युनिकेशन इन रिलेशनशिप्स।
सुनना सचमुच मुश्किल होता है। कोई कुछ कहता है और हमारा मन अपनी बात कहने को मचलने लगता है। हम थोड़ा-बहुत सुनते हैं और बहुत ज्यादा समझते हैं। और जब समझ जाते हैं, तो फिर किसी की सुनकर क्या करना? हम उसे अपने अनुभव का घोल पिलाने लग जाते हैं। अब वह उसे पचे या नहीं? हम तो शुरू हुए, तो हुए।
दरअसल, हम सुनना ही नहीं चाहते। सुनने में खासा धीरज की जरूरत होती है। सुनाने में तो हम एक किस्म के फॉर्मूले पर चल पड़ते हैं। सुनने में अक्सर उस फॉर्मूले से अलग सोचने की जरूरत होती है। हमें सचमुच मदद करनी है, तो पहले उसे ठीक से सुन लेना चाहिए। सुनने से होता यह है कि हम उसकी जरूरत को समझते हैं। वह कहां अटक रहा है, यह जानते हैं। उसे वहां से निकालने की कोशिश कायदे से सुनकर ही हो सकती है। हम सुनें, सोचें, फिर सुझाव दें। कभी-कभी किसी को सिर्फ सुनने की जरूरत होती है। बाकी सब अपने आप हो जाता है।