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गायब नहीं होंगे एमएच 370 जैसे विमान, आई नई तकनीक

कुआलालंपुर से बीजिंग जा रहे मलेशियाई विमान एमएच 370 को क्रैश हुए तीन साल बीत चुके हैं। रडार की रेंज से बाहर होने के कारण यह विमान अपने तय रास्ते से भटक गया था। सर्च ऑपरेशन में 1000 करोड़ रुपए से अधिक...

गायब नहीं होंगे एमएच 370 जैसे विमान, आई नई तकनीक
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 28 Mar 2017 02:05 PM
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कुआलालंपुर से बीजिंग जा रहे मलेशियाई विमान एमएच 370 को क्रैश हुए तीन साल बीत चुके हैं। रडार की रेंज से बाहर होने के कारण यह विमान अपने तय रास्ते से भटक गया था। सर्च ऑपरेशन में 1000 करोड़ रुपए से अधिक खर्च करने के बावजूद यह विमान हिंद महासागर में कहां और कैसे क्रैश हुआ, इसका पता नहीं चल सका। सिर्फ एमएच 370 ही नहीं बल्कि पैन एएम फ्लाइट 7 और फ्लाइंग टाइगर लाइन फ्लाइट 739 जैसे दर्जनों हवाई जहाज रडार की पहुंच से दूर होने के कारण लापता हो गए जिनका कोई सुराग नहीं मिला। लेकिन अब ऐसा नहीं होगा। अमेरिकी सैटेलाइट कम्युनिकेशन कंपनी इरिडियम के ‘एयरॉन सैटेलाइट’ जल्द ही दुनियाभर के सभी विमानों की निगरानी करेंगे, जिससे रडार के रेंज से बाहर के हवाई जहाज भी गायब नहीं होंगे। जानते हैं इनके बारे में। 

इस साल जनवरी में अमेरिकी सैटेलाइट कम्युनिकेशन कंपनी इरिडियम के 10 ‘एयरॉन’ उपग्रहों को स्पेसएक्स के फाल्कन 9 रॉकेट ने सफलता पूर्वक अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया। इनमें से दो ‘एयरॉन’ उपग्रहों ने पृथ्वी पर डाटा भेजना शुरू भी कर दिया है। ऐसा पहली बार हुआ है जब ‘एयरॉन उपग्रह नेटवर्क ट्रैकिंग सिस्टम’ ने दुनियाभर के हवाई जहाजों को ट्रैक किया, चाहे वे समतल जमीन, समुद्र या पहाड़ के ऊपर उड़ान भर रहे हों। इस ट्रैकिंग सिस्टम ने 62 घंटों में 17 हजार विमानों के मार्गों का सटीक पता लगाया। इनमें रडार की पहुंच से दूर समुद्र और ध्रुवों के ऊपर उड़ान भरने वाले विमानों के लोकेशन का सही-सही पता लगाया गया जो एयर ट्रैफिक कंट्रोल की मौजूदा तकनीक द्वारा मुमकिन नहीं था। 2018 तक इरिडियम कुल 66 एयरॉन उपग्रह प्रक्षेपित करेगी। हालांकि विमानों को ट्रैक करने का एयरॉन उपग्रहों का यह नेटवर्क 2019 की शुरुआत में पूरी तरह काम करने में सक्षम हो पाएगा।

समुद्र के ऊपर विमानों का पता लगाना मुश्किल
विमानों के लोकेशन को जानने के लिए रडार रेडियो तरंगों के पिंग्स (एक प्रकार की ध्वनि) भेजता है और विमानों से उनके टकराकर वापस आने के समय को माप कर उनकी लोकेशन का पता लगाता है। लेकिन रडार विमानों का पता तभी लगा सकता है जब वे उसकी रेंज में हों। रडार की अधिकतम रेंज समुद्र के भीतर तकरीबन 200 मील यानी 321 किमी तक होती है। इससे अधिक दूरी होने पर रडार विमान का पता नहीं लगा पाते। यही कारण है कि हिंद और प्रशांत महासागर जैसे समुद्री मार्गों के ऊपर उड़ान भर रहे विमानों की लोकेशन का सही पता एयर ट्रैफिक कंट्रोल को नहीं होता है। वे फ्लाइट प्लान और पायलट द्वारा भेजे गए रिपोर्ट के आधार पर हवाई जहाज की लोकेशन का सिर्फ अंदाजा लगा सकते हैं। विमान का पायलट जीपीएस के माध्यम से एयर ट्रैफिक कंट्रोल के सीधे संपर्क में होता है। हालांकि फ्लाइट प्लान और विमान के असली लोकेशन में अक्सर भिन्नता होती है। समुद्र के ऊपर विमान बिल्कुल ‘ब्लाइंड स्पॉट’ में होता है। इसी वजह से दुर्घटना की स्थिति में विमान के लोकेशन का सही पता नहीं चल पाता है।  

ऐसे करेगा काम 
पिछले 15 वर्षों से उड़ान भर रहे विमानों की लोकेशन जानने के लिए एयर ट्रैफिक कंट्रोल ऑटोमेटिक डिपेंडेंट सर्विलांस ब्रॉडकास्ट(एडीएस-बी) रिसीवर का इस्तेमाल कर रहा है। यह जीपीएस के माध्यम से विमानों की लोकेशन को ट्रैक करता है और उसे एयर ट्रैफिक कंट्रोल को भेज देता है। एक छोटे फ्रिज के आकार का होने के कारण इन्हें आसानी से दूरस्थ क्षेत्रों में भी लगाया जा सकता है। लेकिन जमीन पर स्थित होने और पहाड़ आदि रुकावटों के कारण इनकी रेंज भी रडार की तरह कम ही होती है। एडीएस-बी की रेंज 28 हजार फीट की ऊंचाई पर केवल 250 नॉटिकल मील ही होती है। इस समस्या से निपटने के लिए एडीएस-बी रिसीवर को एयरॉन उपग्रह पर फिट किया गया है। इससे यह दुनियाभर में कहीं भी उड़ान भर रहे विमानों को ट्रैक करने में सक्षम है। भविष्य में एयरॉन के 66 उपग्रह विमानों की लोकेशन का डाटा इकट्ठा कर उसे पृथ्वी पर एयर ट्रैफिक कंट्रोल को भेजेंगे। उपग्रह से पृथ्वी पर डाटा को पहुंचने में दो सेकेंड का वक्त लगेगा।

विमान क्रैश का कारण जानने में मदद मिलेगी
एयरॉन उपग्रह दुनियाभर के विमानों की गति, उनकी पोजीशन, लोकेशन और ऊंचाई को लगातार ट्रैक करेंगे। इससे हवाई दुर्घटनाएं पूरी तरह रोकने में तो मदद नहीं मिलेगी, लेकिन इससे हादसा होने की स्थिति में दुर्घटना स्थल की सटीक जानकारी जरूर मिल सकेगी। साथ ही क्रैश हुए विमान का ब्लैक बॉक्स खोजने में भी आसानी होगी, जिससे विमान क्रैश होने की वजहों का पता चल सकेगा। इसके अलावा उपग्रह आधारित ट्रैकिंग सिस्टम से विमान एक जगह से दूसरे जगह जाने के लिए सीधे रूटों पर चल सकेंगे। इससे यात्रा की दूरी तो घटेगी ही समय के साथ ईंधन की भी कम खपत होगी। इस तकनीक से भीड़भाड़ वाले मार्गों पर अधिक विमानों का परिचालन संभव हो सकेगा, क्योंकि एक विमान दूसरे विमान के ज्यादा नजदीक से सुरक्षित आवागमन कर सकेगा। अभी समुद्र के ऊपर उड़ान भरते हुए एक विमान को दूसरे विमान से कम से कम 80 नॉटिकल मील की दूरी और 1000 फीट ऊंचाई बरकरार रखनी होता है जो इस तकनीक की मदद से घटकर 15 नॉटिकल मील रह जाएगी। 

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