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पच्चीस साल की उम्मीदें-नाउम्मीदें

हम जैसे अति साधारण इंसानों के जीवन में भी ऐसे नायाब अवसर आते हैं, जब ऐतिहासिक घटनाएं आकार ले रही होती हैं और हम उनके साक्षी बन जाते हैं। यह बात अलग है कि विरले ही उन क्षणों को पहचानने में कामयाब हो...

पच्चीस साल की उम्मीदें-नाउम्मीदें
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 27 Jun 2016 03:34 PM
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हम जैसे अति साधारण इंसानों के जीवन में भी ऐसे नायाब अवसर आते हैं, जब ऐतिहासिक घटनाएं आकार ले रही होती हैं और हम उनके साक्षी बन जाते हैं। यह बात अलग है कि विरले ही उन क्षणों को पहचानने में कामयाब हो पाते हैं। मेरा शुमार उन लोगों में है, जो इतिहास बनाने वाले पलों को समय रहते पहचान नहीं पाते। तफसील से बताता हूं। वह जर्मनी के शहर बॉन की ढलती दोपहर थी। यूरोप का नवंबर बर्फीले तूफानों और बेहद सर्द दिनों का आभास देता है। भारतीय अर्थव्यवस्था पर तो उन दिनों पहले से ही पाला पड़ा हुआ था। उसी साल की जनवरी में तत्कालीन प्रधानमंत्री चंद्रशेखर ने देश की विदेशी मुद्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सोना गिरवी रखा था।

उस समय देश के पास सिर्फ तीन हफ्ते के आयात लायक विदेशी मुद्रा रह बची थी। ढलते सोवियत संघ की तरह भारतीय राष्ट्र-राज्य भी कंपकंपाती दीवारों वाले जर्जर राजमहल की तरह लग रहा था। आशंकाओं के अंधियारों से घिरे गरमियों के मौसम में चुनाव हुए थे। चुनावी प्रचार में 21 मई की रात को श्रीपेरुंबुदूर में राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी। राजीव उन दिनों सत्ता में वापसी की लड़ाई लड़ रहे थे। बहुत लोगों को उम्मीद थी कि वही सरकार बनाएंगे। उनकी हत्या डगमगाती अर्थव्यवस्था और भ्रष्टाचार से बजबजाती राजनीतिक प्रणाली को एक और झटका थी। अपने राजनीतिक वार्धक्य की ओर बढ़ रहे नरसिंह राव को इन चुनावों ने संजीवनी दे दी थी और किस्मत ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुरसी पर ला बैठाया था।

हम उन्हीं के पहले राजकीय दौरे के साथी थे और उस समय बॉन के एक होटल में महाकाय बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दिग्गजों के साथ राव साहब की गुफ्तगू को कवर कर रहे थे। नरसिंह राव बेहद विद्वान और तत्वदर्शी थे। ईश्वर ने उन्हें सामान्य कद-काठी का बनाया था। ऐसी ही कद-काठी के मोहनदास करमचंद गांधी भी थे, पर वह अपने सहज व्यंग्य-विनोद और वाक्पटुता के सहारे श्रोताओं के समूह को जीतने की शक्ति रखते थे। राव हमेशा धीर-गंभीर बने रहते थे। यही वजह थी कि वह बातचीत बोझिल लग रही थी। उसी दौरान बहुराष्ट्रीय कंपनी के एक आला अधिशासी ने पूछा कि आपके यहां नौकरशाही का वर्चस्व है और ऊपर से बहुत सारा ‘पेपर-वर्क’। भारत में काम करना हमारे लिए बेहद मुश्किल है।

नरसिंह राव का जवाब था कि पूरी दुनिया में पर्यावरणीय असंतुलन के खतरे बढ़ रहे हैं और कागज की कमी होती जा रही है। हम भी कागज के प्रयोग में कटौती कर रहे हैं। आप आइए, आपका स्वागत है। यही बात अगर राजीव गांधी या नरेंद्र मोदी ने कही होती, तो लोग खिलखिला पड़ते, पर वातावरण जस का तस बना रहा। हम पत्रकारों को उम्मीद न थी कि राव सफल होंगे। हम गलत थे। यह बुजुर्ग राजनेता आने वाले सालों में इतिहास गढ़ने जा रहा था। वह लम्हा इसकी एक शुरुआत थी।

राव के प्रधानमंत्री बनने से कुछ पहले तक भारत में विदेशी मुद्रा भंडार 1.2 अरब डॉलर रह गया था, जो आज 361 अरब के आसपास है। उस समय देश की अर्थव्यवस्था करीब 13.5 लाख करोड़ रुपये की थी, जो आज 113.5 लाख करोड़ रुपये की हो गई है। 1991 में भारत की प्रतिव्यक्ति आय 11,535 रुपये सालाना थी, जो आज बढ़कर 77,431 रुपये हो गई है। यही नहीं, तकनीक के विकास ने मोबाइल फोन धारकों का आंकड़ा एक अरब  तक पहुंचा दिया है। भारत में करीब 45 करोड़ लोग आज इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। 

मैं आपको आंकड़ों के मायाजाल में नहीं उलझाना चाहता। उदारीकरण के समर्थन के नाम पर राजनेता अक्सर इनका उपयोग आम आदमी को भरमाने के लिए करते हैं। विकास के नाम पर वोट मांगने वाले सियासी सूरमा अक्सर यह जताने की कोशिश करते हैं कि हम जन्नत की ओर बढ़ रहे हैं। गरीबी कम हो रही है, मध्यम वर्ग बढ़ रहा है। इस वर्ग का बढ़ना इसलिए शुभ संकेत है, क्योंकि यही वर्ग पूरी दुनिया के पैमाने पर विकास करता आया है, मगर टांय-टांय फिस्स तब हो जाती है, जब हम सरकार द्वारा जारी आंकड़ों को गहराई से देख यह जान पाते हैं कि 32 रुपये प्रतिदिन कमाने वाला ग्रामीण व्यक्ति लुटियंस दिल्ली में बैठे इन महारथियों की नजर में गरीब नहीं है।

पिछली 15वीं लोकसभा में हम इस मुद्दे पर गरमागरम बहस सुन चुके हैं। तब हमारे तमाम माननीय सांसदों ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में 47 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा किया जा सकता है। ये वे लोग हैं, जिनके वेतन और भत्तों में 1991 से लेकर अब तक कई गुना बढ़ोतरी हुई है। इन्हीं पर आम आदमी को रोटी, कपड़ा और मकान मुहैया कराने की जिम्मेदारी है। इसीलिए वे पूरी जिम्मेदारी के साथ यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि 50 रुपये से कम में भी हर रोज गुजारा किया जा सकता है। यह एक दुखद सच है कि उदारीकरण की एक-चौथाई सदी बीत जाने के बाद भी हमारे देश में 36 करोड़, 30 लाख लोग दो जून की रोटी के बिना सोते हैं और उसी के सपने लेकर जागते हैं।

17 लाख बच्चे स्कूल का मुंह नहीं देख पाते और लाखों लड़कियों को अपने गांवों के आसपास विद्यालय न होने की स्थिति में पढ़ाई को हमेशा के लिए अलविदा कहना पड़ता है। अत्याधुनिक सुविधाओं से लकदक रांची के बिरसा मुंडा हवाई अड्डे से जब मैं लोहरदगा की ओर चला, तो महानगर पार करते ही बॉन की वह दोपहर और उसके बाद भारत-भारतीयों का सफर सिर पर हथौडे़ की तरह बजने लगा। ‘मार्केटिंग’ और ‘पैकेजिंग’ के इस वक्त में हम बिरसा मुंडा के नाम पर हवाई अड्डा तो बना देते हैं, पर उनकी संतानों के जीने, पनपने और विकास पथ पर अग्रसर होने के रास्ते नहीं बनाते। सड़क के दोनों ओर पसरे गांवों में सिर्फ एक धोती पहने महिलाएं, अधनंगे बच्चे और जीर्ण-शीर्ण नौजवान आंकड़ों के अद्र्धसत्य की पोल खोल रहे थे।

बगल में बैठे मेरे सहयोगी दिनेश मिश्रा ने मुझे अनमना देखकर शायद बात छेड़ने की गरज से कहा कि यहां से ‘नक्सली बेल्ट’ शुरू होती है। मैं हर तरह की हिंसा के खिलाफ हूं और इस नाते माओवादियों को भी हथियार छोड़ने के लिए कहता आया हूं, लेकिन उनके अपने तर्क हैं। विकास के नाम पर जल, जंगल और जमीन कब्जाए जा रहे हैं और सदियों से इनकी शरण में रह रही इनकी संतानों की सुध नहीं ली जा रही। ऐसे में, मन में यह सवाल उठना लाजिमी है कि 1991 से शुरू हुआ यह सफर अभी कहां तक पहुंचा है और इसे अपने मकसद में कामयाब होने के लिए कहां तक पहुंचना है? हम सिर्फ इस आंकड़े से खुश नहीं हो सकते कि क्रय शक्ति (परचेजिंग पावर) के हिसाब से भारत दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गया है।

दुनिया में जीडीपी के आधार पर हम सातवें नंबर पर हैं। साल 2025 तक इसमें और सुधार का भरोसा अर्थशास्त्री जताते हैं। वे कुछ भी कहें, पर सच यह है कि आज भी हजारों लोगों को कंद-मूल खाकर जिंदा रहने का अभिशाप ढोना पड़ता है। ऐसे लोग जिंदगी जीते नहीं,  उसे ढोते हैं। उम्मीद है, उदारीकरण के समर्थक ‘उदार’ लोगों की नजर इन पर भी जाएगी। 
@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

 

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