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विजय पर्व पर वीरों की चिंता

ऐतिहासिक घटनाएं ऐसी किताब की तरह होती हैं, जिन्हें जितना पढ़िए, सत्य के उतने चेहरे सामने आते जाते हैं। यह फॉर्मूला इंसानों, समाजों, देशों और समूची दुनिया पर समान रूप से लागू होता है। इनकी अनदेखी भारी...

विजय पर्व पर वीरों की चिंता
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 23 Jul 2016 11:16 PM
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ऐतिहासिक घटनाएं ऐसी किताब की तरह होती हैं, जिन्हें जितना पढ़िए, सत्य के उतने चेहरे सामने आते जाते हैं। यह फॉर्मूला इंसानों, समाजों, देशों और समूची दुनिया पर समान रूप से लागू होता है। इनकी अनदेखी भारी पड़ सकती है।
कारगिल युद्ध ऐसी ही ऐतिहासिक घटना है।
हमारी पीढ़ी के लोगों ने 1965 और 1971 की जंग देखी है, पर उन दिनों हम बहुत छोटे थे। चेतना आकार ग्रहण कर रही थी और उसे तर्क की ताकत हासिल नहीं हुई थी। नौजवान भारत, जिसमें 70 फीसदी से अधिक लोग 35 साल से कम के हैं, उनके लिए तो ये युद्ध उन पौराणिक आख्यानों की तरह हैं, जिन्हें उन्होंने बड़े-बूढ़ों के मुंह से सुना भर है। 1999 का कारगिल युद्ध इसलिए अधिक महत्वपूर्ण माना जाएगा, क्योंकि इसे नई पीढ़ी ने देखा और महसूस किया। ‘ऑपरेशन विजय’ ने अगर हमें आत्मविश्वास दिया, तो बहुत से जख्म और सवाल अपने पीछे छोड़े। इस 26 जुलाई को हम 18वां ‘विजय दिवस’ मनाएंगे, पर इस जीत से उपजे प्रश्नों के घाव अश्वत्थामा की चोटिल देह की तरह अभी तक रिस रहे हैं।

यह ठीक है कि 1965 और 1971 की जंग के दौरान पूरा देश उन्माद से नहा उठा था। सैनिकों को देखते ही भीड़ जोशीले नारे लगाती हुई उमड़ पड़ती। महिलाएं खाना बनाकर रखतीं, ताकि उन ‘भाइयों’ से मुलाकात होने की स्थिति में वे उनके पेट भरने का इंतजाम कर खुद को कृतार्थ महसूस कर सकें, जो देश के साथ ‘हमारी’ रक्षा करने के लिए मोर्चे पर जा रहे हैं। कारगिल के दौरान ऐसा कम देखने को मिला। वजह? टेलीविजन की आमद ने इस लड़ाई को घर-घर तक पहुंचा दिया था। साथ ही सैनिकों के आवागमन के तरीके बदल गए थे।

आप सोच रहे होंगे कि मैंने बार-बार 1965 और 1971 का जिक्र किया, पर 1962 की भारत-चीन लड़ाई को भूल गया। क्या इसलिए कि 1965 और 1971 में हम विजयी रहे थे और 1962 में चीन ने हमें बुरी तरह मात दे दी थी? ऐसा नहीं है। मैं कारगिल की जंग को 1962 की पराजय से जोड़ने की इजाजत चाहूंगा।

उन दिनों देश पर जवाहरलाल नेहरू की हुकूमत हुआ करती थी। वह एक भावुक स्वप्नजीवी थे। पंडित जी खुशहाली, भाईचारे के सपने तो देखते, पर उनके हसीन ख्वाबों में कभी नहीं आया कि कम्युनिस्ट चीन उन पर हमला बोल सकता है। इसीलिए जब लाल सेना ने हम पर चढ़ाई की, तो समूची सरकार सकपका गई। हुकूमत, फौज और खुफिया-तंत्र की विफलता की यह युद्ध अभूतपूर्व मिसाल है। चीनी हमें धकेलते हुए 20 किलोमीटर अंदर तक घुस आए। भारतीय संसद के सर्वसम्मत संकल्प के बावजूद आज भी 38,000 वर्ग किलोमीटर भूभाग पर उनका कब्जा है।

उस समय के युद्ध-वृत्तांत बताते हैं कि जिन जनरल बी एन कौल को उत्तर-पूर्वी मोरचे की जिम्मेदारी सौंपी गई थी, वह नाजुक वक्त में छुट्टी पर दिल्ली चले आए थे। सैनिकों के पास जूते, जाड़े के लिए जरूरी कपड़े और हथियारों का अभाव था। ऊपर से नेतृत्व का ऊहापोह। हमने जैसे शत्रु के सामने उन्हें कटने और मरने के लिए छोड़ दिया। वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर की मानें, तो हालात बेखबरी के थे। चीन के एकतरफा युद्ध विराम की जानकारी पंडित नेहरू को सुबह स्टेट्समैन अखबार पढ़कर मिली थी।
बरसों बाद चुशूल के पास कुमाऊं रेजीमेंट के शहीद स्मारक को भीगी आंखों से निहारते हुए मुझे वे तमाम कहानियां याद आ गईं, जो बचपन में पढ़ी-सुनी थीं। हमारे जवान सभी मोरचों पर शरीर भेदती गोलियों की परवाह किए बिना रक्त की अंतिम बूंद तक लड़े। कुमाऊं के अमर शहीद उन्हीं में से थे। मेरे आंसू उनकी बेबसी पर छलक रहे थे। वे उस देश के लिए मरे, जिसने उन्हें कटने-खपने के लिए छोड़ दिया था। हमने उस ग्लानि, पराजय और पीड़ा से कुछ नहीं सीखा।

सीखा होता, तो कारगिल में वही कहानी दोहराई नहीं गई होती। 1999 में भी हमलावर भारतीय सीमा में घुस आए, हम बेखबर बने रहे। तीन चरवाहों ने हथियारबंद लोगों को देखा और फौज को जानकारी दी। तारीख थी तीन मई, 1999। करीब दस दिन बाद भारतीय जवान गश्त पर काकसर पहुंचे, तो पाकिस्तानी फौज ने उन्हें बंदी बनाकर वहशियाना तरीके से जिबह कर डाला। इस बीच द्रास और मश्कोह से भी ऐसी ही खबरें मिलने लगीं। इस जंग में 527 भारतीय फौजी शहीद हुए और 1,000 से ज्यादा घायल हो गए।

सवाल उठता है कि समय रहते घुसपैठ की जानकारी सेना और गुप्तचर एजेंसियों को क्यों नहीं मिली? चरवाहों से सूचना मिलने के बाद भी घुसपैठियों का प्रतिकार करने में अपेक्षित तेजी क्यों नहीं दिखाई गई? 1984 में भारतीय फौजों ने इसी तरह मौसम का लाभ उठाकर सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण सियाचिन ग्लेश्यिर पर कब्जा जमा लिया था। हमारे रणनीतिकारों ने क्यों नहीं सोचा कि पाकिस्तान बदले में कारगिल में यही सब कर सकता है?

1962 में यह साफ हो गया था कि हमारी फौज इतनी ऊंचाई पर लड़ने के लिए न तो प्रशिक्षित है, और न उसके पास जरूरी साज-ओ-सामान हैं। कारगिल में वही परेशानियां फिर से जानलेवा साबित हुईं। इन 37 सालों में इतनी हुकूमतें आईं और चली गईं, पर उनमें से किसी ने उस पराजय से सबक लेने की कोशिश क्यों नहीं की? इतिहास से सीख न लेना भारतीयों का सबसे बड़ा दुर्गुण है। ईसा से 326 साल पहले सिकंदर आया था और 1962 में चीनी। हम अधिकतर लड़ाइयां इसी कुटेव की वजह से हारे। यह सिलसिला कब खत्म होगा?

पिछले हफ्ते खबर आई कि दिल्ली की तत्कालीन हुकूमत ने इस दौरान वायुसेना को पाकिस्तान पर हमले के आदेश जारी किए थे। निशाने तय कर लिए गए थे। लड़ाकू विमान तैयार थे। पायलट जरूरी निर्देश प्राप्त कर चुके थे। उन्हें पाकिस्तानी मुद्राएं तक दे दी गई थीं। वे अपनी ‘रिवॉल्वर्स’ लोड कर तड़के ही हवाई अड्डे पहुंच गए, पर उन्हें ‘गो अहेड’ नहीं मिला। दोपहर 12 बजे तक अधीर इंतजार के बाद वे लौट गए। सवाल उठता है कि 1965 के लाल बहादुर शास्त्री और 1971 की इंदिरा गांधी की तरह अटल बिहारी वाजपेयी सेना को सीमा पार करने का हुक्म क्यों नहीं दे सके? जनरल परवेज मुशर्रफ का दावा है कि यह जानकारी मिलते ही पाकिस्तान ने जवाबी हमले की सारी तैयारी कर ली थी, इसलिए भारत की हिम्मत टूट गई। मेरा मन मुशर्रफ की बात पर यकीन करने का नहीं होता, पर यह सवाल जरूर सालता है कि हमने इस मौके का लाभ उठाकर सीमा क्यों नहीं लांघी? क्यों नहीं एक बार फिर पाकिस्तान को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया?

ऐसा हमारी सामरिक क्षमता में कमी की वजह से हुआ या फिर हुकूमत साहस नहीं संजो सकी?
जो हो, पर कारगिल युद्ध के 17 साल बीतने के बावजूद जब ऐसी खबरें उड़ती हैं कि सेना के पास अब भी जरूरी संसाधनों का अभाव है, तो दुख होना स्वाभाविक है। इसीलिए मुझे हर ‘विजय दिवस’ पर खुशी से ज्यादा उन नौजवानों की चिंता होती है, जो आज भी देश की रक्षा के लिए लहू बहा रहे हैं।
हम उनके रक्त का मोल कब समझेंगे?

@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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