मुंहजोर नहीं पर मुंहचोर तो मत बनिए
उत्तर भारत के कस्बाई शहर से नोएडा आ बसी एक गृहस्थिन उस दिन बेहद परेशान थी। दिक्कत का कारण कुल-परंपरा से जुड़ा था। अपने शहर में बचपन से वह देखती आई थी- हर नवरात्र की नवमी की सुबह उसके घर तमाम...
उत्तर भारत के कस्बाई शहर से नोएडा आ बसी एक गृहस्थिन उस दिन बेहद परेशान थी। दिक्कत का कारण कुल-परंपरा से जुड़ा था। अपने शहर में बचपन से वह देखती आई थी- हर नवरात्र की नवमी की सुबह उसके घर तमाम ‘कन्या’ और ‘लंगूर’ आ जुटते। उन्हें छककर भोजन कराया जाता, दक्षिणा दी जाती और चलते-चलते यदि ‘कन्या’ और ‘लंगूर’ में से कोई एक-दो कुछ मांग रख देते, तो उसके माता-पिता सहर्ष उसे पूरा करते। ‘कन्या’ और ‘लंगूर’? आप सकते में होंगे। छोटी बच्चियों के साथ लंगूरों को जिमाने का भला कोई रिवाज हुआ? संशय दूर करें। हिंदी पट्टी के खास भू-भाग में इस अवसर पर कन्या आदि शक्ति, तो लंगूर हनुमान के प्रतीक होते हैं। उन्हें दावत देने का मतलब देवियों और रामसेवक हनुमान का आतिथ्य करना होता है।
वह गृहिणी इसीलिए परेशान थी।
छोटे शहरों में बच्चे इस नेक काम के लिए खुद को ‘वॉलंटियर’ कर देते हैं, पर कंक्रीट के इस जंगल में, जहां कोई एक-दूसरे से बेमतलब बात तक नहीं करता, इस परंपरा का पालन कैसे करें? समस्या सोसायटी के ‘सिक्युरिटी इंचार्ज’ ने हल कर दी। उसने कहा, चिंता न करें। सुबह से गेट पर बच्चे इकट्ठे हो जाएंगे। आप जब चाहें, बुला लें। ऐसा ही हुआ। समय पर उसे नौ ‘कन्या’ और ‘लंगूर’ हासिल हो गए। उसने पहले से घर में धूप-बत्ती जला रखी थी। संगमरमर के फर्श पर चटाई बिछी थी और घर के वास्तु अनुमोदित कोने में स्थित मंदिर में दीये जल रहे थे। परंपरा के अनुसार उसने लाल साड़ी पहन रखी थी। रस्म के अनुरूप हलवा, चना, पूड़ी तैयार थे। वह नोएडा के फ्लैट में गोबर का लेप नहीं कर सकती थी और सोसायटी ने हवन निषिद्ध कर रखा था, पर कोई बात नहीं। ‘आपातकाले मर्यादा नास्ति’, महिला के पिता परंपराओं के बोझ को हल्का करने के लिए कहते थे। उसकी पितृभक्ति जाग उठी थी।
पर यह क्या?
एक ‘लंगूर’ ने अपनी चार-पांच साल की बहन को टोका- रशीदा, जरा सम्हलकर बैठ। फिर वह खुद सम्हला। अरे, यशोदा जरा सम्हलकर बैठ। गृहिणी सन्न। उसके अपने शहर में तो गैर ब्राह्मण ‘कन्या’ या ‘लंगूर’ नहीं हो सकते थे। यहां? उसने दरियाफ्त करने की ठानी। पहले उस बच्चे से पूछा- तुम्हारा नाम? अशोक- जवाब मिला। अपने पिता को क्या कहते हो- पापा या अब्बू? उत्तर था- पापा। अब उसने बालिका की ओर रुख किया। वह तो खासी अबोध है, झूठ क्या बोलेगी? तुम भगवान की पूजा करती हो या अल्लाह की? दोनों की- उत्तर संक्षिप्त था। मां को क्या कहती हो? बच्ची बोली- अम्मी। जब तुम लोग यहां खाना खाने आ रहे थे, तब तुम्हारे पापा-अम्मी ने मना नहीं किया? नहीं- जवाब मिला। अगला प्रश्न- ये जो कलावा तुम लोगों की कलाई पर बांधा गया है, उसे क्या बांधे रखोगे? बच्ची - नहीं, घर जाकर उतार देंगे। शक दूर हो चुका था, पर उसने कोशिश नहीं छोड़ी- दिवाली मनाते हो? हां। ईद? हां।
गृहिणी अकबका गई। उसने अपने पति को फोन किया। बेचारा कॉरपोरेट जंतु। कंप्यूटर की स्क्रीन पर आंखें गड़ाए हुए ही बोला- क्या फर्क पड़ता है? बच्चे भगवान का रूप होते हैं। उन्हें खिलाओ-पिलाओ और खुले मन से दक्षिणा दो। गृहिणी को पिता याद आए- आपातकाले...। उसने संकोच छोड़ा। उन्हीं बच्चों को ‘कन्या’ और ‘लंगूर’ मानकर जिमाया। नन्ही मुट्ठियों में पैसे भर दिए और चलते वक्त आंचल सिर पर रख उनके पांव छुए। साथ ही फुसफुसाई- अगले साल जरूर आना। ऐसा नहीं है कि सिर्फ उस घर में हिंदू-मुस्लिम बच्चे एक साथ ‘पूजे’ गए। देश के तमाम उपासना स्थलों में हर रोज या आए दिन आयोजित होने वाले लंगरों में भी भूखों का धर्म नहीं पूछा जाता। एक दलित नेता ने मुझसे कहा था कि इन धर्मस्थानों पर हर रोज जो लाखों लोग लंगर की कतार में लगते हैं, उनमें से अधिकांश हमारे वर्ग से होते हैं। मालूम नहीं, वह कितना सही थे, पर जिस देश में साधु की जाति न पूछने की परंपरा रही हो, वहां अगर भूखों में विभेद नहीं किया जाता, तो इससे बेहतर और क्या हो सकता है? यह संदेश मंदिरों, मस्जिदों और गुरुद्वारों की चौहद्दियां लांघकर आगे क्यों नहीं बढ़ता?
मंदिर और मस्जिद का खूनी खेल खेलने वाले इन उदाहरणों से सबक क्यों नहीं लेते? हमारे गली-मुहल्लों ने इसी रीति-नीति से तो गंगा-जमुनी तहजीब को ‘सदियों रहा है दुश्मन, दौरे जहां हमारा’ के बावजूद दम नहीं तोड़ने दिया। अगर हम अंदर से इतने समरस हैं, तो चेहरे पर इतने मुखौटे क्यों चस्पां रखते हैं? ये मुखौटे गलतफहमी पैदा करते रहते हैं। मैं यहां सांप्रदायिकता पर नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक विषमता की बात करना चाहता हूं। गृहिणी के बच्चे उस वक्त कहां थे? वे स्कूल गए हुए थे। ये हालात की उलटबांसी नहीं, तो और क्या है कि जो अबोध उसके घर ‘पुजने’ आए थे - उन्होंने स्कूल का कभी मुंह नहीं देखा, कभी देखेंगे भी नहीं। मां-बाप दिन में मजूरी के लिए निकल जाते हैं और वे दिन भर इधर-उधर भटकते रहते हैं। कंक्रीट के ऊंचे-घने जंगल के बीच कोढ़ की तरह उग आई झुग्गियों में उन्होंने आंखें खोलीं।
दर्दनाक सवाल उठता है, 21वीं सदी के ये नौनिहाल क्या यहीं सारी जिंदगी काटेंगे? यहां यह जानना जरूरी है कि बच्चों के इस नन्हे समूह में हिंदू-मुसलमान बिना भेदभाव क्यों शामिल थे? झुग्गियां मजहबों का फर्क नहीं रखतीं। मैंने यह बात कभी नहीं छेड़ी होती, अगर अपने सहयोगी प्रकाशन मिंट में भूख से लड़ाई के मामले में भारत का शर्मनाक ‘रिकॉर्ड’ न देखा होता। ये आंकड़े बताते हैं कि ‘इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट’ के ‘ग्लोबल हंगर इंडेक्स’ के अनुसार देश का हाल नेपाल, बांग्लादेश के साथ सेनेगल और रवांडा से भी बुरा है। हम उन देशों से भी गए-गुजरे हैं, जिनका नाम इस मुल्क के अधिकांश लोगों ने कभी सुना तक नहीं। संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र इतना निर्बल और बेचारा क्यों है? टेलीविजन पर जोशीली आवाज में सीमाओं की सुरक्षा, जवानों की शहादत, विकास दर, शहरीकरण और ब्याज दर पर बहस करने वाले भूल जाते हैं कि अगर हमें अपनी सरहदें हमेशा के लिए महफूज करनी हैं, तो सामाजिक विषमता की इस खाई को हर हाल में पाटना होगा।
कुछ साल पहले, चीन के एक विचार समूह ने भारत के नक्शे में लाल, पीले, हरे रंग भरे थे। उनका मानना था कि भूख और बदहाली आने वाले वर्षों में माओवादी अथवा सांप्रदायिक हिंसा को बढ़ावा देगी? इससे हमारा देश विखंडित हो जाएगा। पाकिस्तान में कुछ भारत विरोधियों ने इस वितंडावाद के सहारे अपनी भूखी आंतों में हवा भरने की कोशिश की थी। ऐसे लोग अगर गलत हैं, तो हमारे यहां भी तो सब कुछ सही नहीं है। क्या आपको ऐसा नहीं महसूस होता कि परम बौद्धिक विमर्श और सियासी बहसों से ऐसे विषय अक्सर सिरे से गायब रहते हैं? हम ऐसे गंभीर मुद्दों से कब तक मुंह चुराएंगे?
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