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राजनीतिक आस्था का चुनाव

देश के पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बज चुका है और हर तरह के सियासी शहसवार आस्तीनें चढ़ाकर मैदान में कूद पड़े हैं। मैं इसे भारतीय राजनीतिक आस्था और आत्मा का चुनाव कहूंगा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस...

राजनीतिक आस्था का चुनाव
लाइव हिन्दुस्तान टीमTue, 10 Jan 2017 07:25 PM
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देश के पांच राज्यों में चुनावी बिगुल बज चुका है और हर तरह के सियासी शहसवार आस्तीनें चढ़ाकर मैदान में कूद पड़े हैं। मैं इसे भारतीय राजनीतिक आस्था और आत्मा का चुनाव कहूंगा। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि इस दौरान 690 सीटों के लिए 16 करोड़ से ज्यादा मतदाता वोट डालेंगे। देश में 67 करोड़ से कुछ ज्यादा वोटर हैं, यानी यह चुनाव मतदाताओं के प्राय: एक चौथाई हिस्से की दिली ख्वाहिशों को व्यक्त करने जा रहा है। अक्सर कहा जाता है कि विधानसभा के चुनाव क्षेत्रीय आकांक्षाओं के प्रतीक होते हैं और राष्ट्रीय मुद्दे अक्सर वहां असरकारी नहीं होते। क्षेत्रीय पार्टियों और इलाकाई नेताओं के उभार के इस विरल वक्त में बरसों से ऐसा होता आया है, लेकिन इस बार हालात कुछ जुदा हैं।

भाजपा और नरेंद्र मोदी से बात शुरू करना चाहता हूं।
मई 2014 में देश को ऐसा प्रधानमंत्री मिला, जिसके साथ बहुसंख्यक मतदाताओं का विश्वास था। अपने चमत्कृत कर देने वाले भाषणों, बेहद आक्रामक कार्यशैली और तब तक देखी न सुनी रणनीति को अपनाने वाले इस शख्स ने सारे कयासों को ध्वस्त कर दिया था। मोदी जानते थे कि जन-आकांक्षाओं का बोझ बहुत भारी होता है और तरल भी। जरा सा संतुलन बिगड़ा नहीं कि वह अनचाही दिशा में लुढ़कने लगता है। आठवीं लोकसभा में 404 सीटें हासिल कर सत्तारूढ़ हुए राजीव गांधी और 1971 में 352 सीटें जीतकर दिल्ली दरबार पर काबिज हुईं इंदिरा गांधी के साथ यही हुआ था। भाजपा की मौजूदा 281 के मुकाबले उनकी सीटें कहीं ज्यादा थीं।

यही वजह है कि सत्ता संभालते ही नरेंद्र मोदी ने ‘मन की बात’ और जब संभव हो सका, जनसभाओं के जरिये आम आदमी को सीधे संबोधित करना शुरू कर दिया। इस दौरान उन्होंने कई बार उन सीमाओं को लांघा, जो भारतीय राजनीति के संस्कार तय करती आई थीं। प्रधानमंत्री लगातार साबित करने की कोशिश करते रहे कि मुझे अपने देशवासियों की चिंता है, विपक्ष की नहीं। वह कहते हैं कि मुझे 125 करोड़ लोगों का रक्षा कवच प्राप्त है और इसके अलावा मुझे किसी की परवाह नहीं।
ये चुनाव उनके इस कथन की अग्नि परीक्षा साबित होने जा रहे हैं।

ऐसा कहने की सबसे बड़ी वजह यह है कि उन्होंने अनूठी और केंद्रीयकृत राजनीति की शुरुआत की है। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘नोटबंदी’ दो ऐसे कदम थे, जिन्होंने देश के हर खास-ओ-आम को प्रभावित किया। मोदी ने इसकी भनक, विपक्षियों की तो छोड़िए, अपने वरिष्ठतम सहयोगियों तक को नहीं लगने दी। किसी ने आरोप लगाया, तो उनके पास मजबूत तर्क था, गोपनीयता भंग हो जाने के खतरे से ऐसा नहीं किया गया। इस चुनाव में उत्तर प्रदेश, गोवा, उत्तराखंड और मणिपुर में भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा अभी तक घोषित नहीं किया गया है। मतलब साफ है कि भगवा दल को भरोसा है कि ‘ब्रांड मोदी’ के सहारे चुनावी नैया पार लगाई जा सकती है।

इसका एक खतरा भी है। यदि भाजपा इन राज्यों में, खासकर उत्तर प्रदेश में चुनाव हारती है, तो सर्वाधिक हानि ‘ब्रांड मोदी’ को होगी।
अब कांग्रेस और राहुल गांधी पर आते हैं। व्यावहारिक तौर पर कमान राहुल गांधी के पास भले हो, पर अभी तक पार्टी उन्हें अध्यक्ष बनाने का साहस नहीं जुटा सकी है। बुजुर्गों की मठाधीशी से जूझते हुए इस नौजवान नेता को गए 10 वर्षों में पार्टी की हार की जिल्लत का भार झेलना पड़ा है। गजब यह कि उपलब्धियों का श्रेय उनके हिस्से में नहीं जा सका। लोकसभा के पिछले चुनाव में 44 सीटों पर सिमट जाने का ठीकरा भी उन्हीं के सिर फोड़ा गया, पर वह हार नहीं माने। खुद को विपस्यना के हवाले कर उन्होंने आत्मिक शक्ति संजोई और कम संख्या बल के बावजूद मुखर होकर अपनी बात कहते रहे। सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी, दोनों मामलों में अगर कुछ सवाल उभरे, तो उसके पीछे राहुल और उनके साथियों का शिद्दत भरा संघर्ष भी था। यही वजह है कि लोकसभा के पिछले सत्र के दौरान तमाम विपक्षी पार्टियों ने उनके साथ आना स्वीकार किया। साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में नौजवान गांधी का केंद्र में होना बहुत कुछ कहता था। लेकिन महज इससे काम नहीं चलने वाला।

सवाल उठ रहे हैं कि क्या कांग्रेस उत्तराखंड और मणिपुर बचा पाएगी? क्या वह पंजाब और गोवा एनडीए से छीन पाएगी? अपने पारंपरिक गढ़ उत्तर प्रदेश में क्या वह अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज करवा पाएगी? अगर ऐसा नहीं होता, तो तय जानिए कि राहुल के लिए 2019 की डगर कुछ और कठिन हो जाएगी।
ये चुनाव इसलिए भी अनोखे हैं कि इनमें एक नए खिलाड़ी अरविंद केजरीवाल की जोरदार आमद हुई है। दिल्ली जैसे छोटे सूबे का मुख्यमंत्री होने के बावजूद अरविंद राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने में कामयाब रहे हैं। पंजाब और गोवा में उनकी पार्टी पूरी ताकत से चुनाव लड़ रही है। अगर वह इन दोनों राज्यों में चुनाव जीत जाते हैं, तो यकीनन आगे चलकर वह मोदी विरोधियों की धुरी बनना चाहेंगे। अगर अरविंद इन दोनों राज्यों में सरकार न भी बना सके और बड़ी संख्या में सीटें जीतने में कामयाब हो गए, तब भी उनके लिए राष्ट्रीय राजनीति का रास्ता खुल जाएगा।

क्या वह राजनीति का तीसरा ध्रुव बनने जा रहे हैं?
अगर हम अखिलेश यादव को बिसरा दें, तो यह चर्चा अधूरी रह जाएगी। अपने पिता और चाचा से लड़कर देश के सबसे बड़े प्रदेश में उभरा यह नौजवान नेता अपने काम के बल पर वोट मांगने जा रहा है। कई मोर्चों पर जूझते अखिलेश को तमाम सवालों का सामना करना पड़ रहा है। अगर उनका पिता से समझौता न हुआ, तो लगभग हर सीट पर उन्हें विपक्ष के अलावा उन लोगों से लोहा लेना होगा, जो कल तक उनके ‘अपने’ थे। यहां यह भी सवाल उठ रहा है कि क्या कांग्रेस, जेडीयू अथवा रालोद जैसे दलों से उनका गठबंधन होगा? अगर तालमेल होता भी है, तो आपसी फूट से आहत अखिलेश को ये दल कितना सहारा दे पाएंगे? हालांकि, अपनी खोहों में दुबके मतदाता अक्सर चौंकाते हैं। क्या कभी किसी ने सोचा था कि आम चुनाव से कुछ महीने पहले कांग्रेस के वरिष्ठतम नेताओं को दरकिनार करने वाली इंदिरा गांधी 1971 का चुनाव जीत पाएंगी?

कहावत है कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है, इसलिए यहां मायावती की चर्चा जरूरी है। कड़े प्रशासन और विकास के दावे के साथ वह अपनी पार्टी की एकछत्र नेता हैं। उन्होंने सबसे पहले टिकट बांटे और प्रत्याशियों के चयन में धार्मिक व जातिगत समीकरणों का पूरी तरह ख्याल रखा। अगर वह जीतती हैं, तो उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि देश की राजनीति पर गहरा असर डालेंगी।

यह चुनाव नौजवान भारत में नौजवान नेताओं की दमदार आमद का प्रतीक भी बनेगा। जरा सोचें, मुलायम सिंह, प्रकाश सिंह बादल, हरीश रावत सहित तमाम सत्तानायक अगले विधानसभा चुनावों में कितने सक्रिय रह पाएंगे? अमरिंदर सिंह तो इसे अपना आखिरी चुनाव घोषित कर चुके हैं। उनके उत्तराधिकारी घिसी-पिटी लकीर पर नहीं चल सकते। उन्हें बदलाव और विकास को क्षेत्र, जाति व सांप्रदायिकता पर तरजीह देनी ही होगी।
इसीलिए मैं इसे हिन्दुस्तानी आस्था और आत्मा का चुनाव कह रहा हूं।
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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