न रुकी, न रुकेगी हिंदी पत्रकारिता
कल ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ है, अत: ये चंद पंक्तियां राजदेव रंजन और उन जैसे जुझारू पत्रकारों के नाम, जिनकी वजह से हिंदी पत्रकारिता की मशाल आज तक रोशन है। इसे बुझाने की हजारों बार कोशिशें...
कल ‘हिंदी पत्रकारिता दिवस’ है, अत: ये चंद पंक्तियां राजदेव रंजन और उन जैसे जुझारू पत्रकारों के नाम, जिनकी वजह से हिंदी पत्रकारिता की मशाल आज तक रोशन है। इसे बुझाने की हजारों बार कोशिशें हुईं, पर जिस तरह सूरज उगना बंद नहीं हुआ, जिस तरह अंधेरे से लड़ने की जरूरत खत्म नहीं हुई, जिस तरह बेईमानी के घटाटोप में ईमानदारी चमकती है, जिस तरह अवश्यंभावी मौत के बावजूद इंसानियत अपने रास्ते चलती रहती है, उसी तरह हिंदी पत्रकारिता भी अपना सफर तय करती आई है, आगे भी करती रहेगी।
पिछले 15 दिनों में हिन्दुस्तान के साथियों ने कठिन दिन-रात देखे। हर सहयोगी ऐसा महसूस कर रहा था, जैसे उसके घर से कोई अपना चला गया हो। मीडिया की बिरादरी में भी ऐसी एकजुटता कभी नहीं देखी गई। इस दौरान व्यावसायिक प्रतिद्वंद्विता की दीवारें ढह गईं। भाषाई विभेद खत्म हो गए। राष्ट्रीयता की गहरी लकीरें तक हल्की पड़ गईं। विदेशी मीडिया ने न केवल इसे ‘कवर’ किया, बल्कि हर तरह से अपनी गहरी संवेदना जाहिर की।
बिहार के जागृत लोगों ने इन दिनों लगातार हमें ढाढ़स बंधाया। जगह-जगह प्रदर्शन हुए। लोगों ने हमारे दफ्तरों में इकट्ठा होकर सहयोग का आश्वासन दिया। दर्जनों संवेदनशील लोग राजदेव के गांव पहुंचे। उनके परिवार की जो क्षति हुई है, उसे जस-का-तस तो नहीं भरा जा सकता, पर हर तबके ने जिस तरह उन्हें संबल दिया, वह अपने आप में मिसाल है। कौन कहता है कि पत्रकारिता और पत्रकारों के प्रति लोगों की आस्था खत्म हो गई है? इस तरह की आशंकाओं की आड़ में दुकानदारी करने वाले जरा बीते पखवाड़े की हलचल पर गौर फरमाएं। उन्हें पता चल जाएगा कि वे कितनी गैर-जिम्मेदाराना बातें करते आए हैं!
बिहार पुलिस ने इसी बीच पांच लोगों को गिरफ्तार कर दावा किया कि हत्यारे, उनके सहभागी और वारदात में प्रयुक्त हथियार बरामद कर लिया गया है। हत्याकांड का सूत्रधार लड्डन मियां इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पकड़ से बाहर है। पटना में प्रेस कांफ्रेंस करने वाले पुलिस के आला अधिकारी यह नहीं बता सके कि लड्डन मियां ने राजदेव का खून क्यों करवाया? इस हत्या का मकसद क्या था? जाहिर है, अभी काम अधूरा है। उसे बिहार पुलिस पूरा करेगी या सीबीआई? लाखों लोग इस सवाल के जवाब के लिए सत्ता सदन का मुंह जोह रहे हैं।
उम्मीद है, इन प्रश्नों के उत्तर तर्कों की कसौटी पर इतने खरे होंगे कि उन्हें जनता और अदालत, दोनों की स्वीकृति हासिल होगी। यह इसलिए भी जरूरी है, क्योंकि अब तक जो हत्याकांड जनचर्चा का विषय बने, वे कुतर्कों के अंधियारे में गुम हो गए। आज तक तय नहीं हो पाया कि आरुषि तलवार को किसने मारा? नेपाल के राजघराने का हत्याकांड किसने और क्यों रचा? अमेरिकी राष्ट्रपति केनेडी को मारने वाला ली. हार्वे ओसवाल्ड वाकई हत्यारा था या नहीं? मैं आपको यह सब इसलिए याद दिला रहा हूं, क्योंकि पूरी दुनिया की जांच एजेंसियां भटकने और भटकाने की अभ्यस्त हैं।
इस दौरान सहिष्णु बनाम असहिष्णु की बहस करने वाले वे सूरमा बहुत याद आए, जो बात-बेबात फैन्सी कपड़ों में ‘कैंडल मार्च’ निकालने के अभ्यस्त हैं। बिहार के एक कस्बाई शहर के हिंदी पत्रकार का खून उनकी नजर में पानी है, क्योंकि वह भदेस है! ईश्वर उन्हें सद्बुद्धि दे। अब हिंदी पत्रकारिता की दशा-दिशा पर आते हैं। मैं उन लोगों में शामिल हूं, जिन्होंने तकनीकी को बड़ी तेजी से बदलते हुए देखा है। 1980 के दशक में खबरें कभी-कभी तीन दिन पुरानी छपा करती थीं। वजह? वे बस, ट्रेन या टैक्सी से आती थीं। जिलों के संवाददाता आमतौर पर पत्रकारिता के अलावा जीवन-यापन के लिए कुछ और भी करते थे। इसीलिए एक बड़े भौगोलिक क्षेत्र में पत्रकार और पत्रकारिता, दोनों अंशकालिक गति को प्राप्त थे। यह वह नामुराद जमाना था, जब फैक्स, कंप्यूटर, मोबाइल किसी के सपने में भी नहीं आते। एसटीडी की सुविधा हासिल हो तो गई थी, पर दूसरे शहर में ‘कनेक्ट’ करने में घंटों लग जाते। मुगलकालीन कबूतरों से तब तक के संसाधनों का सफर शताब्दियों में तय हुआ था- खरामा, खरामा!
उन दिनों अगर आपको विदेश से खबर भेजनी हो, तो बस रब राखा। मैंने खुद परदेस से पहली रिपोर्ट ‘टेलेक्स’ से भेजी थी। काउंटर के दूसरी तरफ बैठा ‘गोरा’ नंबर मिलाते-मिलाते झुंझला गया था। मेरी परवाह किए बिना वह बड़बड़ाया था- ‘उफ्फ, ये इंडिया!’ उसकी बेकली और मेरी बेबसी मुझे शर्मसार कर गई थी। ऐसा नहीं है कि हम सिर्फ विकसित देशों से पिछड़े हुए थे। दक्षिणी राज्य भी हिंदीभाषी प्रदेशों से आगे थे। 1980 के दशक में वहां कंप्यूटर क्रांति हो रही थी, जबकि उत्तर के लोग ‘एसटीडी युग’ में जी रहे थे।
मोबाइल फोन की आमद ने हमें यकायक अपने दक्षिण भारतीय दोस्तों के बराबर ला खड़ा किया। पिछली दो सदियों में अगर रेल, हवाई जहाज और बिजली ने मानवता के लिए नए द्वार खोले, दुनिया एक-दूसरे के पास आई, तो इंटरनेट अब सारे विभेद समाप्त कर रहा है। इसने ज्ञान पाने और बांटने के तमाम खिड़की-दरवाजों को खोल दिया है। अब यह आपके ऊपर है कि आप इसकी गति से कितना तारतम्य बैठा पाते हैं? सुखद बात यह है कि संसार के सर्वाधिक उन्नत देश भारतीय भाषा-भाषियों को कई मायनों में अपने से बेहतर पा रहे हैं। कुछ महीने पहले वॉल स्ट्रीट जर्नल के मुख्यालय में मैंने एक हफ्ता गुजारा था। वहां हर प्रशिक्षण सत्र के बाद अनौपचारिक इम्तिहान लिया जाता।
उसमें सर्वाधिक तालियां भारतीय और चीनी प्रतिनिधि को मिलीं। संयोगवश वहां अकेला हिन्दुस्तानी मैं था। उस दौरान हर शाम हम अमेरिका व यूरोप के पत्रकारों के साथ बैठते और सुनकर खुशी होती कि तकनीकी से तारतम्य के मामले में आप भारतीयों का जवाब नहीं। चीन से आई एक महिला संपादक की भी यही राय थी। हमने सदियों की इस विपन्नता को सिर्फ तीन दशकों में पाटा है। प्रिंट मीडिया के अवसान की चर्चाओं के बीच यह शुभ संकेत है। कुछ खत्म हो या कुछ नया आ जाए, हिंदी और हिन्दुस्तानी भाषाओं के पत्रकार उसके लिए तत्पर हैं। खबरें पाठकों तक पहुंचाने के साधन बदल सकते हैं, पर इससे पत्रकारिता खत्म नहीं होने जा रही। कैसे? बताता हूं।
हिन्दुस्तान टाइम्स में मेरे एक सहयोगी हैं- निकोलस डावेस। वह दक्षिण अफ्रीकी ‘अंग्रेज’ हैं और ‘न्यूज मीडिया’ के बारे में गहरी समझ रखते हैं। मैं उन्हें बिहार के शहरों और गांवों में ले गया। वह यह देखकर हैरान थे कि हमारे साथी किस तरह संपादकीय सामग्री भेजने के लिए खस्ताहाल नेटवर्क के बावजूद मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। निक ने लौटते समय कहा कि आपके लोग ‘प्रोग्रेस हंगरी’ यानी गजब के प्रगतिकामी हैं। हिंदी पत्रकारिता को अब वैश्विक होने से कोई नहीं रोक सकता।
4-जी के प्रसार और ‘डिजिटल हाइवेज’ की आमद हमारे लिए नए अवसर खोलने जा रही है। यहां एक यक्ष प्रश्न सिर उठाता है। क्या हमारे हुक्मरां इस सच को समझते हैं? हिंदी पत्रकारों के लिए बेहतर माहौल उपलब्ध कराने की बजाय वे उनका रास्ता रोकने में लगे हैं। लोकतंत्र के लिए जितनी जरूरी स्वस्थ राजनीति है, उतनी ही जरूरत स्वतंत्र पत्रकारिता की है। अपनी इस आजादी के लिए हम जूझते आए हैं, आगे भी जूझते रहेंगे। कुछ दिक्कतें जरूर हैं, पर रास्ते की दुश्वारियों की न हमारे पुरखों ने परवाह की, न हम करेंगे।
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com