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ताजा हवा के संकेत

नरेंद्र मोदी से ज्यादा मेहनत नवाज शरीफ को करनी होगी। पठानकोट हमले के बाद मोदी ने उनसे साफ तौर पर कह दिया है कि वह अपनी आस्तीन के नागों पर कार्रवाई करें। पाकिस्तान में पिछले दो दिनों में जो हुआ है,...

ताजा हवा के संकेत
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 09 Jan 2016 09:16 PM
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नरेंद्र मोदी से ज्यादा मेहनत नवाज शरीफ को करनी होगी। पठानकोट हमले के बाद मोदी ने उनसे साफ तौर पर कह दिया है कि वह अपनी आस्तीन के नागों पर कार्रवाई करें। पाकिस्तान में पिछले दो दिनों में जो हुआ है, उससे उम्मीद बनी है कि शरीफ दृढ़ता व शराफत दिखाएंगे।

कल्पना करें, अगर दुर्योधन ने पांडवों की पांच गांव देने की मांग मान ली होती, और हिटलर को यूरोप में पांव पसारने से पहले म्यूनिख में रोक दिया गया होता, तो क्या होता? जवाब साफ है। भारत 'महाभारत' से बच गया होता और दुनिया दूसरी बड़ी जंग से।

इन दोनों कहानियों के निहितार्थ क्या हैं? महाभारत की कहानी से जाहिर होता है कि राजनेताओं को अपने अहंकार के आडंबर से बाहर निकलना चाहिए। पांच गांवों के बदले में अगर हजारों सैनिकों की रक्षा की जा सकती है, तो इसमें हर्ज क्या? जिन्हें ये गांव दिए जाने थे, वे कोई पराए तो न थे? इसी तरह, हिटलर की कहानी बताती है कि अगर अमेरिका और 'मित्र देश' कूटनीति की सड़ी-गली परंपराओं से बाहर निकलने का हौसला दिखाते, तो इंसानी सभ्यता की सबसे बड़ी विभीषिकाओं में से एक, दूसरे विश्व युद्ध से बचा जा सकता था।

भारत-पाक के रिश्तों को समझने के लिए 'महाभारत' और हिटलर के आख्यानों की तह में जाना जरूरी है।

दोनों देश कारगिल सहित चार लड़ाइयां लड़ चुके हैं। इनके चलते हजारों लोगों की जानें गईं। करोड़ों रुपये बर्बाद हुए। बदले में क्या मिला? न तो पाकिस्तान कश्मीर ले सका और न हम अपने पड़ोस में अमन कायम कर सके। पाकिस्तान को इस शत्रुता के चलते अपना पूर्वी हिस्सा गंवाना पड़ा। बदले में उसने हमें 'छाया-युद्ध' का तोहफा दिया। पिछले 68 बरसों में हमने रंजिशों के बीजों को 'बरगद' बनाया और अपने वंशजों के मन में रंजिशों की विष बेल रोप दी। होना इसका उल्टा चाहिए था। हमारे पूर्वज एक थे। बंटवारा होने के बावजूद हम उनकी गौरवपूर्ण रवायतों को आगे बढ़ा सकते थे। स्वार्थी और अदूरदर्शी राजनीति ने ऐसा नहीं होने दिया।

दोनों तरफ के सत्तानायकों ने अगर सुलह की कोशिशें कीं, तो वे परवान नहीं चढ़ सकीं। इसकी सबसे बड़ी वजह शक का वह भूत है, जिसे खुफिया संस्थाओं और सेनाओं ने जतन से पाल-पोसकर 'दानव' बना दिया है। इस दैत्य को पोसने में अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों, ड्रग माफियाओं और हथियारों के सौदागरों का भी बड़ा रोल है। तरह-तरह के आतंकवादी संगठन पैदा करने में इन कारकों ने बड़ी भूमिका अदा की। अमेरिका सहित तमाम पश्चिमी देशों ने पाकिस्तान को तो जैसे 'प्रयोगशाला' ही बना डाला।

इसका दुष्परिणाम उन्हें भी भोगना पड़ रहा है। भूलें नहीं। 9/11 के हमलावरों ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में शरण ली। खौफ का तांडव अब और विकराल हो चला है। पिछले दिनों अमेरिका में रह रहे एक पकिस्तानी युगल ने अचानक फायिरग कर 14 निर्दोष लोगों को हलाक कर दिया। फ्रांस और अमेरिका में हुई तमाम आतंकवादी वारदातों ने पश्चिमी देशों को हिलाकर रख दिया है। जो कल तक हमारी बेबसी को निश्चिंत भाव से देख रहे थे, वे आज खुद पल-पल अनिश्चय झेल रहे हैं। हर वर्ष क्रिसमस और नए साल के मौके पर अमेरिका, यूरोप और ऑस्ट्रेलिया में सैलानियों की गहमा-गहमी होती रही है। इस साल उसमें भारी कमी दर्ज की गई।

समूचा पश्चिम जैसे भय से कंपकंपा रहा है। कभी जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल का दफ्तर 'संदेहास्पद' पैकेट पाए जाने पर सील कर दिया जाता है, कभी यात्री विमान बम की अफवाह से बीच रास्ते में उतार लिए जाते हैं। तमाम देशों में तो कई-कई दिनों के लिए स्कूल तक बंद करने पड़ गए। पाकिस्तान, अफगानिस्तान और अरब देशों में जिन्होंने इन भस्मासुरों को पाला-पोसा था, अब ये उन्हीं का दामन चाक करने लगे हैं।

मैं यह सब इसलिए कह रहा हूं, ताकि साफ हो सके कि विश्व भर की अशांति का एक कारण भारतीय उपमहाद्वीप और एशिया के कुछ मुल्कों में विकसित देशों द्वारा अपना हित साधने के लिए पोसे गए आतंकवादी संगठन हैं। ऐसा न होता, तो हाफिज सईद और दाऊद जैसे लोग पाकिस्तान में चैन से न बैठे होते। ऐसे लोग भारत, पाक सहित समूची दुनिया के लिए खतरा बन गए हैं।

ऐसे तत्वों से पार पाने के लिए भारत और पाकिस्तान के बीच सहमति के दरवाजे खुलने आवश्यक हैं। इसके लिए दोनों मुल्कों के हुक्मरानों को कुछ जोखिम उठाने होंगे। विश्व बिरादरी को भी यह समझना होगा कि हमारे घरों में लगी आग को 'अवसर' मानकर वे अब आंखें नहीं मूंद सकते। संसार के सत्तानायकों को दहशतगर्दी के खिलाफ ईमानदारी से एकजुट होना होगा।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभालते ही साहस दिखाया था। नवाज शरीफ को जब उन्होंने अपने शपथ ग्रहण समारोह में आमंत्रित किया, तभी सवाल उठने लगे थे कि शरीफ साहब के वक्त में भारत के लिए हमेशा परेशानी पैदा होती आई है। शायद इन्हीं आरोपों का कमाल था कि केंद्र सरकार विचलित हो गई और उसने कुछ दिनों के लिए जाहिरा तौर पर बातचीत के दरवाजे बंद कर दिए। हालांकि, 'बैक डोर डिप्लोमेसी' जारी रही। भारत और पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों की बैंकॉक में बैठक और बाद में परदेसी जमीन पर शरीफ और मोदी की गुफ्तगू ने उम्मीदों पर पड़े पाले को साफ करना शुरू किया। भारतीय प्रधानमंत्री 25 दिसंबर, 2015 को जब नवाज शरीफ को जन्मदिन की बधाई देने के लिए लाहौर में अचानक उतरे, तो स्पष्ट हो गया कि दोनों देश किसी बेहतरीन निष्कर्ष पर पहुंचने वाले हैं। आशंकाओं के सौदागरों ने अतीत के उदाहरण देते हुए डराने की कोशिश की कि इससे हमारे यहां आतंकवादी हमले हो सकते हैं। पठानकोट हवाई अड्डे पर जो हुआ, उसने उन्हें सच भी साबित कर दिया।

क्या सरकार ने इस पर विचार नहीं किया था?
यकीनन किया होगा। अब यह एक जाना-बूझा तथ्य है कि जब भी सुलह की कोशिश होती है, कुछ लोग उसमें पलीता लगा देते हैं। अटल बिहारी वाजपेयी की लाहौर-यात्रा के बाद कारगिल हो गया। कारगिल के जनक मुशर्रफ जब सत्ता में आए, तो उन्होंने भी दुश्मनी को दफनाने की कोशिश की। वाजपेयी और मुशर्रफ की आगरा-वार्ता के बाद भारतीय संसद पर हमला करा दिया गया। मुशर्रफ और मनमोहन जब नतीजे पर पहुंचने लगे, उसके कुछ ही समय बाद मुंबई पर हमला बोल दिया गया। इसीलिए भारत सरकार ने जरूर सोचा होगा कि मोदी और शरीफ की मुलाकात के बाद विघ्न-संतोषी शराफत से पेश नहीं आएंगे, पर इसका यह मतलब नहीं कि सौहार्द की कोशिशों को पलीता लगा दिया जाए। यह सारी कसरत हो भी इसीलिए रही है, ताकि इस उपमहाद्वीप में पसरे आतंकवाद पर लगाम कसी जा सके और आने वाले वर्षों में युद्ध की आशंकाओं पर पूर्ण विराम लगाया जा सके।

इसके लिए मोदी से ज्यादा मेहनत नवाज शरीफ को करनी होगी। पठानकोट हमले के बाद नरेंद्र मोदी ने उनसे साफ तौर पर कह दिया है कि वह अपनी आस्तीन के नागों पर कार्रवाई करें।

पाकिस्तान में पिछले दो दिनों में जो हुआ है, उससे उम्मीद बनी है कि शरीफ दृढ़ता व शराफत दिखाएंगे। पहली बार पाकिस्तान के प्रधानमंत्री, फौज और आईएसआई प्रमुख, तीनों ने पठानकोट के आंतकवादी हमले की निंदा की है। ऐसा पहले नहीं होता था। पाकिस्तानी मीडिया भी इस बार भारत पर अपने फौजियों को मरवाने के आरोप नहीं लगा रहा है। क्या वाकई दोनों देशों के शासकों के मन में मित्रता की लहरें उठ रही हैं? क्या कोई ताजा हवा चलने को है?

उम्मीद है, इस बार इन सवालों को सार्थक जवाब हासिल होंगे।
@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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