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धर्म और हमारे वक्त की औरतें

एक चौथाई सदी से ज्यादा वक्त बीत गया। हमारी कार जब शिरडी से शनि शिंगणापुर के लिए रवाना हुई, तो मन में बड़ा कौतूहल था। हम ‘शनि महाराज के गांव’ जा रहे थे। भारतीय परंपरा के मुताबिक, ‘शनि...

धर्म और हमारे वक्त की औरतें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 30 Jan 2016 11:53 PM
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एक चौथाई सदी से ज्यादा वक्त बीत गया। हमारी कार जब शिरडी से शनि शिंगणापुर के लिए रवाना हुई, तो मन में बड़ा कौतूहल था। हम ‘शनि महाराज के गांव’ जा रहे थे। भारतीय परंपरा के मुताबिक, ‘शनि महाराज’ न्याय और लोकतंत्र के अधिष्ठाता हैं। हमें बताया गया था कि इस गांव में कोई अपने घर में ताला नहीं लगाता। लोग आपस में झगड़ते नहीं। यदि कलह होती भी है, तो ‘शनि महाराज’ के प्रांगण में सुलझा ली जाती है।

अहमदनगर का राजपथ छोड़ जब गाड़ी ने टूटी-फूटी सड़क का आसरा पकड़ा, तो उत्तर प्रदेश में अपने गांव की याद आ गई। दोपहर होते-होते हम वहां पहुंच चुके थे। सोचा था कि भव्य मंदिर होगा। पर यह क्या? खुले मैदान में एक अनगढ़ पत्थर का टुकड़ा चबूतरे पर प्रतिष्ठापित था। कुछ हैंडपंप लगे हुए थे और थोड़ी दूर पर पूजन सामग्री बेचने की झोंपड़ीनुमा दुकानें। सरसराती हवा में गंवई ठंड का बसेरा था। भजनों और श्लोकों से गरमाहट ग्रहण करते हुए हम हैंडपंप के जल के हवाले हो गए। बाद में वहीं से खरीदे एक अंगोछे से अपने शरीर को ढांप ‘शनि महाराज’ के चबूतरे पर पहुंचे और सरसों के तेल से उनका अभिषेक किया। कोई भीड़ नहीं, जेबकतरों का भय नहीं, वर्दीधारी रक्षक नहीं। विचार आया, न्याय और लोकतंत्र को ऐसा ही होना चाहिए- खुला, सपाट और इतना चिकना कि यदि कोई कब्जा करना चाहे, तो फिसलकर नीचे गिर पड़े। उस दिन पता नहीं चला था कि ‘शनि महाराज’ की मूर्ति को महिलाएं नहीं छू सकतीं।

बरसों बाद, पत्नी के साथ फिर वहां गया। गांव में बैंक खुल चुका है। सशस्त्र पुलिस की पहरेदारी कायम हो गई है। दुकानों ने धार्मिक-स्थल को प्राय: हर ओर से घेर लिया है। लाउड स्पीकरों से तरह-तरह के भजन विभिन्न भाषाओं में गूंजते रहते हैं। दर्शनार्थियों की लंबी लाइन को नियंत्रित करने के लिए रेलिंग बना दिए गए हैं। पुलिस, होमगार्ड और निजी सुरक्षा एजेंसियों के कर्मी लोगों को हांकने और हौंकने में व्यस्त दिखते हैं। स्नान के लिए स्नानागार बन गए हैं। वहां पानी ट्यूबवेल से आता है। ‘शनि महाराज’ का तीर्थ अब किसी अन्य तीर्थ स्थल के टक्कर का हो गया है। पिछली बार वहां किसी को पैसे दिए, तो ऐसा लगा, जैसे वह हमारे आग्रह पर मुद्रा ग्रहण कर रहा है। इस बार वहां के लोगों में यजमानों के धन के प्रति अधिकार का भाव था। सब कुछ बदल गया, पर ‘शनि महाराज’ का सम्मानपूर्ण दबदबा ग्रामीणों में कायम है। वहां के घरों में अभी तक ताले नहीं लगते। यूको बैंक की शाखा भी इसका अपवाद नहीं है।
 
उसी दिन मालूम पड़ा कि महिलाओं को चबूतरे पर जाने की इजाजत नहीं है। बरसों के वैवाहिक जीवन में यह पहला अवसर था, जब मुझे पत्नी का साथ होने के बावजूद अकेले किसी अनुष्ठान में शामिल होना पड़ा। उत्तर भारत के गांवों में धार्मिक स्थलों पर युगल गांठ जोड़कर पूजा-अर्चना करते हैं।
 
मन में सवाल उठा, ऐसा क्यों? जवाब साफ था- परंपरा। प्रतिप्रश्न उठा, इसी परंपरा की वजह से तो हम पति-पत्नी हैं। सात फेरों के दौरान हमने धार्मिक अनुष्ठानों को साथ-साथ पूरा करने की प्रतिज्ञा की थी। परंपरा के नाम पर शनि शिंगणापुर में हमारे ऊपर दूर खड़े रहने की बाध्यता कायम थी। इस मुद्दे पर उलझी-उलझी बात करते हुए हम लोग मुंबई पहुंच गए। वहां की भीड़ और आपाधापी ने हमें सवालों के विराट सागर में धकेल दिया। बात आई-गई हो गई।

इधर ‘रण रागिनी भूमाता ब्रिगेड’ के आंदोलन ने मन की अंधेरी तहों में दबे सवालों को फिर से आंच दिखा दी है। ब्रिगेड की अगुवा तृप्ति देसाई के नेतृत्व में सैकड़ों महिलाओं ने 26 जनवरी को शनि शिंगणापुर पहुंचकर चबूतरे की ओर प्रस्थान किया। पुलिस ने उनके प्रयास पर पानी फेर दिया। तृप्ति कुछ घंटों तक हिरासत में भी रहीं। बाद में उन्होंने इस आंदोलन को जीत हासिल होने तक जारी रखने का निर्णय किया। वह अपनी मांग को लेकर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस से भी मिलीं। बकौल तृप्ति, मुख्यमंत्री उनके विचारों से सहमत हैं और उन्हें सकारात्मक संकेत मिले हैं। हालांकि, भाजपा की नाक में दम करने का कोई मौका न चूकने वाली शिवसेना ने ‘भूमाता ब्रिगेड’ की मुहिम का विरोध करना शुरू कर दिया है।

तृप्ति पर राजनीतिक लाभ लेने के मकसद से ‘तमाशा’ रचने का आरोप है। राजनेताओं को हर जगह राजनीति दिखती है, इसलिए मुझे इस आरोप पर कोई अचरज नहीं। यह भी नहीं मालूम कि तृप्ति और उनके सहयोगी अपनी मुहिम में सफल होंगे या नहीं, पर यह सच है कि इस अभियान ने दबे-ढके मुद्दे को बहस का मुद्दा बना दिया है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ शनि शिंगणापुर में ही महिलाओं को प्रवेश की इजाजत नहीं। मुंबई की मशहूर हाजी अली दरगाह में भी उनका प्रवेश प्रतिबंधित है। इसके खिलाफ कुछ वकीलों ने मुंबई उच्च न्यायालय में मुकदमा दायर कर रखा है।
दक्षिण के प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर में भी ऐसा ही है। भगवान अयप्पा के इस मंदिर में 10 से 50 वर्ष की स्त्रियों के प्रवेश पर रोक है। यह मामला अभी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है और अगली आठ फरवरी को इसकी सुनवाई है। मामला सिर्फ इन्हीं तीन धर्मस्थलों का नहीं है। देश के कई ‘पवित्र स्थानों’ पर महिलाओं को पुरुषों के समान हक हासिल नहीं हैं। यहां यह कहना जरूरी है कि हर धर्म के अंदरूनी हालात कमोबेश एक से हैं। आज तक कोई महिला पोप नहीं हुई। कोई मुख्य ग्रंथी नहीं बनी। किसी नारी को शंकराचार्य का दर्जा भी हासिल नहीं हुआ।

समय-समय पर इन मुद्दों पर विवाद हुए, लेकिन हर बार परंपरा के हवाले से उन्हें दबाने की कोशिश की गई।
इतिहास गवाह है कि परंपराएं समय के हिसाब से बदली भी गई हैं। कभी सती-प्रथा को धार्मिक कर्मकांड माना जाता था, आज वह अपराध है। आजादी से पहले देश के तमाम मंदिरों में हरिजनों के प्रवेश पर पाबंदी थी। 1924 में त्रावणकोर राज्य के वैकम में दलितों ने मंदिर प्रवेश की अनुमति के लिए लड़ाई शुरू की थी। ‘वैकम सत्याग्रह’ की अगुवाई आजादी की लड़ाई लड़ रही कांग्रेस ने की थी। दो मार्च, 1930 को नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश के लिए बाबा साहब अंबेडकर के नेतृत्व में विशाल आंदोलन की शुरुआत की गई। महात्मा गांधी ने भी उसी दौर में मंदिरों में दलित प्रवेश की वकालत की। मुखालफत का यह कारवां बढ़ता गया और आज दलितों को अधिकांश मंदिरों में प्रवेश हासिल है। स्पष्ट है कि न्याय और समानता की चाहत विधि-विधान के साथ इतिहास को बदलने पर भी मजबूर करती है।

भारतीय ज्योतिष कहता है कि शनि न्याय और लोकतंत्र का कारक ग्रह है। अगर इस अवधारणा को सच मान लें, तो क्या यह सवाल नहीं उठता कि आधी आबादी को इंसाफ दिलाने की मुहिम के लिए शनि स्थान से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती थी? शनि शिंगणापुर की भांति मुंबई में भी मुस्लिम महिलाओं सहित औरतों का बड़ा वर्ग हाजी अली दरगाह में प्रवेश के लिए आंदोलन की राह चल पड़ा है।
क्या एक बड़ा बदलाव आकार ले रहा है?

@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com


 

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