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हमारे हुक्मरानों का क्षमापर्व

ब्रिटेन के शाही दंपति युवराज विलियम और केट मिडलटन पिछले हफ्ते भारत के विभिन्न हिस्सों में विचर रहे थे। उनकी हुकूमत को विदा हुए सात दशक होने को आए, पर 'सोने की चिड़िया' के प्रति इस खानदान का...

हमारे हुक्मरानों का क्षमापर्व
लाइव हिन्दुस्तान टीमSun, 17 Apr 2016 03:04 PM
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ब्रिटेन के शाही दंपति युवराज विलियम और केट मिडलटन पिछले हफ्ते भारत के विभिन्न हिस्सों में विचर रहे थे। उनकी हुकूमत को विदा हुए सात दशक होने को आए, पर 'सोने की चिड़िया' के प्रति इस खानदान का आकर्षण खत्म नहीं हुआ है। पता नहीं क्यों, हमारा सत्ता-सदन कूटनीतिक शिष्टाचार में ही सही, पर उनके आगे कुछ दबा-झुका नजर आता है। उनकी इस आमोद यात्रा के बीच मांग उभरी कि शाही दंपति को अमृतसर के जलियांवाला बाग जाकर जनरल डायर के गुनाहों की माफी मांगनी चाहिए। कहने की जरूरत नहीं, 'जलियांवाला बाग हत्याकांड' इंसानी इतिहास की क्रूरतम घटनाओं में से एक है। वह 1919 की बैसाखी थी। इस बाग में हजारों लोग इकट्ठा थे। जनरल डायर ने इन्हीं निरीह लोगों पर गोलियां बरसाईं। अंधी गोलीवर्षा में कितने मरे, कितने घायल हुए, कभी तय नहीं हो सका। यह हत्याकांड अंग्रेजों की बेदर्द बेवफाई का प्रतीक था। 
कैसे?  
प्रथम विश्व युद्ध में ब्रिटिश सेना में भारतीय सैनिकों ने बेमिसाल बहादुरी का प्रदर्शन किया था। कई मोर्चों पर शाही सेना सिर्फ इसलिए जीत सकी, क्योंकि उसकी अगली पंक्ति में जुझारू हिन्दुस्तानी जांबाज रखे गए थे। उन दिनों हिन्दुस्तानियों के एक तबके के बीच भोली आशा प्रबल हो रही थी कि इस बहादुरी से खुश होकर अंग्रेज हमें आजाद कर देंगे। जलियांवाला बाग में जनरल डायर ने इस नेक उम्मीद का गला घोट दिया था। उस मनहूस दिन मारे गए लोगों में अबोध बच्चों से लेकर पके बालों वाले बूढ़े, खिलखिलाती बच्चियां, उनकी माएं और दादियां तक शामिल थीं। जनरल की जघन्य करतूत ने भारतीय मानस को झकझोर दिया था। खुद अंग्रेजों का एक तबका शर्मसार था। उस पर ब्रिटिश अदालत में मुकदमा भी चला, पर जलियांवाला का जख्म लंबे समय तक रिसता रहा। हिन्दुस्तानियों का दुर्भाग्य है कि इस बैसाखी पर सोशल मीडिया और अन्य तरह के बधाई संदेशों के बीच हम अपने पूर्वजों के बलिदान को बिसरा बैठे। 
एक कौम के लिहाज से इस बेशर्म बेरुखी की निंदा की जानी चाहिए।

उस लोमहर्षक कांड के 94 वर्ष बाद 20 फरवरी, 2013 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन वहां गए और शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित की। नरसंहार को बरतानवी इतिहास की शर्मनाक घटना बताया, पर माफी मांगना भूल गए। 1997 में महारानी एलिजाबेथ भी वहां से बगैर क्षमा याचना लौट आई थीं। इस बार कुछ लोगों को उम्मीद थी कि उनके पोते विलियम भूल का सुधार करेंगे, ऐसा नहीं हुआ। हम भारतीयों की भोली आशाएं और अंग्रेजों की 'श्रेष्ठता ग्रंथि' अभी तक समाप्त नहीं हुई है। यह हाल तब है, जब विश्व राजनीति में ऐतिहासिक गलतियों के लिए माफी मांगने का प्रचलन बढ़ चला है। गुजरे सोमवार को अमेरिकी विदेश मंत्री जान केरी हिरोशिमा के शांति स्मारक गए। उन्होंने हुतात्माओं को श्रद्धांजलि अर्पित की और अपना दुख जताया। बताने की जरूरत नहीं कि छह अगस्त, 1945 को अमेरिका ने वहां एटम बम गिरा दिया था।

दुनिया के इस पहले परमाणु हमले में 80 हजार से अधिक लोग चंद सेकंड में मौत के मुंह में समा गए। शहर का 90 फीसदी हिस्सा देखते-देखते भुरभुरी राख में तब्दील हो गया। यह दूसरे विश्व युद्ध का निर्णायक लम्हा था। अमेरिका ने इस हमले के जरिये 'पर्ल हार्बर' का बदला चुकाया, साथ ही दूसरे महायुद्ध में निर्णायक भूमिका अदा कर दुनिया पर हुकूमत का रास्ता साफ कर लिया। यह जितनी बड़ी भौतिक जीत थी, उतनी ही बड़ी नैतिक हार साबित हुई। बरसों तक हिरोशिमा और उसके आसपास के इलाके में सैकड़ों माताओं की कोख बंजर पड़ी रही। बच्चे कम जने गए और जो जन्मे, उनमें से अधिकांश विकलांग पैदा हुए। कैंसर किसी महामारी की तरह फैला। यह सिर्फ जापान नहीं, बल्कि समूची दुनिया के लिए दर्दनाक अनुभव साबित हुआ। जिस पायलट ने वहां बम गिराया था, बाद में वह विक्षिप्त हो गया। आइंस्टीन को हमेशा इस बात का दुख रहा कि ऐसा बम क्यों बनाया गया?

जान केरी के शांति स्मारक पहुंचने से अमेरिका की दुविधा जगजाहिर हो गई है। सवाल उठता है, क्या केरी साहब इराक और अफगानिस्तान की जनता से माफी मांगना चाहेंगे? वहां भी तो उनकी फौज ने कत्ल-ए-आम किया है। इस मुद्दे पर बाद में चर्चा, क्योंकि यहां कुछ और माफीनामों का जिक्र जरूरी है। दूसरे महायुद्ध में जापान भले ही अमेरिका का शिकार बन गया हो, पर उसने कम अत्याचार नहीं किए थे। उसके फौजियों ने कोरिया, चीन, फिलीपींस, इंडोनेशिया और ताइवान में हजारों महिलाओं को 'यौन गुलाम' बना लिया था। कोरिया की दो लाख नौजवान औरतें 'कंफर्ट वूमन' में तब्दील कर दी गई थीं। इन्हें जापानी सैनिक अपने मनोरंजन के लिए इस्तेमाल करते थे। लगातार दूसरी बार सत्ता संभालने के बाद जापानी प्रधानमंत्री शिंजो अबे ने दिसंबर, 2015 में पूर्वजों के इस कृत्य के लिए सार्वजनिक तौर पर क्षमा मांगी और उस वक्त की जीवित रह बची 46 महिलाओं को 55 करोड़ रुपये का मुआवजा दिया।

अब चीन अबे से यही मांग कर रहा है। दबी जुबान में फिलीपींस, इंडोनेशिया और ताइवान से भी इस तरह की चाहतों का इजहार हो रहा है। अबे ने एक साथ इन सबसे माफी क्यों नहीं मांगी? माफीनामों के इस दौर का सबसे ताजा उदाहरण कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रिडियू ने पेश किया है। उन्होंने 102 साल पहले हुए 'कामागाटामारू कांड' के लिए सिखों से आधिकारिक रूप से क्षमा याचना की है। 1914 में साढ़े तीन सौ से अधिक भारतीयों को लेकर एक जापानी जलपोत वैंकूवर के लिए रवाना हुआ था। महीनों के इंतजार के बावजूद कनाडाई हुकूमत ने उन्हें अपने देश में प्रवेश करने देने से मना कर दिया। वे थक-हारकर कोलकाता लौटे और जब बंदरगाह पर उतरने लगे, तो निर्दोषों पर जुल्म ढाने की अभ्यस्त ब्रिटिश फौज ने उन पर गोली चला दी। 19 लोग मारे गए। इससे पहले 2008 में तत्कालीन कनाडाई प्रधानमंत्री स्टीफन हार्पर ने सार्वजनिक तौर पर माफी मांगी थी, मगर जस्टिन ट्रिडियू ने इसे आधिकारिक रूप दे दिया है। हादसे के102 साल बाद ट्रिडियू को ऐसा करने की जरूरत क्यों महसूस हुई? जवाब साफ है। ये माफीनामे राजनीति से प्रेरित हैं।

अमेरिका ने जापान पर भले ही बम गिराया हो, मगर चीन से निपटने के लिए उसे जापान और भारत की जरूरत है। नई पीढ़ी के जापानियों के मन की कसक दूर करने के लिए ऐसा करना जरूरी था। अगर अमेरिकियों का मन साफ होता, तो वे कम से कम क्यूबा, वियतनाम, इराक और अफगानिस्तान से भी जरूर माफी मांगते। यहां के लाखों लोगों की जिंदगियां बरबाद करने का दोष अमेरिका पर है। इसी तरह, जापान सिर्फ कोरिया से माफी मांगकर क्यों रह गया? कारण स्पष्ट है। उत्तर कोरिया और चीन की बढ़ती ताकत ने जापानियों को अंदर से हिला दिया है और उन्हें अपने पड़ोस में कुछ सामरिक सहयोगी चाहिए। कनाडा के प्रधानमंत्री को अपनी आंतरिक राजनीति चमकाने और चलाने के लिए सिखों की आवश्यकता है। भारत में मनमोहन सिंह ने 1984 के दंगों के लिए कांग्रेस की ओर से सिखों से क्षमायाचना की थी। तय है। राजनेताओं के 'क्षमापर्व' के पीछे गहरे राजनीतिक अथवा कूटनीतिक संदेश छिपे होते हैं। क्या ये माफीनामे राजनीतिक अथवा कूटनीतिक स्वांग हैं? क्या वाकई राष्ट्रों और राजनेताओं के मन बदल रहे हैं? ऐसा लगता तो नहीं।
@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

 

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