मोदी नाम केवलम् का मतलब
कुछ हफ्ते पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक मंदिर के बाहर खडे़ पुजारी से मैंने पूछा, ‘पंडित जी, चुनाव में कौन जीत रहा है?’ जवाब मिला- ‘मोदी नाम केवलम्।’ मुझे यह उनकी निजी राय...
कुछ हफ्ते पहले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के एक मंदिर के बाहर खडे़ पुजारी से मैंने पूछा, ‘पंडित जी, चुनाव में कौन जीत रहा है?’ जवाब मिला- ‘मोदी नाम केवलम्।’ मुझे यह उनकी निजी राय लगी, पर मालूम न था कि आने वाले दिनों में सर्वाधिक मतदाताओं वाला यह प्रदेश कुछ इसी तरह का जनादेश जाहिर करने वाला है। राजनीति मामूली बातों से गूढ़ अर्थ निकालने का मायाजाल है।
लोकतंत्र में जीत या हार स्थायी भाव हैं, पर 2017 के विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में जैसी जीत हासिल की है, उसकी कल्पना उनके नेताओं ने भी नहीं की होगी। पंजाब में आम आदमी पार्टी इस तरह हारेगी, यह भी अंदेशों से परे था।
भारतीय जनता पार्टी से बात शुरू करने की इजाजत चाहूंगा। अमित शाह ने 2013 में, जब उत्तर प्रदेश में भगवा दल के विस्तार का काम शुरू किया, तब किसने सोचा था कि लोकसभा में पार्टी को 72 सीटें मिलेंगी और अन्य दल उनके बनाए जाल में छटपटाते नजर आएंगे? उस समय उसे ‘मोदी लहर’ माना गया था। मौजूदा भारतीय राजनीति का इतिहास गवाह है कि सियासी लहरें दो-तीन साल में धार खोने लगती हैं। विपक्षियों को इसी का इंतजार था, पर ऐसा नहीं हुआ। मार्च 2017 के चुनाव परिणामों पर नजर डाल कर देखिए। 2014 का करिश्मा जैसे खुद को दोहरा रहा है।
इसके लिए अमित शाह, ओम माथुर, सुनील बंसल, केशव प्रसाद मौर्या और उनकी टीम ने दिन-रात मेहनत की। उन्होंने राजनीति को नई निगाहों से परखा। वे जानते थे कि अल्पसंख्यक उन्हें वोट नहीं देंगे। ऐसा पहली बार हुआ, जब भारतीय जनता पार्टी ने एक भी मुसलमान को टिकट नहीं दिया। उन्हें पता था कि दलितों में जाटवों और पिछड़ों में यादवों की पसंद पूर्व निर्धारित है। उन्होंने अपना सारा ध्यान गैर-यादव पिछड़ों और गैर-जाटव दलितों पर लगा दिया। पार्टी के अंदर उनके विरोधी आरोप लगाते थे कि इससे परंपरागत ‘वोट बैंक’ यानी अगड़े नाराज हो सकते हैं, लेकिन उनकी उपेक्षा नहीं की गई। राजनाथ सिंह और कलराज मिश्र की दर्जनों चुनाव सभाएं इस बात का प्रमाण हैं कि ‘जनरल कैटेगरी’ के वोटों की भी अनदेखी नहीं की गई। भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ है, जब 70 फीसदी लोगों को ध्यान में रखकर लड़ा गया चुनाव इतना फलप्रद साबित हुआ हो।
यहां यह मान लेना भूल होगी कि भाजपा की यह जीत सिर्फ इस ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का नतीजा है। इसका बड़ा श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को जाता है। सत्ता में पौने तीन साल बीत जाने के बावजूद उन्होंने सरकार पर भ्रष्टाचार का एक छींटा तक नहीं पड़ने दिया है। वह एक शक्तिशाली और सर्वमान्य नेता की हैसियत से सरकार चलाते हैं। ‘सर्जिकल स्ट्राइक’ और ‘नोटबंदी’ के फैसले इसका उदाहरण हैं। यह मोदी का ही करिश्मा है कि नोटबंदी से हुई तकलीफों के बावजूद मतदाताओं ने उन पर से भरोसा नहीं डिगाया। वह जहां गए, लोग उन्हें सुनने के लिए उमड़ पडे़ और उनकी बातों पर अमल करना चालू कर दिया। जिस दिन उन्होंने शमशान और कब्रिस्तान का मुद्दा छेड़ा था, उसके अगले दिन मैं उस सभा स्थल के आस-पास के गांवों में घूम रहा था। नीतिशास्त्री नाक-भौंह सिकोड़ रहे थे, मगर मतदाता उन पर न्योछावर हुए जा रहे थे। वाराणसी में भी जब उन्होंने तीन दिन तक डेरा डाला, तो परंपरागत राजनीति के अभ्यस्त लोगों ने सवाल उठाने शुरू कर दिए। इन सवालों का जवाब जनता ने दे दिया है।
राजनीति में प्रश्न उठते रहते हैं और आगे भी उठेंगे कि क्या यह ध्रुवीकरण की राजनीति है? क्या इस तौर-तरीके को ‘सबको साथ लेकर चलना’ कहेंगे? उम्मीद है कि आने वाले दिनों में नरेंद्र मोदी इनका जवाब जरूर देंगे। कभी अब्राहम लिंकन अथवा लेनिन को भी ऐसा ही करना पड़ा था। इस तरह के उत्तर विजेताओं को ‘स्टेट्समैन’ में तब्दील कर देते हैं।
अब आते हैं समाजवादी पार्टी पर। चुनावी परिणामों ने अखिलेश यादव की तमाम कोशिशों पर पानी फेर दिया है। वह और कांग्रेस मिलकर सौ सीटें भी नहीं जीत सके। इसके लिए पारिवारिक कलह, मुस्लिम मतों का बिखराव, कांग्रेस का खराब प्रदर्शन, टिकट वितरण में देरी और बूथ प्रबंधन के अभाव को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है। एक तरफ, नरेंद्र मोदी और अमित शाह की बुलडोजर शैली की रणनीति थी, तो दूसरी तरफ अंतर्विरोधों से जूझती नौजवानों की फौज!
अखिलेश यादव की लड़ाई यहीं समाप्त नहीं होती। उन्हें यकीनन एक बार फिर पारिवारिक द्वंद्व से गुजरना होगा। चाचा शिवपाल यादव ने अंतिम परिणाम आने से पूर्व ही इसका आगाज कर दिया। वह इसे समाजवादियों की नहीं, बल्कि ‘घमंड की हार’ बता रहे हैं। उनके समर्थक कह रहे हैं कि जल्द ‘कुछ बडे़ फैसले’ लिए जाएंगे। अगर अखिलेश दृढ़ता और क्षमता के साथ अंदर और बाहर के इस संघर्ष का सामना कर सके, तो इसमें कोई दो राय नहीं है कि वह उत्तर प्रदेश के सर्वाधिक संभावनाशील नेता होंगे।
यहां मायावती की चर्चा जरूरी है। 2012, 2014 और 2017 के चुनावों पर नजर डाल देखिए। उनका ग्राफ लगातार नीचे गिरा है। वह अब इस हार का ठीकरा ईवीएम पर फोड़ रही हैं। तय है कि ‘कोर वोटर’ पर उनकी पकड़ ढीली पड़ रही है। उनकी राजनीतिक शैली का आकर्षण ढलान पर है। यकीनन, मायावती को अपनी रीति-नीति की ‘ओवर हॉलिंग’ की जरूरत है।
इसी तरह, आम आदमी पार्टी को भी एक बार अपनी रणनीति पर विचार करना होगा। पंजाब में उन्होंने काफी हो-हल्ले के साथ चुनाव लड़ा। शनिवार की सुबह जब परिणाम आने को थे, तब अरविंद केजरीवाल के दिल्ली स्थित आवास पर जैसे दिवाली मनाई जा रही थी। उनके सहयोगी कपिल मिश्रा जोर-शोर से टीवी पर बखान कर रहे थे कि ‘एक नए जननायक का उदय’ हो चुका है। उम्मीद है, आगे से इस पार्टी के वरिष्ठ लोग बडे़ वचनों की जगह बड़े कामों को तरजीह देंगे।
अंत में कांग्रेस की बात। यह ठीक है कि पंजाब ने देश की सबसे पुरानी पार्टी की इज्जत बचा ली है, पर उत्तराखंड में उसे शर्मनाक तौर पर हारना पड़ा है। मुख्यमंत्री हरीश रावत दोनों सीटों से चुनाव हार गए हैं। जिस तरह उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी पिटी है, लगभग वही हश्र उत्तराखंड में कांग्रेस का हुआ है। हालांकि, ये पंक्तियां लिखे जाने तक मणिपुर और गोवा के पूरे परिणाम नहीं आ सके हैं। वहां कांग्रेस बेहतर कर सकती है, पर यहां की जय-पराजय का असर सीमित होता है। अगर पंजाब में शिकस्त मिल गई होती, तो मोदी-शाह की जोड़ी द्वारा रचा गया नारा ‘कांग्रेस मुक्त भारत’ सतह पर आ गया होता। जाहिर है, कांग्रेस को पुराना गौरव दिलाने के लिए जद्दोहद कर रहे राहुल गांधी का रास्ता लंबा और जटिल है।
11 मार्च, 2017 के जनादेश ने ‘मोदी नाम केवलम्’ के नारे को हवा दी है और समूचे विपक्ष को करारी शिकस्त। प्रधानमंत्री के सामने अब अपनी ‘कथनी’ को ‘करनी’ में बदलने की चुनौती है, वहीं धूल-धूसरित विपक्ष को फिर से अखाड़े में लौटने के लिए हौसला संजोना है। जब गुजरात और हिमाचल के चुनाव सामने खड़े हों, तो दोनों पक्षों को जो करना है, जल्दी करना होगा।
@shekharkahin
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