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मुस्लिम वोट बैंक का मिथक

चर्चा की शुरुआत तो देवबंद के दारुल उलूम से करना चाहता था, पर इसका मौका नहीं मिला। हमने वहां स्थित पदाधिकारियों से उनके यहां आने की दरख्वास्त की, तो जवाब मिला कि चुनाव तक हम किसी से नहीं मिलेंगे। जिन...

मुस्लिम वोट बैंक का मिथक
लाइव हिन्दुस्तान टीमMon, 13 Feb 2017 06:16 PM
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चर्चा की शुरुआत तो देवबंद के दारुल उलूम से करना चाहता था, पर इसका मौका नहीं मिला। हमने वहां स्थित पदाधिकारियों से उनके यहां आने की दरख्वास्त की, तो जवाब मिला कि चुनाव तक हम किसी से नहीं मिलेंगे। जिन संस्थानों पर विचारों को पोसने की जिम्मेदारी होती है, वे वैचारिक मंथन से भागते क्यों हैं?

किसी बहस में पड़े बिना मैंने उत्तर प्रदेश के गांवों और शहरों में बसे उन लोगों के बीच जाना तय किया, जो धर्मों को मानते हैं, जो जातियों को स्वीकारते हैं, जो वोट डालते हैं और जिनके मतों से सिंहासन तक हिल जाते हैं। हमारा पहला मुकाम था, उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर और शामली जिलों का ग्रामीण अंचल।

आप चकित होंगे कि हम देवबंद क्यों जाना चाहते थे? हमने पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गांवों और शहरों का रुख क्यों किया? बता दूं। बचपन से सुनता आया हूं कि मुस्लिम एक ठोस ‘वोट बैंक’ है। मन में हमेशा प्रश्न उठता था कि फिर उनके हालात क्यों नहीं बदलते? विभिन्न कमेटियों का आकलन है कि उनकी स्थिति दलितों से अधिक दयनीय है। आखिर क्यों? यही सवाल जब सिसौली के पास गन्ने के खेत की मेड़ पर खड़े कुछ नौजवानों से किया, तो उन्होंने कहा कि ‘वोट बैंक’ की तो वो जाने, जो हमारे लिए ऐसा सोचते हैं, पर यह सच है कि कुछ मुद्दों पर कभी-कभी आम राय बनाने की कोशिश की जाती है। ऐसा सिर्फ हमारे यहां होता हो, यह जरूरी नहीं। आखिर अन्य बिरादरियों की भी तो पंचायतें होती हैं, मजलिसें जुटती हैं।

आगे प्रादेशिक मार्ग के एक तिराहे पर मौजूद चाय की दुकान पर जमा लोगों से मैंने सीधे यह सवाल किया। एक पके बालों वाले सज्जन का जवाब था कि आप किसी खास धर्म को न देखें। हम हमेशा से जातियों और धर्मों में बंटकर रहते आए हैं। कभी-कभी आपस में टकरा जाते हैं, फिर भी साथ चलते और बढ़ते रहते हैं। चुनाव जीतने के लिए जाति-धर्म का भी इस्तेमाल किया जाता है, जबकि इन्हें सामाजिक काम-काज तक ही सीमित रहना चाहिए।

क्या आजादी के लगभग सात दशकों में कोई परिवर्तन आया है? इस सवाल के जवाब में काफी देर से चुप बैठे एक सज्जन बोल पड़े, ‘हां जी, ऐसा हुआ है। मैं दलित हूं और अपने गांव का प्रधान चुना गया हूं। आज यहां ‘चौधरियों’, ‘पंडितों’ और ‘बड़ों’ के बीच बराबरी से बैठता हूं।’ ‘फिर दंगे क्यों होते हैं?’, मेरी उत्कंठा उभरी। जवाब में सबने राजनीति को दोषी ठहरा दिया। मेरा प्रति-प्रश्न था, क्या नेता सारी आफत की जड़ हैं? सामूहिक जवाब था- हां।

बातचीत जज्बाती और रस्मी हो चली थी। मैं उठ लिया।

अगला मुकाम था, मेरठ। वहां नायब काजी सहित विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और मुस्लिम समुदाय के तमाम लोगों से मैंने यही सवाल पूछा। लगभग सभी का मानना था कि रह-रहकर इस तरह की आवाजें उठाई जाती हैं कि कुछ तंग-दिमाग लोग बौखला उठते हैं। हर जाति और धर्म में ऐसे नेता हैं, जिनका काम सिर्फ उत्तेजना फैलाना है। कोई अधिक बच्चे पैदा करने का सुझाव देता है, तो दूसरा किसी पवित्र माने जाने वाले पशु को निवाला बनाने का दम भर देता है। उनमें से कुछ ने अपनी पार्टियां बना ली हैं, तो कुछ के पास राजनीतिक दलों की अलमबरदारी है। वे रह-रहकर चिनगारियों का मेला लगाने की कोशिश करते हैं।

वे सही थे। अंगारे ठंडे पड़ने के बाद भी अपना काम करते रहते हैं।

इसका उदाहरण फिरोजाबाद में देखने को मिला। वहां मुझे विभिन्न आय-वर्ग के मिश्रित समूह से रूबरू होने का मौका मिला। ये लोग ‘हिन्दुस्तान’ के लोकप्रिय कार्यक्रम ‘आओ राजनीति करें’ के तहत इकट्ठा हुए थे। एक संभ्रांत महिला ने जोर देकर कहा कि ‘ये लोग’ अपने बच्चों को पढ़ाना तो चाहते ही नहीं, इस पर ‘उन लोगों’के बीच की एक महिला का जवाब था कि ऐसा कौन मां-बाप है, जो अपनी संतानों को तालीम नहीं देना चाहता? पर आर्थिक विवशताएं अक्सर बाल मजदूरी को बढ़ावा देती हैं। हमारे शहर की फैक्टरियों और दुकानों पर जो बच्चे काम करते हैं, वे इसी मजबूरी के प्रतीक हैं।

वहीं मौजूद एक सूट-बूट धारी मुस्लिम सज्जन ने कहा कि मेरे पास साधन थे, तो मैंने अपने बच्चों को पढ़ाया और वे सभी प्रतियोगी परीक्षाओं में पास होकर ऊंचे ओहदों पर बैठे हैं। हमारी कौम की दयनीय स्थिति पर सच्चर, कुंडू, रंगनाथ मिश्र और सुधीर कमेटियों ने जो सिफारिशें कीं, वे अभी तक लागू नहीं की गईं। हकीकत यह है कि हमें ‘वोट बैंक’ बताने वाले लोग ही हमें आगे बढ़ने से रोकते हैं, ताकि हम हमेशा उनके चंगुल में फंसे रहें।

वे गलत नहीं थे। साल 2011 की जनगणना के मुताबिक देश में मुस्लिम आबादी 17 करोड़, 22 लाख यानी कुल जनसंख्या की 14.2 प्रतिशत है। इसी जनगणना के मुताबिक उत्तर प्रदेश की कुल आबादी में 19.26 प्रतिशत मुस्लिम हैं, तो उत्तराखंड की जनसंख्या में 13.95 फीसदी उनकी हिस्सेदारी है। तय है, इतनी बड़ी जनसंख्या तमाम सीटों का चुनावी परिणाम प्रभावित कर सकती है, पर उनके वोटों से सत्ता-सदन में पहुंचे लोगों ने उन्हें मूल सुविधाओं से वंचित कर रखा है।

इस बहस को नया मुकाम मिला अलीगढ़ में। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के एसोशिएट प्रोफेसर डॉक्टर नावेद अहमद का कहना था कि यह गलत है कि मुसलमान एकतरफा वोट डालते हैं। हम भी सोचते हैं, भले-बुरे का ख्याल करते हैं और फिर वोट डालते हैं। एक और सहभागी ने कहा कि असम के चुनावों को याद कीजिए। एक पार्टी सोचती थी कि ध्रुवीकरण कर लेगी और दूसरी उसका डर दिखाकर ‘हमें’ एकजुट करना चाहती थी। उनके हिसाब से तो ‘हमें’ एक हो जाना चाहिए था, पर ऐसा हुआ तो नहीं। वोट बंटे, क्योंकि लोगों ने अपने विवेक और पसंद को ध्यान में रखा।
ए.एम.यू. के ही डॉक्टर जसीम अहमद ने कमाल की बात कही कि एक खास किस्म की वेशभूषा और भाषा वाले लोगों ने खुद को मुसलमानों का नुमाइंदा साबित कर दिया है। वे टेलीविजन पर आते हैं, वे नेताओं से मिलते हैं, वे हर जगह पाए जाते हैं। आप भी इसी ‘सिंड्रोम’ के शिकार हैं। सकपका कर मैंने पूछा- कैसे? उन्होंने कहा कि ऐसा न होता, तो आप देवबंद से अपनी इस विचार-यात्रा की शुरुआत की न सोचते। बात में दम था।

डॉक्टर जसीम ने प्रधानमंत्री के रेडियो उद्बोधन ‘मन की बात’ का संकलन और उर्दू-तर्जुमा भी किया है।

चलते-चलते उन सभी ने साथ फोटो खिंचाने का अनुरोध किया। कैमरा ‘क्लिक’ होने से पहले किसी ने फुलझड़ी छोड़ी कि हममें से तो किसी ने वैसा रूप धारण नहीं कर रखा है, जिसके लोग अभ्यस्त हैं। जाकर किसी को बताइएगा कि आप मुसलमानों के साथ खड़े हैं, तो कोई यकीन नहीं करेगा।

जोर का ठहाका लगा, जिसे कैमरे ने कैद कर लिया। 

@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

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