प्रथम वचन: आजादी का असल अर्थ
महान यूरोपीय दार्शनिक रूसो ने कहा था, ‘‘मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, लेकिन वह हर तरफ से जंजीरों में बंधा हुआ है।’’ उनके इस वाक्य के बहुत से अर्थ-अनर्थ निकाले जाते रहे हैं।...
महान यूरोपीय दार्शनिक रूसो ने कहा था, ‘‘मनुष्य स्वतंत्र पैदा हुआ है, लेकिन वह हर तरफ से जंजीरों में बंधा हुआ है।’’ उनके इस वाक्य के बहुत से अर्थ-अनर्थ निकाले जाते रहे हैं। अक्सर देखा गया है कि आजादी के नाम पर लड़ी गई लड़ाइयां एक और गुलामी या आंशिक स्वतंत्रता पर जाकर खत्म हो जाती हैं।
उदाहरण देता हूं- हमारे देश के बड़े भू-भाग पर माओवादी तथाकथित आजादी के लिए संघर्ष कर रहे हैं। वे अब तक हजारों लोगों को मौत के घाट उतार चुके हैं, पर उनकी रक्त पिपासा शांत होने का नाम नहीं ले रही। वे जिन अधिकारों और तथाकथित बराबरी के लिए लड़ कर रहे हैं, वह कब की बेमानी साबित हो चुकी है।
इसी तरह कश्मीर घाटी रह-रहकर सुलग उठती है। क्या वहां के लोगों को वाकई आजादी चाहिए? मुझे इस पर शक है। आतंक और अलगाव अंतरराष्ट्रीय स्तर के व्यापार बन चुके हैं। इनके नाम पर अरबों रुपये का लेन-देन होता है। इसमें बहुतों के हित जुड़े हैं। इसीलिए रह-रहकर इतिहास की खोह में दफन हो चुके मुर्दों को जिंदा करने की कोशिश की जाती है। यह एक ऐसा कुत्सित धंधा है, जो इंसानियत को शर्मसार करता रहता है।
हम वक्त के ऐसे विरल दौर में दाखिल हो चुके हैं जब किस्म-किस्म के मजहबी नारे गढ़कर स्वहित साधना की जा रही है। आतंक को फैलाने के लिए जिस तरह धर्म का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह ‘स्वतंत्रता’ नाम के पवित्र शब्द पर सबसे बड़ा आघात है। 14 जुलाई को नीस में ‘बास्तील दिवस’ मना रहे लोगों पर ट्रक चढ़ाकर एक सिरफिरे ने क्या साबित किया? 1789 को इसी महान दिन फ्रेंच क्रांतिकारियों ने दुनिया को तीन शब्दों के नए मानी दिए थे- स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व।
नीस के हमलावर ने इस दिन को चुनकर सिद्ध कर दिया कि इस तरह के तत्व इंसानी आजादी के लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। उन्हें न स्वतंत्रता चाहिए, न समता और न बंधुत्व। वे अपनी बंदूकों और बमों के दम पर अपनी मनमर्जी हम पर थोपना चाहते हैं। उस शाम 84 लोगों को ही नहीं कुचला गया, लोकतंत्र की शक्ल पर भी कालिख पोतने की कोशिश की गई।
दरअसल, हर तरफ स्वतंत्रता के नाम पर लोगों को परतंत्रता की नई बेड़ियों में जकड़ने की साजिशें हो रही हैं। अपने देश में 15 अगस्त जश्न-ए-आजादी नहीं, बल्कि बंदिशों का पर्याय बन गया है। वजह? देश का हर महत्त्वपूर्ण शहर उस दिन आतंकवादियों के निशाने पर होता है। सुरक्षा एजेंसियों को मजबूरन किस्म-किस्म के एहतियात लागू करने पड़ते हैं। सवाल उठते हैं कि आजादी क्या एक निरर्थक भाव है? क्या यह सिर्फ एक सपना है? एक थोथी नारेबाजी है?
मेरे ख्याल में यह ऐसा पावन भाव है, जिसे थोपा नहीं आत्मसात किया जाना चाहिए। ऐसा तभी हो सकता है, जब हम एक-दूसरे के विचारों का सम्मान करें और दूसरों को अपने जीवन के कुछ अधिकार इस शर्त पर सौंपें कि वे भी अपने कुछ हक-हुकूक हमसे साझा करेंगे। रूसो ने अपने वैचारिक सहचरों हॉब्स और लॉक के साथ राज्य के उद्भव की भावभरी ‘सोशल कांटे्रक्ट थ्योरी’ रची थी। अफसोस, उनके कथन का दुरुपयोग करनेवाले इसे जान-बूझकर बिसरा देते हैं।
@shekharkahin
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