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नदियों को बोलिए, मां तुझे सलाम

पिछले दिनों वाराणसी में लंका से बाबतपुर हवाई अड्डे की दूरी नापते वक्त मन में बेचैन कर देने वाला सवाल उठा- क्या काशी की विस्तार और क्षरणयात्रा एक साथ आगे बढ़ रही है?   इस प्रश्न की वजह बताता...

नदियों को बोलिए, मां तुझे सलाम
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 07 May 2016 09:40 PM
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पिछले दिनों वाराणसी में लंका से बाबतपुर हवाई अड्डे की दूरी नापते वक्त मन में बेचैन कर देने वाला सवाल उठा- क्या काशी की विस्तार और क्षरणयात्रा एक साथ आगे बढ़ रही है?  
इस प्रश्न की वजह बताता हूं। 
पिछले दिनों काशी हिंदू विश्वविद्यालय में आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लेने गया था। आते-जाते वक्त कुछ ऐसे अनुभव हुए, जो आशंकित करते हैं। जो लोग इस पुरातन शहर को नहीं जानते, उन्हें बता दूं, बीएचयू से बाबतपुर हवाई अड्डे के लिए चलिए, तो पहले 'अस्सी नाले' को लांघना पड़ता है। बाद में जब जानलेवा ट्रैफिक से जूझते हुए हम वरुणा पुल पर पहुंचते हैं, तो राहत की सांस लौटती है। चलो, जाम के झाम से मुक्ति मिली। 40 बरस से देख रहा हूं। वरुणा अपने पुल के नीचे मरियल गति से सरकती हुई गंगा की ओर बढ़ती जाती है। उसकी क्षीण काया हमेशा दुखी करती थी, पर इस बार तो ऐसा लगा कि बूढ़ी दादी दम तोड़ रही है। बजबजाते कूडे़ के ढेर के बीच नाली की तरह बच-बचकर निकलती वरुणा देर तक मन को सालती रही। गौर करें, मैंने 'असि' को 'अस्सी नाला' लिखा है। कारण महज इतना है कि बचपन से आजतक उसे सिर्फ नाले के रूप में देखा है। पौराणिक आख्यान बताते हैं कि वरुणा और असि नदियों के बीच बसे भूभाग को वाराणसी कहते हैं।

जरा सोचें, अगर आज कोई काशी के बारे में लिखना चाहे, तो क्या वह भी वरुणा और असि को 'नदियां' लिखना चाहेगा? यह भी मान्यता है कि इन दोनों नदियों के मध्य बसे क्षेत्र में यदि कोई व्यक्ति अंतिम सांसें लेता है, तो उसे जन्म-जन्मांतर के बंधन से मुक्ति प्राप्त हो जाती है। असि मेरे पैदा होने से पहले नाले में तब्दील हो गई, पर वरुणा! एक नदी हमारे सामने मर रही है और हम नपुंसक निर्लिप्तता ओढे़ हुए हैं। मेरी काशी यात्रा से एक दिन पहले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव वहां आए थे। वरुणा की दुर्दशा से व्यथित होकर उन्होंने उसे पुन: प्रवाहमयी बनाने का संकल्प जग-जाहिर किया। क्या बात है! प्रधानमंत्री गंगा को साफ करना चाहते हैं और मुख्यमंत्री वरुणा को, पर क्या यह सिर्फ सरकारों का सिरदर्द है? यकीनन नहीं। नदियां हमारी सभ्यता और संस्कृति की जननी हैं। हमारे पुरखे इन्हीं के तट पर जन्मे, जिए और अपने समाज को गढ़ने में भूमिका अदा की। इस मुद्दे पर आगे बात करेंगे, पहले मौजूदा हालात की पड़ताल कर लेते हैं।

दुनिया भर में जल के बारे में शोध करने वाली प्रतिष्ठित संस्था यूनेस्को-आईएचई ने 1996 से 2005 के बीच भारतीय सदानीराओं का अध्ययन किया था। उनके शोध के अनुसार, इस महादेश में अकेली नदी है ब्रह्मपुत्र, जिसमें साल भर समुचित मात्रा में जल कलकल करता है। महानदी में भी संतोषजनक जल प्रवाह है, पर बाकी नदियां दम तोड़ रही हैं। सबसे बुरा हाल कावेरी और सिंधु का है। इनमें साल में आठ महीने यथोचित मात्रा से कम पानी रहता है। कावेरी तो दक्षिण के पहाड़ों से निकलकर अपना रास्ता तय करती है, पर सिंधु? इसके दर्शन सिर्फ हिमालय की हिमाच्छादित वादियों में होते हैं। बरसों पहले लेह में जब पहली बार सिंधु तट पर जाने का मौका मिला, तो लगा था कि मैं अपने आदि तीर्थ पर आ गया हूं। इसी सदानीरा के कारण हमारा नाम 'हिंदू' पड़ा था। संसार की सबसे पुरानी सभ्यता इसी की घाटियों में जन्मी थी। इंसानियत के शैशव से आधुनिक युग की चरम भौतिकता तक यह नदी हमें पोषित और प्रेरित करती रही है। हम हिन्दुस्तानी, इसके ऋण से उऋण नहीं हो सकते। इसका पतन हमारा पराभव है।

यूनेस्को की रिपोर्ट के मुताबिक, गंगा, यमुना, गोदावरी, दामोदर और नर्मदा का भी हाल-बेहाल है। बरसात के कुछ महीने छोड़ दें, तो साल में सात माह इनके प्रवाह में भयंकर कमी पाई जाती है। वर्ष 2014 में वन एवं पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर ने संसद में बताया था कि देश की 150 नदियां प्रदूषण की चपेट में हैं। सबसे बुरा हाल महाराष्ट्र का है। उसके बाद गुजरात और उत्तर प्रदेश का नंबर आता है। महाराष्ट्र की 28, गुजरात की 19 और उत्तर प्रदेश की 12 नदियां पर्यावरण के असंतुलन से कराह रही हैं। सिंधु ने तो हमें हिंदू या हिन्दुस्तानी बनाया, पर इन नदियों ने सही अर्थों में हमारी संस्कृति को जना और पोसा। 
याद करें। जब संसार की पुरानी सभ्यताएं आंखें खोलने की कोशिश कर रही थीं, तब हमारे यहां राष्ट्रीयता का अनोखा सूरज उग रहा था।

इन सदानीराओं के सदाव्रत का प्रताप था कि तमाम नस्लों, बोलियों, आस्थाओं के बावजूद पंचनद पहले आर्यावर्त बना और फिर जंबूद्वीप। अंग्रेज भले ही गुमान रखें कि बरतानिया की हुकूमत ने हमें 'सभ्य' बनाया, पर सच यह है कि इन धाराओं के किनारे आर्य और द्रविड़ सभ्यताएं तब पनपीं, जब इंग्लैंड जहालत जी रहे कबीलों का समूह हुआ करता था। इन्हीं नदियों की बारहमासी मौजों ने हिन्दुस्तानियों को साथ जीना और साथ रहना सिखाया। इन्हीं के तट पर महाकाव्य रचे गए। इन्हीं की घाटियों में महान आविष्कार जन्मे। शून्य, जिसके बिना अंकगणित अधूरा है, गंगा घाटी की वैचारिक उपज है।
क्या हम इन्हें मरते देख सकते हैं? 
कुछ शर्म और संकोच के साथ कहना चाहूंगा कि हजारों साल से हम भारतीय महान कामों के साथ तमाम गुनाहों के अभ्यस्त रहे हैं। श्लोकों में हम बोलते हैं कि गंगा-यमुना-सरस्वती। कहां है सरस्वती? दस-पांच साल पहले लोग इसे पौराणिक कल्पना मानते थे, पर अब नए शोधों ने साबित कर दिया है कि वाकई इस नाम की एक नदी बहती थी। अगर आज वह होती, तो राजस्थान का रेगिस्तान भी लहलहा रहा होता। आज की नदियां अगर कल सूख गईं, तो समूचा भारत मरुथल बन जाएगा। 
ऐसा हुआ तो इतिहास के लेखे-जोखे में हम कहां होंगे? हमारा नाम उन लोगों के साथ दर्ज किया जाएगा, जिन्हें आज कुल कलंक माना जाता है। यहां यह साफ कर देने में मुझे कोई संकोच नहीं कि उत्तर प्रदेश की ईसन, सई, मगई, गड़ई, तमसा, चंद्रप्रभा, खजूरी जैसी नदियों का 'जल' हमारे देखते-देखते सूख चुका है। इन्हें 'मृत' मान लेने में हर्ज नहीं।

ये वो नदियां हैं, जिनके किनारे छोटी-बड़ी बसावटें हुईं। शताब्दी-दर-शताब्दी बारातें आईं। पीढ़ी-दर-पीढ़ी बच्चे जने गए। मृत्यु के बाद लोगों ने अपनी अंतिम यात्रा इन्हीं के तटों से शुरू की। ये हमारी बेगैरती का नमूना हैं, क्योंकि हमारी तमाम खानदानी परंपराएं इन्हीं की देन हैं। हमारी राष्ट्रीय एकता को भी इन्होंने सहेजकर रखा। धार्मिक अनुष्ठानों के दौरान पंडित लोग सप्त सरिता यानी गंगा, यमुना, गोदावरी, सरस्वती, नर्मदा, सिंधु तथा कावेरी का आह्वान करते हैं। हजारों किलोमीटर में बहती ये प्रवाहिनियां भले एक-दूसरे से न मिलें, पर भाविक तौर पर भारतीय इनके जरिये परस्पर जुड़े रहे हैं। यह सब सोचते, गुनते और बुनते अचानक श्रीकांत वर्मा याद आ गए- 
मित्रो/ तुमने तो देखी है काशी/ जहां, जिस रास्ते/ जाता है शव/ उसी रास्ते/ आता है शव!/ तुमने सिर्फ यही तो किया/ रास्ता दिया/ और पूछा-/ किसका है यह शव?
याद रखें, नदियों के किनारे शवदाह होते हैं, पर उन्हें शवों में तब्दील नहीं किया जा सकता। जो लोग आज 'मदर्स डे' मना रहे हैं, उनसे अनुरोध है कि वे इस मुद्दे पर भी गौर करें और इन नदियों को कहें- मां, तुझे सलाम। 
@shekharkahin 
shashi.shekhar@livehindustan.com

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