फोटो गैलरी

Hindi Newsभगीरथ की प्यासी संतानें

भगीरथ की प्यासी संतानें

मैं उन दिनों इलाहाबाद के भारत स्काउट्स ऐंड गाइड्स हाईस्कूल में कक्षा पांच का छात्र था। एक रिक्शे वाला मुझे और मेरी बहन को अक्सर स्कूल से घर छोड़ता। वह बेहद गरम दोपहर थी, जब उसने कहा कि जरा पानी पिला...

भगीरथ की प्यासी संतानें
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 23 Apr 2016 10:26 PM
ऐप पर पढ़ें

मैं उन दिनों इलाहाबाद के भारत स्काउट्स ऐंड गाइड्स हाईस्कूल में कक्षा पांच का छात्र था। एक रिक्शे वाला मुझे और मेरी बहन को अक्सर स्कूल से घर छोड़ता। वह बेहद गरम दोपहर थी, जब उसने कहा कि जरा पानी पिला दो। मैंने रसोई से लोटा उठाया, घड़े से पानी लिया और दरवाजे पर वापस पहुंचा। पानी पीने के लिए चुल्लू आगे करते हुए उसने बड़ी शिकायत और हिकारत से मेरी ओर देखकर कहा- ‘सिर्फ पानी!’

उन दिनों किसी को सिर्फ पानी देने की प्रथा नहीं थी। हमेशा साथ में गुड़़ की डली, बतासे अथवा मिठाई दी जाती। मां-बाप भी यही सिखाते थे। मैंने उस दिन इस संस्कार भरी सीख की उपेक्षा की, जवाब में हिकारत भरी शिकायत मिली। मेरा जन्म सरकारी अधिकारी के यहां हुआ था। पिता गर्व से कहते कि तुम्हारे बाबा पांच गांवों के जमींदार थे। मैंने उस दिन अपने पारिवारिक संस्कारों की अवमानना की थी। रिक्शे वाले की सीख उस समय समझ में नहीं आई, पर जैसे-जैसे बड़ा होता गया, उसके अर्थ खुलते गए।

क्या है वह सीख?
इस वाकये को जरा गौर से देखें, तो पाएंगे कि समाज की सबसे निचली इकाई पर खड़े उस व्यक्ति और मेरे पिता के बीच सोच-समझ की मजबूत डोर थी। दोनों मानते थे कि ‘जल दान’ से बड़ा कोई दान नहीं होता। इसका निर्वाह सम्मान और पारंपरिक गरिमा के साथ किया जाना चाहिए। यही वजह है कि उन दिनों गांवों में महिलाएं घर में जो पानी रखतीं, उसकी एक-एक बूंद के सदुपयोग की शिक्षा बच्चों को दी जाती। शताब्दी-दर-शताब्दी गंगा और यमुना की संतानों ने इन संस्कारों को सहेजा और बरता था। उच्छृंखल शहरीकरण और ग्रामीण अर्थव्यवस्था की टूटन ने ऐसी परंपराओं को झकझोर दिया है। मैं उदारीकरण का विरोधी नहीं हूं, पर विकास के नाम पर हम विनाश की संरचना कैसे कर सकते हैं? प्रकृति भी अब इस अवमानना को बर्दाश्त नहीं कर पा रही है।
क्या हम उसके गम और गुस्से को समझ पा रहे हैं?
कुछ दिनों पहले जब ‘वाटर-ट्रेन’ पांच लाख लीटर पानी लेकर लातूर पहुंची, तो खुशामदी सियासी कार्यकर्ता टैंकरों पर महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के प्रति आभार जताते बैनर लगाने लगे। गोया इस देश में लोकतंत्र नहीं, बादशाहत है, जहां हुक्मरान अपनी रिआया के सूखे कंठों पर पानी की कुछ बूंदें टपकाकर लोगों से एहसानमंद होने की अपेक्षा करते हैं। जिस ‘जल-दूत’ के लिए स्तुतिगान रचे जा रहे थे, वह कोई नया आविष्कार नहीं है। सौराष्ट्र में 1986 में भयंकर सूखा पड़ा था। तत्कालीन मुख्यमंत्री अमरसिंह चौधरी ने उन्हीं दिनों पहली बार राजकोट ‘वाटर-ट्रेन’ भेजी थी। राजस्थान के कुछ रेतीले हिस्सों की तो यह स्थायी नियति है। और तो और, अमेरिका में भी ट्रेन से पानी पहुंचाया जाता रहा है।
ऐसा क्यों हो रहा है?
इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि हमने जल के जीवन-तत्व का सम्मान करना छोड़ दिया है। हमारे पूर्वजों ने जो कुएं, जलाशय, बावड़ियां आदि बनाई थीं, उनका रख-रखाव तो दूर, उन्हें पाटकर बहुमंजिली इमारतें खड़ी कर दी गई हैं। मैं उत्तर प्रदेश के एक कुख्यात बिल्डर को जानता हूं। उसने देखते-देखते अनेक तालाबों को कंक्रीट के संजाल में बदल दिया। ये जलाशय आसपास की बस्तियों के भूजल-स्तर को बचाए रखने और बनाने में बड़ी भूमिका अदा करते थे। यह ‘महानुभाव’ अकेले नहीं हैं। मुंबई को बढ़ाने के लिए बिल्डरों, राजनेताओं, पूंजीपतियों और नौकरशाहों के गठजोड़ ने तो समुद्र को ही पीछे हटने पर विवश कर दिया। पहाड़, पठार, जंगल और जल पर डकैती नई बात नहीं है।
कुदरत अपने साथ ऐसी बेरहमी कैसे बर्दाश्त कर सकती है? नतीजा सामने है।

‘हिन्दुस्तान’ इन दिनों उत्तर भारत के तमाम इलाकों में पानी की उपलब्धता की पड़ताल करते हुए शृंखला प्रकाशित कर रहा है- ‘बिन पानी सब सून’। इस दौरान हमारे संवाददाताओं ने जो देखा-समझा, वह डराता है। उत्तराखंड ऐसा राज्य है, जहां हिमालय की गोद से दर्जनों छोटी-बड़ी नदियां निकलती हैं। प्रकृति ने यहां तमाम झीलें और ग्लेशियर बनाए हैं। देश की दो महानतम नदियों- गंगा और यमुना का मायका भी यहीं है। यहां तो पानी का संकट नहीं होना चाहिए, पर दुर्भाग्य! इस पर्वतीय प्रदेश में 39,309 बस्तियों में से सिर्फ 21,735 रिहाइशी स्थानों पर मानक के अनुरूप पेयजल पहुंच पा रहा है। प्रदेश के 45 बड़े जलस्रोत जलाभाव के शिकार हो गए हैं। इनमें 35 से 50 फीसदी तक जल कम हो गया है। पारा चढ़ने के साथ यह स्थिति और विकट होने वाली है। 

उत्तर प्रदेश, जिसे गंगा-यमुना और उनकी सहायक नदियों ने बड़े जतन से शताब्दी-दर-शताब्दी सींचा, उसकी बेहाली तो पूछिए मत। इन दोनों महानदियों में सामान्य से कम जल बह रहा है। काली, हिंडन, ईसन जैसी छोटी नदियां या तो सूख गईं, या गंदे नाले में तब्दील हो गईं। इन्हें इनके स्रोत नहीं, बल्कि शहरों का ‘वेस्टेज’ चलाता है। बिहार के बारे में कहा जाता है कि यहां ‘सरप्लस’ पानी है। यहां जल संचयन और संरक्षण की हालत इतनी खराब है कि कई जगह जल-स्तर 30 से 40 फीट तक गिर गया है। गंगा राजधानी पटना से रूठकर दूर चली गई है और उसके बीच में उभरे रेतीले टापू गंगा मैया की दुर्दशा की कहानी कहते हैं। तय है, अब यहां से किसी सम्राट अशोक के बच्चे जलपोत से ‘धम्मयात्रा’ पर नहीं जा पाएंगे। एक समृद्ध इतिहास अपनी संतानों की उपेक्षा से अंधियारे भविष्य की ओर ऐसे ही बढ़ता है।

यह तो थी उन प्रदेशों की बात, जो हरियाली के लिए जाने जाते हैं। देश के अन्य हिस्सों का हाल और अधिक बेहाल है। हिन्दुस्तान के करीब आठ करोड़ लोग साफ पेयजल से वंचित हैं। हर रोज चार हजार से अधिक बच्चे दूषित जल से जन्मे संक्रमणों की वजह से दम तोड़ देते हैं। पिछले साल 10 राज्यों में सूखा घोषित किया गया था और 280 से अधिक जिले जल संकट से हाहाकार कर रहे थे। विशेषज्ञों के आंकड़ों पर यकीन करें, तो स्थिति की भयावहता साफ हो जाती है। भारत में प्रति-व्यक्ति जल की उपलब्धता सालाना एक हजार घन मीटर है, जबकि चीन में दो हजार। अमेरिका में यह आंकड़ा पांच हजार घन मीटर को छू जाता है। यह जानना त्रासद है कि 1951 में भारत में प्रति-व्यक्ति जल की उपलब्धता 3.4 हजार घन मीटर थी। साफ है, हम आगे बढ़ने की बजाय पीछे जा रहे हैं। हमारे विकास के नारे सियासी ढोंग हैं, क्योंकि जल के बिना कोई सभ्यता या समाज फल-फूल नहीं सकता।

यहां मैं साफ करना चाहूंगा कि यह सिर्फ सरकारों और राजनेताओं का संकट नहीं है। इस समस्या से पार पाने के लिए हमें अपनी परंपराओं की शरण में जाना होगा। हिन्दुस्तानियों को जल और जीवन से जुड़े सभी प्राकृतिक तत्वों का सम्मान करना सीखना होगा। पानीदार लोगों की यह धरती पानी की बूंद-बूंद के लिए तरसती-तड़पती अच्छी नहीं लगती। यहां महाराज भगीरथ को याद करने में हर्ज नहीं। उन्होंने अपने पुरखों की ‘मुक्ति’ के लिए इतना कठोर तप किया कि गंगा को भूमि पर उतरना पड़ा। आज जीवन-जल को बचाने के लिए ‘भगीरथ प्रयास’ की जरूरत है। एक भगीरथ ने उत्तर भारत को हजारों सालों के लिए शस्य-श्यामला बना दिया, अब हालात इतने विकट हैं कि हमें दर्जनों भगीरथ चाहिए।
यह किसी राजवंश का नहीं, बल्कि समूचे भारत वर्ष का मामला है।

@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

 

 

हिन्दुस्तान का वॉट्सऐप चैनल फॉलो करें