बात तो राजनेताओं से ही बनेगी
कुछ कुचक्री भारत की पांच हजार साल पुरानी रवायतों को बदरंग करने की साजिशें रच रहे हैं। 'सहिष्णुता' बनाम 'असहिष्णुता' की बहस इसी का नतीजा है। हमारे चारों ओर खोखले तर्कों से निर्मित वैचारिक कचरा फेंका...
कुछ कुचक्री भारत की पांच हजार साल पुरानी रवायतों को बदरंग करने की साजिशें रच रहे हैं। 'सहिष्णुता' बनाम 'असहिष्णुता' की बहस इसी का नतीजा है। हमारे चारों ओर खोखले तर्कों से निर्मित वैचारिक कचरा फेंका जा रहा है, जो अविकसित दिमागों को भरमाने के लिए काफी है।
नमूना पेश है।
हमारे एक पारिवारिक मित्र आगरा में रहते हैं। उन्होंने पिछले दिनों 'व्हाट्सऐप-संदेश' 'फॉरवर्ड' किया। उसमें फ्रेंच मीडिया की तारीफ करते हुए भारतीय मीडिया की खिंचाई की गई थी। मैं आम तौर पर इस तरह के संदेशों को लेकर प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त करता। मुझे लगता है कि यह किसी व्यक्ति विशेष या समूह के विचार हैं। क्यों न अन्य लोगों को उस पर सोचने का अवसर दिया जाए? अक्सर ऐसा पाया गया है कि द्विअर्थी अथवा चरित्र हनन करने वाले संदेशों पर अन्य लोगों ने आपत्ति जताई और प्रेषक ने भी अपनी गलती स्वीकार कर ली। यही कारण है, मैं गर्व सहित अपने देश की महान जनता पर भरोसा करता आया हूं। वे जानते हैं कि उन्हें क्या अपनाना और क्या छोड़ना है!
यहां मामला अलग था।
संदेश 'फॉरवर्ड' करने वाले मित्र के घराने से हमारे परिवार का दो पीढ़ी पुराना रिश्ता है। इस नाते जिम्मेदारी बनती थी कि मैं उनको वैचारिक दलदल में गिरने से रोकूं। जानता था कि बंधुवर को फ्रेंच कतई नहीं आती। मैंने पलटकर उनसे पूछा- क्या आपने फ्रेंच-चैनल देखे हैं? यदि नहीं, तो इस तरह के 'मैसेज' क्यों फॉरवर्ड कर रहे हैं? उत्तर उम्मीद के अनुरूप था। क्षमा-याचना के साथ लिखा गया था कि हम तो महज हिंदी चैनल देखते हैं। प्रत्युत्तर में मैंने उनसे अनुरोध किया कि आगे से वही संदेश अन्य लोगों को भेजें, जो जांचे-परखे हुए हों। इससे गलत धारणाएं नहीं पनपेंगी। साथ ही हमारे संस्थानों के प्रति अनावश्यक अविश्वास नहीं फैलाया जा सकेगा।
वह परिपक्व हैं, लिहाजा चुप्पी लगा गए, पर इस विवाद की गली अभी आगे मुड़नी थी। कुछ दिनों बाद दिल्ली की एक पार्टी में 'भद्रलोक' को इस पर 'आनंद' लेते पाया। विदेशी सूटधारी एक परिचित ने इसका जिक्र किया, तो मैंने उनसे पूछा कि यह संदेश तो हिंदी में था, आपने पढ़ा कैसे? वह बोले, मुझे यह अंग्रेजी में प्राप्त हुआ था। साफ है, इसे हिंदी और अंग्रेजी में एक साथ लिखा गया था। हो सकता है, अन्य भाषाओं में भी इसका अनुवाद किया गया हो। मैंने उन्हें बताया कि अल जजीरा ने 13-14 नवंबर को उन सुर्खियों का जिक्र किया था, जो दर्शा रही थीं कि फ्रेंच मीडिया के एक तबके ने किस तरह इसके लिए देश के समूचे अल्पसंख्यक वर्ग को लांछित किया। कुछ ने तो पूर्व राष्ट्रपति सरकोजी की पार्टी के उस तथाकथित बयान को बेहद प्रमुखता दी, जिसका 'आशय' था कि देश गृह युद्ध में फंस गया है।
क्या मुख्यधारा का भारतीय मीडिया ऐसी गैर-जिम्मेदारी से पेश आता है?
अर्थ के अनर्थ का यह तो एक उदाहरण है। हर रोज 'सोशल मीडिया' पर सैकड़ों ऐसे संदेश नमूदार होते हैं, जिनके निशाने पर कोई न कोई होता है। कभी कोई शख्सियत, कभी कोई संस्थान, कभी कोई देश, कभी कोई धर्म अथवा देशों के समूह। कहने की जरूरत नहीं कि कुछ साल पहले तक धरती नाम का ग्रह सिर्फ सात महाद्वीपों में नहीं, बल्कि तमाम भौगोलिक, सामाजिक अथवा वैचारिक समूहों में बंटा हुआ था। सूचनाएं दबाई जा सकती थीं, अथवा उन्हें अन्य देशों तक पहंुचने में लंबा समय लग जाता था। कहते हैं, बीजिंग के 'तिएन आन मन' चौक पर जब चीनी सेना के दस्तों ने अपने ही नौजवानों का संहार किया, तब शेष विश्व को इसकी समय रहते खबर नहीं लगी।
यह खबर लंबे समय तक दबी रहती, अगर एक अद्भुत मशीन ने चीन की चौहद्दियों में प्रवेश न किया होता। बताते हैं कि फैक्स के जरिए यह समाचार पहले हांगकांग भेजा गया और वहां से फिर पूरी दुनिया ने इस नृशंस कारगुजारी के बारे में जाना। हो सकता है, चीन विरोधी लॉबी की यह कपोल-कल्पना हो, पर अब तो फैक्स भी बीते दिनों की बात हो गई है। इंटरनेट ने दुनिया को करीब ला दिया है। इसने अगर हमें सहूलियतों की सौगात दी है, तो ध्वंस के सौदागरों को भी नए रास्ते मुहैया कराए हैं। आईएस की भर्ती का सबसे बड़ा जरिया आज सोशल मीडिया है। आतंकवाद के साथ राजनीतिक दलों ने भी अपने विद्वेष की कालिख दूसरों पर पोतने के लिए इसका इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। पिछले हफ्ते दिल्ली की उस 'डिनर' पार्टी में यह साफ हो गया कि एक ही संदेश को हिंदी, अंग्रेजी और संभावित तौर पर अन्य भाषाओं में क्यों लिखा गया है? मतलब साफ है। ये किसी एक-अकेले के विचार नहीं हैं। इसके पीछे कोई संगठन योजनाबद्ध तरीके से काम कर रहा है।
यह कोई छिपा खेल नहीं रह गया है। अमेरिका की तरह भारत में भी अब पेशेवर चुनाव लड़ाने वाले, छवि निखारने और बिगाड़ने वाली कंपनियां नमूदार हो गई हैं। इसके लिए उन्हें बड़ी रकम मिलती है। ऐसा नहीं होता, तो अखलाक की दुखद मौत पर ठोस उपाय सुझाने की बजाय घडि़याली आंसुओं का इतना बड़ा सैलाब न खड़ा कर दिया जाता। हम वक्त के उस विरल दौर में पहंुच गए हैं, जहां मौत हित साधन का मुद्दा बनाई जा सकती है। मजलूमों की तकलीफें माल बनाने का जरिया बन सकती हैं। किसी की इज्जत नीलाम कर नाम कमाया जा सकता है। बरसों की विश्वसनीयता को पल भर में मटियामेट किया जा सकता है।
हजारों साल से हम रावण, कंस अथवा दुर्योधन को पराजित होते देखते आए हैं, पर अब तो खलनायकों को भी सही साबित करने की कोशिश हो रही है। यह खतरनाक है। इस प्रवृत्ति पर तत्काल रोक लगनी चाहिए। लेकिन ऐसा तब तक संभव नहीं है, जब तक कि हमारे सियासी दल इस खेल को खेलना न बंद करें। हमारे देश में पहली बार इस तरह का आलम दिखाई पड़ रहा कि कहीं सांप्रदायिक दंगे नहीं हो रहे, पर हर ओर 'अलगाव राग' बजाने की कोशिश हो रही है। हजारों साल पुरानी परंपराओं का शुक्रिया कि कुचक्री अभी तक सफल नहीं हुए हैं, पर वे हमेशा असफल रहेंगे, इसकी गारंटी है क्या?
शुक्र है कि संसद में एक-दूसरे पर आरोप लगाकर खुद को विजेता साबित करने वाले हमारे माननीय सांसद इस मुद्दे पर गंभीर हुए हैं। लोकसभा में प्रस्ताव लाया गया है। उम्मीद है, आने वाले हफ्ते में इस पर सहमति भी बन जाएगी। कहने की जरूरत नहीं कि सोशल मीडिया पर कालिख पोतने वाले इस अभियान की शुरुआत राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से ही हुई थी। अगर राजनेता इस पर अंकुश लगाने की कोशिश करेंगे, तो सफलता भी मिलेगी।
हम भारत के लोगों को इस समय इसकी बड़ी जरूरत है।
@shekharkahin
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