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जयराम जयललिता के बहाने

हमारे राजनेताओं के नैतिक मनोबल पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं, पर क्या वे असुरक्षा ग्रंथि के भी शिकार हैं? तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयराम जयललिता की रहस्यमय बीमारी ने मौजूदा भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों...

जयराम जयललिता के बहाने
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 15 Oct 2016 11:06 PM
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हमारे राजनेताओं के नैतिक मनोबल पर हमेशा सवाल उठते रहे हैं, पर क्या वे असुरक्षा ग्रंथि के भी शिकार हैं? तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयराम जयललिता की रहस्यमय बीमारी ने मौजूदा भारतीय राजनीति और राजनीतिज्ञों को ऐसे तमाम चुभते सवालों के घेरे में ला खड़ा किया है।

ईश्वर करे जयललिता जल्दी स्वास्थ्य लाभ कर फिर से कामकाज संभाल सकें। सिर्फ पांच महीने पहले देश के इस महत्वपूर्ण राज्य के करोड़ों लोगों ने विधानसभा चुनाव के दौरान चौथी बार उनकेनेतृत्व में भरोसा जताया था। वह अपने चुनावी वायदों पर अमल करना शुरू करतीं, उससे पहले बीमारी ने उन्हें घेर लिया। उनके बिस्तर पकड़ लेने से प्रदेश का प्रशासन पंगु हो गया है। समूची हुकूमत और सत्तारूढ़ दल सिर्फ और सिर्फ ‘अम्मा’ के स्वास्थ्य पर चर्चा कर रहा है। अगर जयललिता ने पार्टी में दूसरी पंक्ति तैयार की होती, तो करोड़ों लोग इस तरह खुद को प्रशासन से वंचित महसूस न कर रहे होते। जयललिता ने ऐसा क्यों किया? जवाब पाने के लिए इतिहास की परतों पर जमी धूल झाड़नी होगी।

राजनीतिक विश्लेषकों की स्मृतियों में वह विवाद अब भी ताजा है, जो एमजी रामचंद्रन की मौत के बाद उपजा था। रामचंद्रन न केवल तमिल सिनेमा के सितारे थे, बल्कि उन्होंने ‘द्रविड़’ आंदोलन को नई दिशा भी दी थी। सिनेमा और राजनीति की दुनिया में जयललिता उनकी हरदम हमकदम होती थीं। इसी नाते ‘वाडियार’ की विरासत पर वह अपना स्वाभाविक हक समझतीं, पर एमजीआर की पत्नी वीएस जानकी ने उनका रास्ता रोक लिया। वह मुख्यमंत्री बन बैठीं। जयललिता को पहले से इसकी आशंका थी। उन्होंने सियासी चौसर के हर खास खाने पर मोहरे तैनात कर रखे थे।
अपरिपक्व जानकी को रुसवा होकर सत्ता से अपदस्थ होना पड़ा।

वाडियार यानी गुरुजी ने अगर ‘अम्मा’ को पार्टी में इतना महत्व न दिया होता, तो उनके परिवार को ये दिन न देखने पड़ते। इसीलिए शीर्ष पर कब्जा करने के बाद जयललिता ने पार्टी या सरकार में किसी को ‘नंबर-2’ की हैसियत में नहीं आने दिया। जिसके प्रति जरा सी आशंका पैदा हुई कि वह सिर उठा सकता है, उसे अन्नाद्रमुक से उठाकर बाहर फेंक दिया गया। इसीलिए 2001 में जब वह पहली बार जेल गईं और उनकी जगह लेने के लिए ओ पन्नीरसेल्वम के नाम की घोषणा की गई, तो शेष भारत के लोग आश्चर्य में पड़ गए। मैं उन दिनों जिस न्यूज चैनल का संपादक था, वहां पर उनके बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। अचरज के अंध महासागर में डूबते-उतराते मुझे अपनी चेन्नई संवाददाता को फोन करना पड़ा। उन्होंने बताया कि पन्नीरसेल्वम अम्मा के बहुत भरोसे के आदमी हैं। उनकी दुनिया अम्मा से शुरू और अम्मा पर ही खत्म होती है। भरत ने जिस तरह राम की खड़ाऊं सिंहासन पर रख राजकाज चलाया था, ये भी ऐसा करने जा रहे हैं।

2014 में जब जयललिता को दोबारा जेल जाना पड़ा, तब भी यही कहानी दोहराई गई। इस बार भी पन्नीरसेल्वम को मुख्यमंत्री के सारे काम तो सौंपे गए हैं, पर औपचारिक दर्जा नहीं मिला है। जयललिता अस्पताल के महफूज वार्ड में स्वास्थ्य लाभ करते हुए बिना काम की मुख्यमंत्री रहेंगी। वह कब तक ठीक होंगी? उन्हें क्या हुआ है? इन सवालों पर पार्टी प्रवक्ता जो कुछ कह रहे हैं, उस पर हर बार नए प्रश्न उठ खडे़ होते हैं। पुलिस अब तक तमाम लोगों पर अफवाह फैलाने के मुकदमे दर्ज कर चुकी है। कुछ सलाखों के पीछे पहुंचाए जा चुके हैं, पर चर्चाओं की सुनामी थम नहीं रही।
जयललिता ऐसी अकेली राजनेता नहीं हैं। इस रीति-नीति पर चलने वाले तमाम हैं।

ओडिशा से बात शुरू करते हैं। वहां के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक भारी बहुमत के साथ चौथी बार इस सूबे की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे हैं। नवीन ने जयललिता की तरह हमेशा विकल्पहीनता की सियासत को बढ़ावा दिया। उन्होंने चतुर राजनीति करते हुए जहां विपक्ष को बधिया बना दिया, वहीं अपनी पार्टी में भी हर उभरती आवाज को खामोश कर दिया। आज उनका 70वां जन्मदिन है। उम्र के इस पड़ाव पर उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर देना चाहिए। क्या वह ऐसा करेंगे?

यही हाल पड़ोसी राज्य बंगाल का है। ‘फायरब्रांड’ ममता बनर्जी ने सब कुछ बेहद संघर्ष के बाद हासिल किया। वह न जयललिता की तरह रजतपट की हीरोइन रही हैं, न नवीन पटनायक की तरह उनके पिता प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। तीन दशक से ज्यादा लंबे चले वामपंथी शासन को खत्म करने के लिए वह तरह-तरह की प्रताड़ना की शिकार हुईं। प्रदेश का बड़ा हिस्सा उन्हें आदर से ‘दीदी’ कहता है। अपनी पार्टी में उन्होंने किसी को शीर्ष का साझीदार नहीं बनाया है। उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी तृणमूल कांग्रेस की युवा शाखा के मुखिया हैं और इस बार लोकसभा में पहुंचने का गौरव भी उन्हें हासिल हुआ है। क्या वह संभालेंगे ममता की विरासत? तृणमूल के नेता इस सवाल के जवाब में चुप्पी साध जाते हैं।

यही स्थिति उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की है। मायावती को ममता बनर्जी से भी ज्यादा जद्दोजहद करनी पड़ी। वह बदनाम जाति-प्रथा से लोहा लेती हुई चार बार मुख्यमंत्री बनीं। करोड़ों लोगों के लिए वह सामाजिक न्याय की चलती-फिरती प्रतीक हैं। प्रशंसक उन्हें सम्मान से ‘बहन जी’ कहते हैं। अगले चुनाव में वह सत्ता की प्रमुखतम दावेदारों में एक हैं। गुरु कांशीराम ने समय रहते उन्हें अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया था। खुद मायावती सार्वजनिक तौर पर घोषणा कर चुकी हैं कि उन्होंने अपने उत्तराधिकारी का चयन कर लिया है। वह है कौन? कोई कुछ कहने की स्थिति में नहीं।

सिक्किम के पवन कुमार चामलिंग की कहानी भी ऐसी ही है। वह 1994 के बाद से लगातार मुख्यमंत्री बने हुए हैं। अगर सब कुछ ठीक चलता रहा, तो दो साल बाद वह देश के सबसे लंबे समय तक शासन करने वाले मुख्यमंत्री बन जाएंगे। ग्राम पंचायत स्तर की राजनीति से उठकर पूरे राज्य पर छा जाने वाले चामलिंग के आठ बच्चे हैं, लेकिन उन्होंने अभी तक न तो परिवार से और न अपनी पार्टी से किसी को उत्तराधिकारी घोषित किया है।

ये पांचों राज्य लोकसभा के 543 में से 183 सदस्यों का योगदान करते हैं। देश की कुल जीडीपी में इनकी भागीदारी करीब 25 फीसदी है। ये आंकड़े हालात की संवेदनशीलता बयान करते हैं। जिन लोगों पर करोड़ों देशवासियों की आशाएं टिकी हों, उन्हें उनकी रक्षा के लिए क्या अपनी विरासत सार्वजनिक नहीं करनी चाहिए? क्या नेताओं को घोषणा-पत्र के साथ अपने स्वास्थ्य का ब्योरा नहीं देना चाहिए? एक अस्वस्थ और सियासी तौर पर असुरक्षित राजनेता स्वस्थ लोकतंत्र की संरचना में कैसे योगदान कर सकता है? इस एक मैं, दूजा कोई नहीं की नीति ने व्यक्ति-पूजा की कुप्रथा को बढ़ावा दिया है। हमारे नेता स्व-आसक्ति के इतने शिकार क्यों हैं? इसी वजह से चापलूसी राजनीति की अनिवार्य आवश्यकता बन गई है। दुर्भाग्य से यह दुर्गुण व्यक्ति आधारित क्षेत्रीय पार्टियों में राष्ट्रीय दलों के बनिस्बत ज्यादा पाया जाता है।
सवाल उठता है कि संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र असुरक्षा ग्रंथि के शिकार इन नेताओं की अगुवाई में कितना सुरक्षित है?

@shekharkahin
shashi.shekhar@livehindustan.com

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