उत्तर प्रदेश की कायर कथा
उत्तर प्रदेश के 20 करोड़ लोग किसकी ताजपोशी करेंगे? यह शायद मौजूदा वक्त का सबसे मौजूं सवाल है। अच्छा होता यदि प्रदेश के संवेदनशील मतदाता नेताओं के चेहरों की बजाय, उनकी नीतियों पर गौर फरमाते, पर करें...
उत्तर प्रदेश के 20 करोड़ लोग किसकी ताजपोशी करेंगे? यह शायद मौजूदा वक्त का सबसे मौजूं सवाल है। अच्छा होता यदि प्रदेश के संवेदनशील मतदाता नेताओं के चेहरों की बजाय, उनकी नीतियों पर गौर फरमाते, पर करें क्या? भेड़चाल हमारी नियति बन गई है।
समाजवादी पार्टी से बात शुरू करते हैं। उत्तर प्रदेश की सत्तारूढ़ पार्टी में विग्रह की खबरों ने पिछले कुछ दिनों से मीडिया की सुर्खियों पर कब्जा जमा रखा था। पिछले हफ्ते क्लासिक काव्य की शैली में जिस तरह सत्ता-परिवार में एका हुआ, उससे यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या सब कुछ एक पूर्व निर्धारित पटकथा के तहत किया गया? लोग अनुमान लगाने के लिए स्वतंत्र हैं, पर एक बात तय है कि सारे तमाशे से अखिलेश यादव को जमकर लाभ हुआ- वह पार्टी में एकछत्र नेता के तौर पर उभरे और उनकी हुकूमत के प्रति जो थोड़ा-बहुत गुस्सा था, वह नेपथ्य में चला गया।
कांग्रेस से गठजोड़ की घोषणा के बाद अब वह एक सेक्युलर गठबंधन का प्रमुखतम चेहरा हैं। उम्मीद जताई जा रही थी कि राष्ट्रीय लोकदल भी इसका हिस्सा बनेगा, पर बात नहीं बनी। रालोद के नेता चौधरी अजीत सिंह ज्यादा मोल-तोल बनने के फेर में अवसर गंवा बैठे। सपा ने शायद इसलिए उनसे दूरी बनाई, क्योंकि उसे आशंका थी कि कहीं उनसे दोस्ती के कारण मुस्लिम मतदाता न छिटक जाएं। मुजफ्फरनगर दंगों के बाद से जाट-मुस्लिम सद्भाव में खासी कमी आई है। जहां तक कांग्रेस की बात है, तो वह मौजूदा बदहाली में भी लगभग 10 फीसदी मतों पर अधिकार रखती है। सपा और कांग्रेस का साथ परंपरागत मतों के जुड़ाव के अलावा कुछ अन्य संदेश भी देता है। मसलन, जिन मुस्लिम मतों पर समाजवादी पार्टी का ‘हक’ हुआ करता है, वे अब बिना संशय उनसे जुड़ सकते हैं। वजह? अखिलेश के तौर पर अल्पसंख्यकों के पास ‘अपने मुख्यमंत्री’ का चेहरा है और 2019 के लिए वे राहुल गांधी को नरेंद्र मोदी का विकल्प मान सकते हैं।
गठबंधन को उम्मीद है कि अगड़ी जाति के नौजवान और महिला मतदाता भी उनकी ओर आकर्षित होंगे। वजह? राहुल गांधी और अखिलेश नौजवान हैं। डिंपल एवं प्रियंका इस मामले में मददगार साबित हो सकती हैं। अखिलेश समर्थकों का मानना है कि नौजवान मुख्यमंत्री ने पहले दिन से सूबे के लिए जो काम किया, वह एक तरह से एजेंडा सेट करने वाला था। अब तटस्थ नौजवानों, महिलाओं को यह समझाने में दिक्कत नहीं आएगी कि उसे पूरा करने के लिए अखिलेश को पांच साल और दिए जाने चाहिए।
हालांकि, हफ्ते के अंत में टिकट वितरण को लेकर दोनों दलों में जैसी खींच-तान मची, उससे आशंका उठी कि कहीं यह गठबंधन आकार लेने से पहले ही दम न तोड़ दे। यदि ऐसा हुआ, तो दोनों दलों की साख को गहरा धक्का लगेगा।
अब भाजपा की बात। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद भी विकास के वादों-दावों की भारी पोटली के साथ दिल्ली के सत्ता-सदन में पहुंचे हैं। ढाई साल से लंबी हुकूमत में उनके मंत्रिमंडल पर भ्रष्टाचार का कोई इल्जाम नहीं लगा है। नोटबंदी के बाद उन्होंने खुद को गरीबों का मसीहा साबित करने की कोशिश की है। ऐसा पहली बार हुआ है, जब दक्षिणपंथी मानी जाने वाली पार्टी का नेता ऐसी भाषा बोल रहा है, जो वामपंथियों को भी लजा दे। क्या उनकी यह नई इमेज 2014 की भांति उत्तर प्रदेश की जाति-व्यवस्था को तोड़ सकेगी? नोटबंदी के बाद लोगों के सामने बेइंतिहा दिक्कतें आईं, पर वह अपनी बात पर कायम रहे कि ऐसा गरीबों की भलाई और देश की तरक्की के लिए किया गया है। आरोप लगे कि सौ से ज्यादा लोग इसकी वजह से मारे गए, पर फिर भी देश के किसी भी हिस्से में इसके खिलाफ एक बड़ा जन-प्रदर्शन तक नहीं हुआ।
लोग उनके कामकाज से खुश हैं या नाखुश, यह तो 11 मार्च को पता लगेगा, पर तय है कि प्रधानमंत्री के इस कायांतरण से उनके विरोधी तक भौचक्का हैं।
इस लक्ष्य को साधने के लिए जहां प्रधानमंत्री और उनके सहयोगी सार्वजनिक मंचों पर सर्जिकल स्ट्राइक और नोटबंदी पर दृढ़ता से बातें रख रहे थे, वहीं अमित शाह महीनों से व्यूह-रचना में जुटे थे। उन्होंने 2014 में मुजफ्फरनगर मॉडल का सहारा लेकर जाट वोटरों को अपने पक्ष में कर लिया था। इन चुनावों में भी उन्होंने ध्रुवीकरण के नुस्खे को पुन: आजमाने की जुगत की है। इसके साथ ही अति-पिछड़े और महादलितों के विशाल और कसमसाते वोट बैंक को अपने पाले में करने के लिए तमाम जतन किए गए हैं। खुद को मजबूत करने के लिए भगवा दल ने अपने धुर विरोधियों तक को पार्टी में शामिल किया। क्या कोई सोच सकता था कि विजय बहुगुणा, यशपाल आर्य, स्वामी प्रसाद मौर्य, रीता बहुगुणा जैसे लोग कभी राष्ट्र आराधन करते नजर आएंगे? मैंने यहां उत्तर प्रदेश के साथ उत्तराखंड को जोड़ने में संकोच नहीं किया है। दोनों सूबों में प्रशासनिक अलगाव के बावजूद बहुत कुछ समान है।
भाजपा की प्रत्याशी सूची उठाकर देखिए। बाहरी लोगों के लिए वफादारों और अति पिछड़ों के लिए अगड़ों को किनारे कर दिया है। पार्टी के वंचित वफादारों ने इस पर खुलेआम रोष का इजहार किया है। राजनीति के पंडित इसे ‘रिस्क’ कहेंगे, पर अपने कमरे में चाणक्य की तस्वीर लगाए रखने वाले अमित शाह मानते हैं कि राजनीति में कठोर फैसले तो करने ही पड़ते हैं।
अब इस खेल की अहम भागीदार मायावती के चुनावी गणित पर नजर डालते हैं। उन्होंने सबसे पहले टिकटों की घोषणा की और बिना किसी संकोच 97 मुसलमानों को टिकट दे दिया। साफतौर पर वह समाजवादी पार्टी के वोट बैंक में सेंध लगाना चाहती हैं। जानकारों का मानना है कि उन्होंने मुसलमानों को वहीं आजमाया है, जहां एक लाख के आस-पास अल्पसंख्यक मतदाता हैं। इनमें से किसी भी सीट पर 30 हजार से कम दलित वोटर नहीं हैं। बसपा का मानना है कि दलित और मुस्लिम न केवल एकजुट होकर वोट करते हैं, बल्कि 90 फीसदी से अधिक मतदान के लिए भी निकलते हैं। अगर इन सीटों पर एक लाख 80 हजार से दो लाख तक वोट पड़े और दलित-मुस्लिम एका हो गया, तो उनकी जीत पक्की है। मायावती ने पिछड़ों, अगड़ों और दलितों को टिकट देते वक्त इन्हीं मानकों का इस्तेमाल किया है।
मतलब साफ है। सपा-कांग्रेस गठबंधन और एनडीए जहां हुकूमत के फायदे-नुकसान के साथ मैदान में उतरे हैं, वहीं निर्वासन भोग रहीं मायावती ने जातीय समीकरणों को दूध और चीनी की तरह कई बार औटाया है। इस दौरान सभी दलों में नाराजगियां उभरीं और मौकापरस्त नेताओं ने पाला बदल किया। हिन्दी हृदय प्रदेश में इस वक्त राजनीतिक दुरभिसंधियां चरम पर हैं। जाति-धर्मविहीन लोकतंत्र के चितेरे इस पर शर्मसार हो सकते हैं।
इस सियासी हंगामे का एक और दुखद पहलू है। कुर्सी की अंधी दौड़ में शामिल नेताओं की शोशेबाजी में उत्तर प्रदेश के विकास के लिए जरूरी मुद्दे बहस से बाहर हो गए हैं। मुझे यह स्थिति डराती है। जनकवि ‘धूमिल’ क्या इसीलिए उत्तर प्रदेश को कायर मानते थे?
@shekharkahin
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