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इनसे सीखें: घायल गिद्ध को जीवनदान, बन गया शाकाहारी

देखना ही चाहते हो मेरी उड़ान को, तो थोड़ा और ऊंचा कर दो आसमान को। यह लाइन आसमान में परवाज करने वाले और पर्यावरण सुधारक गिद्धों पर बखूबी लागू होती है। यह बात और है कि अब यही गिद्ध अपने अस्तित्व की जंग...

इनसे सीखें: घायल गिद्ध को जीवनदान, बन गया शाकाहारी
लाइव हिन्दुस्तान टीमSat, 25 Feb 2017 08:50 PM
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देखना ही चाहते हो मेरी उड़ान को, तो थोड़ा और ऊंचा कर दो आसमान को। यह लाइन आसमान में परवाज करने वाले और पर्यावरण सुधारक गिद्धों पर बखूबी लागू होती है। यह बात और है कि अब यही गिद्ध अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं। रसायनों के अंधाधुंध उपयोग ने इन्हें खात्मे की कगार पर खड़ा कर दिया है। ऐसे में सामने आए हैं बिठूर कटरी के पपरिया गांव के किसान किशोरी लाल और उनका परिवार। उन्होंने एक घायल गिद्ध को न केवल बचाया, बल्कि उसे घर में ही पाल रहे हैं। आश्चर्य तो यह कि मरे जीवों का मांस खाने वाला गिद्ध पूरी तरह शाकाहारी हो गया है। कष्ट भी है कि फिलहाल यह ऊंची उड़ान नहीं भर सकता, क्योंकि इसे बांध कर रखा गया है।

ज की भागदौड़ भरी जिंदगी में जहां लोगों के पास अपने घर-परिवार के लोगों के लिए समय नहीं है। ऐसे में पपरिया गांव के किसान किशोरी लाल और उनका परिवार एक मिसाल ही हैं। इन्होंने न केवल एक घायल को जीवनदान दिया, बल्कि अपनी कोशिश से उसे पाल भी रहे हैं। किशोरी लाल के बेटे नितिन को खेत में दो महीने पहले एक गिद्ध दिखाई दिया। वह उड़ नहीं पा रहा था। कुत्तों से बचने के लिए इधर-उधर दौड़ रहा था। नितिन ने चद्दर डाल कर गिद्ध को पकड़ लिया और अपने घर लाकर पालने लगे। उसके पैरों में रस्सी बांध दी। विलुप्तप्राय प्रजाति का गिद्ध उनके यहां फिलहाल आटा और सब्जी खा रहा है। शनिवार को मामले का खुलासा होने पर इसकी जानकारी वन विभाग को दी गई है।

पता कहां से आया गिद्ध

स्थानीय लोगों की मानें, तो गांव के आसपास और पूरे कटरी में करीब एक दशक से कोई गिद्ध नहीं देखा गया। हालांकि, यहां गंगा किनारे जानवरों के शव आए दिन दिखते हैं, पर इन्हें खाकर पर्यावरण को सुरक्षित करने वाला नहीं आता। ऐसे में इकलौता गिद्ध कहां से भटक कर आ गया, किसी को नहीं पता। किशोरी लाल ने बताया कि कुछ दिन पहले शहर का एक युवक आया था जो इस गिद्ध को 50 हजार रुपए में खरीदने को तैयार था।

गिद्ध बचाने में जुटी केंद्र सरकार

पर्यावरण को बचाने में गिद्धों का अहम योगदान है। मरे जानवरों के शवों से निजात दिलाने में इनकी अहम भूमिका होती है। चार दशक पहले देश में गिद्धों की संख्या करीब चार करोड़ के आसपास थी। 1990 के बाद अचानक गिद्ध गायब होने लगे। 2002 से 2007 के बीच इनकी संख्या 97 फीसदी तक कम हो गई। इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) ने भी गिद्धों को रेड लिस्ट में शामिल किया है।

विलुप्त प्रजाति का पक्षी

गिद्धों की संख्या कम होने से इसे विलुप्त प्रजाति माना जाने लगा। इन्हें बचाने के लिए केन्द्र सरकार ने अभियान भी शुरू किया है। हरियाणा के पिंजौर में गिद्ध संरक्षण प्रजनन केन्द्र खोला गया है। बाम्बे नैचुरल हिस्ट्री सोसाइटी व अन्य कई एनजीओ इस प्रजाति को बचाने में लगे हैं। भारत-नेपाल सीमा पर स्थित सोहेलवा जंगल (यूपी के बलरामपुर जिले में तुलसीपुर के आस-पास) में भी विलुप्तप्राय गिद्धों के संरक्षण की कोशिश की जा रही है। बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी ने सोहेलवा रेंज के जंगलों में सर्वेक्षण के दौरान यहां लंबी चोंच वाले 20 गिद्ध होने का दावा किया है।

डाइक्लोफेनिक दवा है मौत का कारण

गिद्धों की मौत के पीछे मवेशियों को दी जाने वाली दर्द निवारक दवा डाइक्लोफेनिक है। जानवर को यह दवा खिलाने से उनके जोड़ों का दर्द कम होता है और वे ज्यादा समय तक काम करते हैं। इसी के चलते इसका अंधाधुंध उपयोग किया जाता है। हालांकि, दुष्प्रभाव को देखते हुए केंद्र सरकार ने 2006 में इस दवा पर प्रतिबंध लगा दिया, फिर भी इसका उपयोग जारी है। यह दवा गिद्धों के शरीर में यूरिक एसिड की मात्रा बढ़ा देती है, जिससे इनकी किडनी फेल होने से मौत हो जाती है।

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