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Chhath Puja: भिखारी सारी दुनिया दाता एक राम... छठ पर्व में आम और खास सब एक समान

जो भेद मोटे-मोटे ग्रंथ तथा समाजवादी विचारधाराएं और सामाजिक क्रांतियां नहीं मिटा सकीं, वह छठ पर्व पर स्वत: मिट जाता है। चार दिनों के लिए पूरा समाज इस तरह घुला-मिला दिखाई पड़ता है, मानों लोगों के बीच...

Chhath Puja: भिखारी सारी दुनिया दाता एक राम...  छठ पर्व में आम और खास सब एक समान
पटना, सुरेन्द्र मानपुरीSat, 10 Nov 2018 11:33 PM
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जो भेद मोटे-मोटे ग्रंथ तथा समाजवादी विचारधाराएं और सामाजिक क्रांतियां नहीं मिटा सकीं, वह छठ पर्व पर स्वत: मिट जाता है। चार दिनों के लिए पूरा समाज इस तरह घुला-मिला दिखाई पड़ता है, मानों लोगों के बीच कभी अमीरी-गरीबी, छोटे-बड़े और जातीय-साम्प्रदायिक भेद था ही नहीं। आइए देखते हैं, किस तरह लोग अपने-अपने अहंकार को छोड़कर तथा धन-ऐश्वर्य और जातिगत बंधनों को तोड़कर इस पर्व में शरीक होते हैं। 

परम सत्ता के सामने आदमी की बिसात ही क्या। वह दाता है, हम सब भिखारी। दीन भाव से आराधना ही सच्ची आराधना मानी जाती है। छठ इसका प्रमाण है।

दृश्य-एक

सोनपुर में एक संपन्न परिवार के युवक राजकुमार जैसे कई हैं जो अपनी मन्नत पूरी करने के लिए पिछले दो वर्षों से आस-पड़ोस के कई घरों से भिक्षाटन कर पूजन सामग्री जुटाते हैं। जिसके पास जो कुछ है, उसे बांटना पुण्य माना जाता है। हाजीपुर के चकवारा में संजीव, रूपेश, द्वारिका, मड़ई के दिनेश सिंह आदि पिछले पांच वर्षों से पूजन सामग्री बांट रहे हैं। कहते हैं, यह पर्व अपरिग्रह का संदेश देता है। अगर हमारे पास जरूरत से अधिक कुछ है तो उसका वितरण भी होना चाहिए।

Chhath Puja 2018 : यहां देखें छठ पूजा सामग्री की लिस्ट और पूजा विधि

दृश्य-दो 

सभी हैसियत वाले मिलकर उस मार्ग की सफाई करते हैं, जिसपर चलकर व्रती महिलाएं नदी घाटों पर अर्घ्यदान के लिए जाती हैं। प्राय: सभी टोले-मुहल्ले चकाचक हो जाते हैं। उन हाथों में भी झाड़ू दिखती है,जो बड़ी कुर्सियों पर बैठते हैं और कार्यालय में जिनसे आंखें मिलाने से भी परहेज करना पड़ता है। कारों के काफिलों के साथ चलने वाली राजनीतिक हस्तियां भी रास्ते की सफाई में जुटी रहती हैं।

छठ पर्व देता है प्रकृति और पर्यावरण संरक्षण का संदेश

दृश्य -तीन

घाटों पर समानता होती है। एक ही घाट पर सभी जातियों की व्रती महिलाएं एक साथ मिलकर सूर्य को अर्घ्य देती हैं। सभी सहारा देकर बूढ़ी माताओं को नदी के जल में उतारती हैं और उनके हाथ में पूजन सामग्री  से भरा सूप थमाती हैं। कहीं कोई परायापन या अजनबीपन नहीं। एक महिला दूसरी महिला के मांग में सिंदूर भरती है। युवा पीढ़ी घाटों पर सहयोग के लिए तैनात रहती है। सभी नंगे पैर घर से घाट आते और लौटते हैं। कुछ पुरुष भी इस पर्व को करने लगे हैं।

दृश्य -चार

आकाश में डूबते और उगते सूर्य की लालिमा देखते ही शुरू हो जाता है अर्घ्यदान। इस अनुष्ठान में पंडित की कोई जरूरत नहीं। इस पर्व का गीत ही मंत्र है, आह्वान है- उग हो सूरजदेव अरघ के बेर, आहो अरघ के बेर..... कांच ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए, बहंगी लचकत जाए....। घाटों पर वीआईपी व्यवस्था नहीं होती। सब कुछ एक जैसा। हाकिम-हुक्काम के घरों की महिलाएं भी आम व्रती की तरह ही घाटों पर जाकर पूजन करती हैं।
काश! ऐसा ही समानता भरा माहौल समाज में बना रहता तो कहीं कोई स्वर्ग होता तो वह धरती पर उतर आता।

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