बदले माहौल में स्वर्ण पर लगते भारतीय निशाने

क्रिकेट अब अकेला ऐसा खेल नहीं रहा, जिसमें हम विश्व स्तर पर बड़ी उम्मीद बांध सकते हैं। इन खेलों में निशानेबाजी पहले नंबर पर है। पहले हमारे निशानेबाज अंतरराष्ट्रीय स्पद्र्धाओं में भाग लेने के लिए जाया करते थे, लेकिन अब वे पदक, खासतौर से सोने के तमगे पर निशाना साधने के इरादे से जाते हैं। साल 2018 तक के पिछले 33 साल में हमारे निशानेबाज ऐसी स्पद्र्धाओं में सिर्फ 12 गोल्ड मेडल जीत सके थे। लेकिन इस साल अब तक वे 16 गोल्ड सहित 22 पदकों पर निशाना साध चुके हैं। यह नई पीढ़ी के आक्रामक अंदाज का नतीजा है। हाल यह है कि साल के आखिर में होने वाले विश्व कप फाइनल्स के लिए रिकॉर्ड 14 भारतीय निशानेबाज क्वालिफाई कर चुके हैं। यही नहीं, भारत के नौ निशानेबाज अगले साल होने वाले टोक्यो ओलंपिक का टिकट भी कटा चुके हैं। यानी, ओलंपिक निशानेबाजी में अभिनव बिंद्रा के गोल्ड सहित अब तक जीते कुल चार पदकों में टोक्यो में बड़ा इजाफा होने की उम्मीद है। 

यह बदलाव एकाएक नहीं आया है। इसमें भारतीय राष्ट्रीय राइफल संघ के प्रयासों का भी योगदान है। इस एसोसिएशन के अध्यक्ष रनिंदर सिंह का कहना है कि चार साल पहले शुरू किए गए जूनियर कार्यक्रम का यह परिणाम है। इस बात में दम इसलिए है, क्योंकि मौजूदा समय में अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं से अच्छी खबर लाने वाले ज्यादातर युवा निशानेबाज ही हैं। 17 वर्षीय सौरभ चौधरी को ही लें। वह इस साल भारत के लिए जीते कुल 16 गोल्ड में से छह गोल्ड जीतने वाले निशानेबाज हैं। सौरभ के गोल्ड में से चार 10 मीटर एयर पिस्टल मिक्स्ड स्पद्र्धा में आए हैं। इस दौरान उनकी जोड़ीदार मनु भाकर रही हैं और वह भी 17 साल की हैं। असल में, आईएसएसएफ ने विश्व कप में पिछले साल से ही मिक्स्ड स्पद्र्धाओं का आयोजन शुरू किया है। यह फैसला भारतीय निशानेबाजी का भाग्य बदलने वाला साबित हुआ है। वह तो निशानेबाजी में टेनिस की तरह करियर स्लैम नहीं होता है। अगर ऐसा होता, तो इस साल निश्चय ही सौरभ चौधरी और मनु भाकर का करियर स्लैम पूरा हो जाना था। 

कुछ दशक पहले विश्वनाथन आनंद देश के पहले शतरंज ग्रैंडमास्टर बने थे। लेकिन एक स्थिति ऐसी आई कि घरेलू टूर्नामेंट में ही कई ग्रैंडमास्टर के खेलने से खिलाड़ियों को ग्रैंडमास्टर बनने के लिए विदेश जाने की जरूरत ही नहीं रही। इसी का परिणाम है कि शतरंज में भारत के पास आज ग्रैंडमास्टरों की लंबी फौज हो गई है। ऐसा ही कुछ निशानेबाजी के साथ भी हुआ है। युवा निशानेबाजों की लंबी फेहरिस्त बनने से अब घर में ही मुकाबला बेहद कठिन हो गया है। निशानेबाजों को लगने लगा है कि उन्होंने यदि अपना सर्वश्रेष्ठ नहीं दिया, तो टीम में स्थान मिलना ही मुश्किल है। यह खौफ निशानेबाजों को लगातार शानदार प्रदर्शन के लिए मजबूर कर रहा है।

पीछे मुड़कर देखें, तो अभिनव बिंद्रा, राज्यवर्धन सिंह राठौर, विजय कुमार और गगन नारंग के ओलंपिक पदकों के अलावा जीतू राय, हिना सिद्धू, राही सरनोबत जैसे निशानेबाजों ने देश को तमाम सफलताएं दिलाई हैं। लेकिन इन सभी ने जिस उम्र में सीखना शुरू किया था, उस उम्र में मनु भाकर, सौरभ चौधरी, अनीश भानवाला निशानेबाजी में विश्व स्तर पर डंका बजा चुके हैं। एक और फर्क आया है। पहले आमतौर पर हमारे निशानेबाज विदेशी कोच पर निर्भर होते थे। लेकिन मौजूदा समय में जसपाल राणा और गगन नारंग जैसे तमाम पूर्व निशानेबाजों के कोच बनने से युवाओं को प्रशिक्षण मिलने में आसानी हुई है। देश में कोचिंग का नेटवर्क जैसे-जैसे मजबूत होता जाएगा, भारतीय निशानेबाजों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर धूम मचती जाएगी। हालांकि फिलहाल सवाल यह है कि भारतीय निशानेबाजों की ये सफलताएं क्या उन्हें टोक्यो ओलंपिक में पोडियम तक पहुंचा पाएंगी? वैसे सौरभ चौधरी और मनु भाकर उम्मीद तो बंधा रहे हैं, लेकिन किसी भी खिलाड़ी का ओलंपिक में पदक जीतना उसके कौशल के साथ मनोवैज्ञानिक दबाव झेलने की क्षमता पर निर्भर करता है। एक फर्क तो आया ही है कि पहले अंतरराष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में भाग लेते समय तमाम निशानेबाजों के हाथ-पैर फूल जाते थे। मगर अब घर में ही तमाम प्रतियोगिताओं का आयोजन होने से उनकी झिझक पहले ही निकल जाती है।

(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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