कानून के लंबे, लेकिन झूलते हाथ

कहावत है कि कानून के हाथ बड़े लंबे होते हैं और अपराधी लाख कोशिश करे, उससे बच नहीं सकता। पर इस बार सच सिद्ध होते-होते भी इसने कुछ ऐसे भयावह यथार्थ से हमारा सामना कराया है कि हममें से बहुत समझ ही नहीं...

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कानून के लंबे, लेकिन झूलते हाथ
Manish Mishra विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी
Mon, 5 Apr 2021 10:30 PM

कहावत है कि कानून के हाथ बड़े लंबे होते हैं और अपराधी लाख कोशिश करे, उससे बच नहीं सकता। पर इस बार सच सिद्ध होते-होते भी इसने कुछ ऐसे भयावह यथार्थ से हमारा सामना कराया है कि हममें से बहुत समझ ही नहीं पाए कि हम इन अपराधियों के जरिए अपने ही समाज का चेहरा देख रहे हैं। सिर्फ दो राज्यों, महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश की ये दो आपराधिक गाथाएं यद्यपि एक-दूसरे से जुड़ी नहीं हैं, लेकिन दोनों समान रूप से इशारा कर रही हैं कि अपराधी के बदले प्रोफाइल ने उसे किस कदर सर्वव्यापी और सर्वशक्तिमान बना दिया है!
हममें से बहुत से लोगों को यह पढ़कर अविश्वसनीय लगा होगा कि सचिन वाजे नाम के एक अपराधी पुलिस इंस्पेक्टर को उसके राजनीतिक आका ने मुंबई के सिर्फ एक क्षेत्र- बार और नाइट क्लबों से प्रतिमाह 100 करोड़ रुपये इकट्ठा करने का दायित्व सौंप रखा था। इनसे कम कमाऊ  नहीं हैं भवन-निर्माण, तस्करी या फिल्म निर्माण जैसे क्षेत्र। इन सबको जोड़ लें, तो सिर चकरा सकता है, पर अब इसे सच मानना होगा। इसी तरह, उत्तर प्रदेश के मुख्तार अंसारी की बार-बार लिखी-सुनी कहानी का सद्य:रचित अध्याय एक ऐसा प्रोफाइल निर्मित करता है, जिस तक पहुंचते-पहुंचते कानून के लंबे हाथ भी कई बार असहाय से झूलने लगते हैं। मुख्तार की कहानी किसी मुंबइया फिल्म की तरह रोचक है। एक बेहद चालाक और क्रूर अपराधी कैसे राजनीति, तंत्र और अर्थशास्त्र का चतुर इस्तेमाल कर इतना ताकतवर हो जाता है कि पुलिस, जेलें और अदालतें भी उसका कुछ बिगाड़ नहीं पातीं। इसे समझने के लिए मुख्तार की जीवन यात्रा को पढ़ना होगा। मुख्तार ने चुनावी गणित की खामियों का भरपूर फायदा उठाया है। जाति, धर्म, पैसा और बाहुबल इत्यादि सारे समीकरण उसके पक्ष में थे। उत्तर प्रदेश की दो महत्वपूर्ण पार्टियों ने अलग-अलग समय पर उसका इस्तेमाल किया या यूं कहें कि वह इनका उपयोग ऊपर चढ़ने की सीढ़ी की तरह करता रहा। पिछले कई दशकों में अलग-अलग चुनाव चिन्हों पर वह माननीय बनने में कामयाब हुआ। चालाकी और क्रूरता उसकी सफलता के मुख्य औजार थे। चालाकी का हाल यह था कि बार-बार धोखा खाने के बाद भी एक निश्चित कालखंड में भिन्न दलों के नेता उसे अपना सबसे नजदीकी मानते रहे। क्रूरता का एक ही उदाहरण उसके व्यक्तित्व को समझने में मददगार सिद्ध होगा। कहा जाता है, वर्ष 1996 में विश्व हिंदू परिषद के पदाधिकारी रुंगटा का इसने अपहरण कराया, उनकी हत्या कर शव इलाहाबाद में गंगा में फिंकवाकर बिना किसी भावनात्मक उद्वेग के उनके परिजनों को विश्वास में लेकर अपहृत की तलाश का नाटक करता रहा। इस बीच परिवार से फिरौती के रूप में कई करोड़ रुपये भी झटक लिए गए। उसे पता था कि अपराध की दुनिया में सफलता के लिए चालाकी और क्रूरता जरूरी सोपान हैं। इस पूरी गाथा में पुलिस उपाधीक्षक शैलेंद्र प्रताप सिंह के प्रसंग इसे किसी ग्रीक दुखांतिका में तब्दील कर देते हैं। कहानी में यह मोड़ आता है 2003- 04 में, जब वर्दी के जोश में आदर्शवाद से लबरेज एक पुलिस अधिकारी अपराध से सीधे भिड़ने का साहस करता है और नतीजतन, उसे इस्तीफा देना पड़ता है। मुख्तार का तो कुछ नहीं बिगड़ता, उल्टा उसी के खिलाफ मुकदमे कायम होते रहते हैं। एक मुकदमे से अभी हाल में वह बरी हो सका है। तब के मुख्यमंत्री ने फौज से एक लाइट मशीन गन की चोरी और संभावित अपराध में इसके इस्तेमाल की योजना को नजरंदाज करके उसके खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी और नतीजा हमारे सामने है। एक माफिया कानून से ऊपर जाकर फलता-फूलता रहा और दूसरा कर्तव्य परायण पुलिस अधिकारी कहानी में अपना अंश सुनाते-सुनाते मीडिया के सामने रोने लगता है। सचिन वाजे और शैलेंद्र प्रताप सिंह के रास्ते अलग थे, लेकिन इनकी कहानी एक जैसी ही है। दोनों ही अपराध के जरिए अकूत धन और ताकत हासिल करने की दिलचस्प दुनिया हमारे सामने उद्घाटित करते हैं। फर्क इतना है कि एक का नायक इस तिलिस्म को तोड़ने का प्रयास करता है और दूसरा खुद इसका सक्रिय अंग बन जाता है। शैलेंद्र प्रताप सिंह की जलालत देखकर किसी भी पुलिस अधिकारी को सचिन वाजे बनना ज्यादा आकर्षक लग सकता है।
मुख्तार और वाजे, दोनों को राज्य सरकारों ने बचाने की आखिर तक कोशिश की। मुख्तार को सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप के चलते पंजाब से उत्तर प्रदेश भेजना मुमकिन हुआ और वाजे केंद्र व राज्य की संस्थाओं के क्षेत्राधिकार की अस्पष्टता के चक्कर में फंसकर जेल गया। अपराध को लेकर यह ज्यादा चिंताजनक पहलू है। राज्य यदि इतनी बेशर्मी से अपराधियों के पक्ष में खड़ा दिखेगा, तो हम अनुमान ही लगा सकते हैं कि उनकी बेशुमार ताकत में कितना कुछ और जुड़ जाएगा। अभी ही उनके बाहुबल, धनबल और राजनीतिक आकाओं के चलते अक्सर कानून के हाथ उनके सामने छोटे लगने लगते हैं, अगर राज्य भी खुलकर उनके साथ दिखने लगे, तब तो मुहावरे का यह हाथ हमेशा लुंज-पुंज झूलता ही नजर आएगा। अपराध की दुनिया का यह भयावह यथार्थ है कि राज्य की सारी संस्थाएं अपराधियों के सामने बौनी पड़ती जा रही हैं। वाजे अगर महीने भर में एक ही महानगर के एक सेक्टर से 100 करोड़ रुपये वसूल सकता है, तो अंदाज लगाया जा सकता है कि इस रास्ते से कितना धन कमाया जा सकता है। इसी तरह, मुख्तार के बाहुबल के आगे कौन गवाह अदालत में टिकेगा, यह समझना भी मुश्किल नहीं है। अपराधी किसी को भी खरीद सकते हैं, किसी को भी भयाक्रांत करके उसे समर्पण को मजबूर कर सकते हैं और अक्सर देश की पुलिस, अदालतें और जेल इनके सामने असहाय लगने लगती हैं। यही कारण है कि पुलिस द्वारा अपराधियों को खुद ही गैर-कानूनी तरीकों से दंडित किए जाने को  सामाजिक स्वीकृति मिल गई है। कोई इस पर गौर नहीं करना चाहता कि कथित एनकाउंटर स्पेशलिस्ट सिस्टम से ही वाजे जैसा लुटेरा पैदा होता है। मुख्तार के समर्थकों के मन में भी खौफ है कि उसे उत्तर प्रदेश में झूठी मुठभेड़ में मार दिया जाएगा। अगर ऐसा हुआ, तो कोई अच्छा संदेश नहीं जाएगा। कानून के लंबे और निष्पक्ष हाथों की गवाही तो ऐसी कार्रवाई देगी, जो विधि-सम्मत हो और जिसमें एक सक्षम अदालत आरोपी को सफाई का पूरा मौका देकर उसे उसके किए की सजा दे। यह राज्य के लिए भी परीक्षा जैसा होगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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