अपनी लक्ष्मण रेखाओं का अनादर 

भारतीय संविधान एक ऐसे संघ की कल्पना करता है, जिसमें राज्यों और केंद्र के अलग-अलग क्षेत्राधिकार स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। केंद्र और राज्य सूचियों के अतिरिक्त संविधान में एक समवर्ती सूची भी है,...

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Rohit विभूति नारायण राय, पूर्व आईपीएस अधिकारी
Mon, 7 Sep 2020 9:39 PM

भारतीय संविधान एक ऐसे संघ की कल्पना करता है, जिसमें राज्यों और केंद्र के अलग-अलग क्षेत्राधिकार स्पष्ट रूप से निर्धारित हैं। केंद्र और राज्य सूचियों के अतिरिक्त संविधान में एक समवर्ती सूची भी है, जिसमें शामिल विषयों पर दोनों कानून बना सकते हैं। कानून-व्यवस्था और पुलिस ऐसे क्षेत्र हैं, जो राज्यों के अधीन हैं और स्वाभाविक अपेक्षा यह होनी चाहिए कि इनमें राज्यों की राय अंतिम होगी, पर ऐसा अक्सर होता नहीं है। देश की आजादी के बाद केंद्र में अलग-अलग दलों की सरकारें बनी हैं और लगभग सभी की इच्छा राज्यों की पुलिस पर नियंत्रण करने की रही है। कभी दबी-छिपी दमित-सी, और कभी बेशर्म उद्दाम भी। 
संविधान सभा की बहसों और बाद में अपने लेखन के जरिए डॉ आंबेडकर ने कई बार चिंता व्यक्त की थी कि भारत में भाषिक, धार्मिक या क्षेत्रीय विविधताओं के चलते विभाजनकारी शक्तियों के प्रभावी होने की आशंकाएं हमेशा रहेंगी, इसलिए एक शक्तिशाली केंद्र का होना आवश्यक रहेगा। उन्होंने संघ (यूनियन) और महासंघ (फेडरेशन) में संघ को चुनना पसंद किया। इस सुझाव को भी खारिज कर दिया था कि भारत अमेरिका की तर्ज पर यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ इंडिया बने। संविधान में ही प्रावधान है कि निश्चित प्रक्रिया अपनाकर समवर्ती सूची के विषयों पर केंद्र कानून बनाए और कई बार तो संघीय ढांचे को चोट पहुंचाते हुए भी ऐसा करे। एनआईए पर बना ऐक्ट इसी का एक उदाहरण है, जिसके बनने के समय सहमति देने वाले राज्यों ने यह कल्पना भी नहीं की थी, इससे उनका कानून और व्यवस्था के क्षेत्र में वर्चस्व खतरे में पड़ जाएगा। हाल में महाराष्ट्र के भीमा कोरेगांव मामले में यह अनुभव हो चुका है। जैसे ही सरकार बदलने के बाद यह संभावना बनी कि वरवर राव इत्यादि के खिलाफ मुकदमा वापस लिया जा सकता है, केंद्र ने विवेचना महाराष्ट्र पुलिस से लेकर एनआईए को सौंप दी। 
सुशांत सिंह राजपूत की हत्या या आत्महत्या के मामले में राज्यों द्वारा पुलिस और केंद्र द्वारा सीबीआई, ईडी और एनसीबी का जैसा उपयोग किया गया है, उससे संघीय ढांचे और संस्थाओं की पेशेवर निष्पक्षता को लेकर गंभीर विमर्श हो सकता है। इस प्रकरण में शुरुआत हुई मुंबई में आत्महत्या के बाद पटना में सुशांत के पिता द्वारा दायर एफआईआर से। यद्यपि पटना में दायर एफआईआर के क्षेत्राधिकार को लेकर सुप्रीम कोर्ट की एकल न्यायाधीश पीठ ने बिहार पुलिस के पक्ष में फैसला सुनाया है, पर इसके दूरगामी परिणामों को देखते हुए पूरी संभावना है कि भविष्य में एक बड़ी पीठ के समक्ष यह निर्णय पुनर्विचार के लिए जाएगा। जितने उत्साह के साथ मुंबई पुलिस इस तफ्तीश में जुटी, उससे अधिक उत्साह से बिहार पुलिस। दोनों के वरिष्ठतम अधिकारियों ने इस बीच जो बयान दिए, उनसे यह तो नहीं लगा कि ये किसी तरह के पेशेवर वक्तव्य हैं, अलबत्ता यह जरूर लगा कि ये अपने राजनीतिक आकाओं को खुश करने के दयनीय प्रयास हैं। दोनों राज्यों की पुलिस का व्यवहार ऐसा था, जैसे दो शत्रु देशों की सेनाएं एक-दूसरे से निपट रही हैं। 
सनसनी पसंद मीडिया को दोनों की तरफ से प्रदान की गई चुनिंदा खबरों के मुताबिक सुशांत की हत्या की गई थी, रिया उन्हें ड्रग्स दे रही थीं या सुशांत के बैंक खातों से उन्होंने 15 करोड़ रुपये निकाल लिए या ऐसी ही अन्य बहुत सनसनीखेज सूचनाएं सुर्खियों में आ गईं। इस मामले में सीबीआई की तारीफ करनी पड़ेगी कि उसने मीडिया को खबरें लीक करने की जगह धैर्य से काम किया है। अब तक मिली सूचनाओं के अनुसार, सारे उपलब्ध फॉरेंसिक या चिकित्सकीय प्रमाणों से यह साबित हो गया है कि सुशांत पहले से अवसादग्रस्त थे, मनोचिकित्सकों के संपर्क में थे, और उनके परिवार को भी यह पता था। यह तो सीबीआई की विस्तृत रिपोर्ट आने पर पता चलेगा कि अवसाद बढ़ाने में रिया का कोई हाथ था या नहीं? 
संघीय ढांचे के लिए चिंताजनक बात यह हुई कि जैसे ही मुंबई पुलिस से विवेचना सीबीआई के पास गई, महाराष्ट्र की वर्तमान सरकार के विरोधी चैनल वीरों ने घोषित करना शुरू कर दिया कि अब तो यह सरकार गई। कुछ दिनों से वाट्सएप स्कूल का एक संदेश सोशल मीडिया पर गश्त कर रहा था कि कुछ ही दिन पहले सुशांत की पूर्व सेक्रेटरी के साथ एक पार्टी में बलात्कार किया गया और फिर उनकी रहस्यमय मृत्यु हो गई। अपनी हत्या/आत्महत्या के पहले उन्होंने सुशांत को एक संदेश भेजकर सब कुछ बता दिया था। संदेश इतने सजीव वर्णनों से भरा हुआ था कि सजग पाठकों को भी उसका झूठ पकड़ने में बहुत मेहनत करनी पड़ी होगी। इस संदेश के मुताबिक, इसमें महाराष्ट्र के एक ताकतवर राजनीतिक परिवार का वारिस भी था और जैसे ही उसके दोस्तों को पता चला कि सुशांत को इसकी जानकारी हो गई है, उन्होंने उनकी हत्या की योजना बना ली। यहां तक कहा गया कि जिस कमरे में मृत्यु हुई, उसकी तो छत ही इतनी ऊंची नहीं थी कि सुशांत की लंबाई का आदमी लटक सके। अब जब यह संदेश पूरी तरह से झूठा साबित हो गया है, तो क्या हमें उस उत्साह पर चिंतित नहीं होना चाहिए, जो केंद्रीय एजेंसियों के पास प्रकरण के जाते ही उम्मीद से लबरेज हो गया था कि अब उनकी नापसंदीदा राज्य सरकार जा रही है? हम कब तक किसी सरकार को रखने या गिराने की जिम्मेदारियां एजेंसियों के कंधे पर डालते रहेंगे?
मीडिया और सोशल मीडिया के जरूरत से ज्यादा शोर-शराबे के बाद ‘हत्या’ के इस हाई प्रोफाइल मामले में केंद्रीय एजेंसियां सिर्फ प्रतिबंधित नशीले ड्रग्स के मामले में रिया के भाई और सुशांत के एक कर्मचारी की गिरफ्तारी कर सकी हैं। अगर सुशांत जीवित होते, तो शायद वह भी कठघरे में होते, क्योंकि ड्रग्स कथित रूप से उन्हीं के हुक्म पर खरीदे जाते थे। एनडीपीएस ऐक्ट के मुताबिक, नारकोटिक्स रखने, बेचने या इस्तेमाल करने वाले सभी लोग दंड के पात्र हैं। वैसे आम रूप से उपलब्ध सूचनाओं के अनुसार, अगर नारकोटिक्स टेस्ट कराए जाएं, तो बॉलीवुड में काफी बड़ी संख्या में लोग ड्रग्स का सेवन करते हुए मिलेंगे।
इसे स्वीकार करते हुए कि हर सत्ताधारी दल ने पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों का दुरुपयोग किया है, सुशांत सिंह राजपूत के बहाने हमें एक गंभीर विमर्श करना चाहिए कि इस प्रवृत्ति को रोका कैसे जाए? जरूरी है कि विधायिका, मीडिया, न्यायपालिका, सभी इस संबंध में अपनी भूमिका सचेत ढंग से निभाएं। 
(ये लेखक के अपने विचार हैं)

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